Wednesday, January 28, 2009

पैसा सिर्फ पैसा नहीं है

आजकल एक विज्ञापन टीवी पर छाया हुआ है। ‘मेरे देश में पैसा सिर्फ पैसा नहीं हैज्। कितनी गूढ़ बात कही गई है इस विज्ञापन के जरिए। सही बात है हमारे देश में पैसा सिर्फ पैसा कहां है। ये तो माई-बाप है। इसके बिना गुजारा नहीं होना। यकीन नहीं आता तो रामालिंगा राजू से पूछ लो। पहले तो भाई साहब ने अपनी साख बनाई। देश में ही नहीं विदेश में भी। पैसे से तिजोरी भरते गए। जब कुबेर का खजाना भर गया तो पलट गए। सात हजार करोड़ पचा गए डकार भी नहीं ली।

दिवालिया घोषित कर लिया। पैसे की माया ने ऐसा भरमाया कि लाखों की उम्मीद भी डकार बैठे। पैसा सिर्फ पैसा नहीं रहा इनके लिए, मक्कारी और धोखेबाजी भी बन गया। जब माया की बात चली है तो मायावती को कैसे भूला जा सकता है। पैसा सिर्फ पैसा ही नहीं ‘चंदाज् भी है। भले ही उस ‘चंदेज् के लिए देनदार को अपनी जान तक क्यों न गंवानी पड़े। मंदी के दौर में भी माया ने दुगुनी ताकत से माया को अपनी ओर खींचा है। पैसे की कीमत बाबुओं, अफसरों और अधिकारियों से पूछो। कितनी मुश्किल से कई जगह बंटते-बंटते उनके जेबों में भी पहुंचती है। फिर अब तो ‘खुफिया नजरोंज् से बचकर भी इस काम को अंजाम देना पड़ता है। पैसा सिर्फ पैसा नहीं ‘चक्करघिन्नीज् भी है। रिश्तों की रंगोली पैसों से ही बनती है।

गर्लफ्रेंड को गिफ्ट देना है तो पॉकेट में मनी भी होनी चाहिए और ‘पॉकेट मनीज् से काम चलना नहीं है। चाहिए ढेर सारा पैसा। यारों से यारी भी पैसे से ही निभती है। पैसों के लिए ही भाई, भाई का गला काटकर खून की रंगोली सजा रहा है। अपने नेताओं से बढ़िया पैसों की महिमा का बखान भला कौन कर पाएगा। पूरे बगुला भगत होते हैं। चुपचाप, पानी में एक टांग पर खड़े ध्यानमग्न, लेकिन जसे ही पैसों की गंध मिलती है झपट पड़ते हैं, ये भी नहीं देखते कि कहां से खा रहे हैं। जनता का पैसा खाते हैं तो कुछ समझ में भी आता है, जानवरों और मुर्दो को भी नहीं छोड़ते हैं। भैंसों का चारा तक पचा लेते हैं। यहां का पैसा विदेशों की तिजोरियों में बंद कर मर जाते हैं।

बस, बेचारा किसान और गरीब ही इन पैसों की कीमत नहीं समझता और गरीबी और उधारी के बोझ तले अपनी जान दे देता है। उसे पैसों की कीमत समझ में भी कैसे आएगी, उसके पास पैसा तो है ही नहीं। कभी कोई इनसे पूछे तो बताएंगे ‘मेरे देश में पैसा सिर्फ पैसा नहीं है।

धर्मेद्र केशरी

उधार का हिसाब दो

हमारे पड़ोसी की इस समय हवा टाइट हुई पड़ी है। जिस बात को को तिनका समझ रहा था वो तो बतंगड़ होने जा रही है। बराक हुसैन ओबामा। नाम तो सुना ही होगा। फिल्म का डायलॉग नहीं है भाई, बल्कि अब तो पड़ोसी की कहानी ही उल्टी होने जा रही है। भाई ने सोचा होगा कि नाम के साथ हुसैन जुड़ा है तो ये भी इस्लाम परस्त होगा, पर ये क्या। तोते उड़ने लगे हैं। सपने में भी नहीं सोचा होगा कि पैकेज पर पैकेज देने वाला कभी उनका तगादा भी कर सकता है।

ये भी पूछ सकता है कि उधार तो लिए जा रहे हो, उनका हिसाब भी दोगे। अब बेचारा हिसाब दे भी तो क्या कि रोटी की जगह उसने अपने नागरिकों को बंदूक मुहैया कराई है, शिक्षा की जगह मदरसे और विकास की जगह धर्म के जेहादी आतंकियों की पौध को सींच रहा है। आंख खुली तो फड़फड़ाकर अपने हिमायती हंसिया-हथौड़ा की शरण ली। कहा बचाओ हमें, तुमसे बंदूकें, मिसाइलें, गोला-बारूद खरीदे हैं। तुमसे खरदारी तो कर ली है। कोई पर्ची-पुर्ची कभी दी नहीं तुमने।

सारा हिसाब नंबर दो का है। बहीखाते में भी नहीं चढ़ाया। पुराने चच्चा बुश तो चले गए, वो जेब में से रुपए निकाल कर देते गए, हम लेते गए और आतंक खरीदते रहे। हमें ये तो पता था कि वो जाएंगे, पर ये नहीं पता था कि अपने साथ चार हाथ के पगहे में हमें भी लपेट लेंगे। धोबी के कुत्ते सी हालत हो गई है न घर की और न ही घाट के। हिसाब दें तो हुसैन साहब मारें, न दें तो ‘पक्के हुसैनज् मारें। करें भी तो क्या करें। वैसे पड़ोसी को हमने खूब समझाया। पुरानी कहानियों की किताब भी भेजी, जिसमें पाप का घड़ा भर के फूटने वाली कहानी भी थी, लेकिन नहीं, बुश की खुमारी उतरे तब तो। बात तो मानी नहीं, अब उनका हश्र भी अफगानिस्तान और तालिबान की तरह हो जाए तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। खर, जिसकी मति मारी गई हो उससे जिरह कैसी। लगता है पड़ोसी नक्शे पर अपने देश को देख कर चिढ़ रहा है, इसीलिए अपना दुर्भाग्य बुलाने पर तुला है।

इस्लाम और कुरान भी मानवता की ही सीख देते हैं, लेकिन नहीं मानवता और अहिंसा का चैप्टर छोड़कर बाकी सब पढ़ना है। पढ़ो, लेकिन आतंक को इस्लाम से जोड़कर किसका नुकसान कर रहे हो? ये तो आगाज है, अगर पड़ोसी को तबाही रोकनी ही है तो शैतानी छेाड़कर अच्छे बच्चों की तरह अपनी संगत सुधारे नहीं तो, अंजाम क्या होगा, ये तय है। हमें भी बुरा लगेगा इतिहास में ये पढ़ाते हुए कि हमारे पड़ोस में फलाना देश हुआ करता था।
धर्मेद्र केशरी

Tuesday, January 13, 2009

अंधविश्वास और विश्वास

एक बार मैं ऑफिस के बाहर खड़ा चाय पी रहा था। पीपल के पेड़ के नीचे चाय की दुकान है। अक्सर कबूतर और कई पक्षी सिर पर या कपड़ों पर बीट कर दिया करते हैं इसलिए चाय लेकर थोड़ा संभलना पड़ता है। जसे ही मैंने चाय की ग्लास संभाली थी कि मेरे ऊपर बीट गिरते-गिरते रह गया। मैंने दोस्तों से आग्रह किया कि चलो यहां से नहीं तो चाय के साथ कपड़ों का भी खाना खराब हो जाएगा। तभी मेरी एक दोस्त ने एक नए तरह के विश्वास से मेरा परिचय कराया। उसने बताया कि कबूतर का बीट शरीर पर गिरना शुभ होता है। कोई भी काम बन जाता है।

उस समय तो मैंने बोल दिया कि अंधविश्वासों को नहीं मानता हूं, लेकिन अंदर ही अंदर कोई और ख्याल पक रहा था। इस देश का नागरिक होने के कारण अंधविश्वास पर विश्वास करना मेरा परम कर्तव्य जो ठहरा। मैंने दिल में ही ठान लिया कि एक दिन मैं इन बीटों का फायदा जरूर उठाऊंगा। कुछ दिन बाद ही मेरा इंटरव्यू होने वाला था। इससे सही मौका इस अंधविश्वास को विश्वास बनाने के लिए कहां मिलने वाला था। खर, मैं बड़े सवेरे ही तैयार होकर चाय की दुकान पर पहुंच गया। चाय पीते-पीते मैं एकटक पेड़ के को देखता और कबूतर भगवान से प्रार्थना करता कि वो एक बीट तो कर दें।

काफी देर बाद भी एक भी बीट मेरे कपड़ों पर नहीं गिरी तो मैंने अर्जुन की तरह निशाना साधा और लक्ष्य साधकर बीटों को गिरता हुआ देखता। मेरी तपस्या सफल होने लगी थी। जिधर बीट गिरता मैं भी उधर ही भाग लेता। उसका फायदा यह हुआ कि मेरी सफेद शर्ट बीटों से रंगीन हो गई। कोई मुङो देखता तो हंसते हुए पढ़ा-लिखा पागल कहकर चल देता। मैं मन ही मन कहता रहा जिस दिन बिल्ली रास्ता काटेगी और कहीं जाने से पहले छींक आएगी और तेरा काम बिगड़ेगा, तब पूछूंगा हंसी किसे कहते हैं। बीटों से भरी शर्ट लेकर मैं पांच घंटे लेट इंटरव्यू के लिए पहुंचा। साक्षात्कार होते ही सामने बैठे लोग मुङो देख कर हंसने लगे और काम के सवाल पूछने के बजाय पूछ डाला- कितने दिन शर्ट नहीं साफ की है। बाद में उन्होंने कड़े शब्दों में नहा-धोकर, साफ शर्ट पहन कर आने की सलाह भी दे डाली।

उन्हें क्या पता कि मैं देश के बाशिंदों की तरह ही एक मिथक पर कई घंटों के साथ अपनी शर्ट भी बरबाद कर आया हूं। इंटरव्यू में सेलेक्शन तो नहीं हुआ, अलबत्ता हंसी का पात्र बन गया सो अलग। अंधविश्वास पर विश्वास करके मैंने अपना माखौल बना लिया। घर पहुंचते-पहुंचते लोग न जाने मुङो किन नजरों से देखते रहे। फिर मैंने कभी कबूतरों की बीटों पर भरासा नहीं किया।

सेंसेक्स पर राजनीति

राज ठाकरे का एक कार्यकर्ता हांफता हुआ उनके पास पहुंचा और बोला- सरकार, अब शंयर मार्केट में पैसा लगाना मुनासिब नहीं है। राज ठाकरे उसके कहने का मतलब नहीं समझ पाए, बोले- क्या बोल रहा है तू, कहने का मतलब क्या है तेरा? कार्यकर्ता ने जवाब दिया- सरकार, शेयर मार्केट का हाल बहुत बुरा है, कंपनियां घटे में जा रही हैं, लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है। कइयों का पैसा डूब चुका है। मुबई में ही जेट एयरवेज के ही सैकड़ों कर्मचारियों को काम से निकाल दिया गया है।

मार्केट की हालत बहुत पतली होती जा रही है। इतना सुनते ही राज ठाकरे अपने चेहरे पर कुटिल मुसकुराहट लाते हुए बोले- ओए तो इसमें परेशान होने वाली क्या बात है? मेरा पैसा लगा होता और डूबने का आसार होता तो कंपनियां पहले ही लौटा के जातीं, उन्हें मुंबई में रहना है कि नहीं। और रही बात मार्केट की हालत पतली होने की, तो यह तो अपने लिए अच्छी बात है। चुनावों में मुद्दा बनाना है। डायरी में इसे नोट करके रख ले। एक खबर तू कायदे का लाया है कि मुंबई में जेट एयरवेज के कर्मचारियों को निकाला जा रहा है। जा, जरा मीडिया के लोगों को बुला तो उनके जरिए प्रचार कर दूं कि मुंबई के कर्मचारियों को न निकाला जाए, नहीं तो उनके हवाई जहाज उड़ नहीं पाएंगे। कार्यकर्ता बोला- वाह सरकार, आपने बेचारे बेरोजगारों की मदद करने का अच्छा फैसला लिया है। राज ठाकरे बोले- इसीलिए तू कार्यकर्ता है और मैं तेरा नेता, मेरे जसा शाणा तू नहीं हो सकता। देख, यही मौका होता है आग में घी डालने का।

एक बार उन कर्मचारियों को भड़काने भर की देर है फिर अपना काम तो आसानी से हो जाएगा। जितना भी बवाल होगा वो अपनी पार्टी को फायदा पहुंचाएगा। मुङो लोग कहां जानते थे, कुछ जानते भी थे तो चचा बाल ठाकरे का चेला ही मानते थे। फिर मैंने चचा वाली चाल चली और उत्तर भारतीयों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इतना बवाल मचा कि मैं अचानक ही काफी लोकप्रिय हो गया। इतना ही नहीं, मेरी पार्टी का वोट बैलेंस भी भकभका कर बढ़ा है। इस बार भी कोई बवाल-सवाल हो गया तो मामला फिट। वैसे भी मुंबई में मेरा बाल बांका होने से रहा। उन्हें नौकरी पर वापस रखा जाएगा या नहीं, लेकिन उनकी नजरों में तो उनका हिमायती जरूर बन जाऊंगा। अब तू समझा, सेंसेक्स के गिरने और नौकरी से निकाले गए लोगों को ढाल बनाकर कैसे राजनीति किया जाता है। जा, देर मत कर और मीडिया के साथ अपने कार्यकर्ताओं को भी आगामी बवाल की सूचना दे दे।


धर्मेद्र केशरी

दीवाली बंपर धमाका

दीवाली के मौके पर कई लोगों को शानदार उपहार मिला है। शानदार ही नहीं, धमाकेदार। उनकी दीवाली पूरी बंपर दीवाली बन गई है। बंपर दीवाली धमाके में पहला नाम आता है अपने राजू का। अरे वही राज ठाकरे। उनकी दीवाली मस्त-मस्त हो गई है। ‘आमची महाराष्ट्रज् का ऐसा बम फोड़ा है कि उसकी चपेट में पूरा देश आने वाला है। खर, बात हो रही है बंपर धमाके की। राज साहब ने बाल ठाकरे के वोट बैंक पर सेंध ही मार दी है।

बाल ठाकरे की ही चाल चलकर उन्होंने शिवसेना को बैकफुट पर धकेल दिया है। उन्होंने बेचारे बाल ठाकरे के मुंह में ऐसा गरम रसगुल्ला ठूंसा है कि न तो निगल पा रहे हैं और न ही निकाल पा रहे हैं। हाथ में लाठी-डंडे और पेट्रोल बम लेकर राज साहब के कार्यकर्ताओं को भी हैप्पी दीवाली कहने का मौका मिल गया है। वैसे राज के गुंडों दीवाली के मौके की दरकार नहीं होती है, जब चाहा नफरत के पटाखे फोड़ने लगे। ओछी राजनीति ही सही राजू ने अपनी नेताई चमका ही ली है। देश के संविधान और कानून को ठेंगा दिखाकर दीवाली का पूरा मजा लूटने जा रहे हैं। सरकारी बाबुओं को भी इस त्योहार का इंतजार रहता है।

मिठाई के डिब्बे में लक्ष्मी जी गृह प्रवेश जो करती हैं। उनकी दीवाली बंपर हो ही जाएगी। बेचारे उन नेताओं को पुरानी दीवाली की बहुत याद आती है, जो नोट के बदले सवाल मामले में फंसे हैं। इस त्योहार के बहाने ही सही कुछ तो दान दक्षिणा अंदर हो जाती थी। उनका हाल तो और भी बुरा है, जो फंसे नहीं हैं, स्टिंग ऑपरेशन के डर के मारे मिठाई का डिब्बा भी लेने से कतराते हैं। सवाल पूछना तो दूर की बात है। ऐसा ही कुछ हाल लेफ्ट वालों का है। इस बार उनकी दीवाली में बंपर धमाका नहीं हो पाएगा। कांग्रेस को उनकी हालत का पता चल गया है। वो फुस्स होने वाले पटाखे हैं। जब तक सरकार में थे, पटाखा फोड़ने से पहले ही फुस्स हो जाया करता था।

पतीले में आग भी लगाई तो अमर सिंह ने उनकी दीवाली खराब कर दी। सोनिया मैडम की दीवाली बंपर और धमाकेदार तो नहीं, लेकिन ठीक-ठाक ही बीतेगी। रोज-रोज की धमकियों से निजात जो मिल गई। आगे किसी और के बंपर, धमाकेदार दीपावली के बारे में लिख ही रहा था कि मेरा दोस्त आ गया। उसने पूछा तुम्हें क्या मिल रहा है, दीवाली बंपर धमाके में। मेरी त्योंरियां चढ़ गईं, मुई छुट्टी तो मिल नहीं रही बंपर धमाका क्या खाक होगा। इतना सोचकर मैं इन्हीं बंपर धमाकों से संतुष्ट हो गया।

धर्मेद्र केशरी

अपना-अपना स्वार्थ

चुनाव का ऐलान होते ही बरसाती नेता सामने आने लगते हैं। मुद्दो को खंगाला जाता है और लंबे-चौड़े भाषण की पटकथा तैयार होने लगती है। नेता अपनी कमर ऐसे कसते हैं कि जिम में कमर बना रहा हीरो भी शरमा जाए। हीरोइनें तो हार मान लें कि इतना जबरदस्त कमर हम भी नहीं कस सकते हैं। चुनाव के वक्त मेरे दोस्त चिरौंजी लाल पर भी बुखर छाने लगता है।

किस नेता ने किसके लिए क्या कहा, उनकी नजरों से नहीं बच सकता है, लेकिन उनमें एक खराबी है। खराबी ये कि वो बहुत जल्दी किसी के भी बहकावे में आ जाते हैं। कल सुबह वो खिसियाए हुए मेरी ओर चले आ रहे थे। मैंने पूछा- क्या हो गया चिरौंजी भाई, इतने गुस्से में क्यों हो? चिरौंजी लाल ने कहना शुरू किया- यार, देखो लालू प्रसाद बिहारियों का कितना हिमायती है, राज ठाकरे से तो पंगा ले ही रहा है, नीतिश को भी खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं, मुङो तो लगता है कि वो नीतिश कुमार से इस्तीफा मांगकर ठीक ही कर रहा है।

मैं समझ गया कि इस बार चिरौंजी लरल लालू प्रसाद यादव की बातों में फंस गए हैं। मैंने कहा- भई चिरौंजी, तुम राजनीति पर नजर तो रखते हो, लेकिन राजनेताओं के आशय को नहीं समझते हो। फंस गए न लालू की बातों में! राज ठाकरे को खींचते-खींचते अपने असली मुद्दे पर आ गए। उन्हें बिहारियों से नहीं, बिहार से मतलब है। बिहार की सत्ता उनके हाथ में है नहीं, इसलिए राज पर निशाना साधते हुए लगे हाथ नीतिश सरकार भी गोला दाग दिया है। रही बात इस्तीफा देने की तो, लालू पहले अपने विधायकों, सांसदों से इस्तीफा देने के लिए कहें तो समझ में आता है, लेकिन वो ऐसा क्यों करने लगे। रही बात नीतिश कुमार की, तो सब को कुर्सी प्यारी हाती है, वो क्यों छोड़ने लगे ‘सोने की मुर्गीज् को। सब राजनीति के खेल हैं, फंसती बेचारी जनता ही है।

नीतिश जी ने कह तो दिया कि राज भाई साहब बिहार में होते तो वो उन्हें अच्छा सबक सिखाते, लेकिन बैठे तो बिहार में हैं, मुंबई में नहीं। कभी-कभी तो लगता है कि उद्धव ठाकरे ठीक ही कहता है कि अगर लालू ने पंद्रह साल बिहार पर ध्यान दिया होता तो यह नौबत ही नहीं आती, लेकिन उद्धव ठाकरे भी राजनीति तो ही कर रहे हैं। सभी राजनीति की उल्टी गंगा में हाथ धोने में लगे हुए हैं। बरसाती नेता हैं, अपना ही राग अलापेंगे, किसी की भावनाओं का इनके लिए मोल नहीं। चिरौंजी लाल मेरी बातों से संतुष्ट नजर आ रहा था। हामी भरते हुए वो घर की ओर हो लिया।

‘बावनरूपी की लीला

इस समय मुङो नेताओं के अंदाज-ए-बयां पर बड़ा मजा आ रहा है। हर कोई अपने तरीके से वोटरों को रिझाने का प्रयास कर रहा है। एक दिन मैं घर से बाहर ही निकला था कि दूर से एक ब्लैक एंड वॉइट वस्तु मेरी ही ओर आती नजर आई। जसे ही वो ‘वस्तुज् नजदीक आई तो देखा कि एक चकाचक सफेद खद्दरधारी व्यक्ति काली भैंस पर हाथ जोड़े चले आ रहे थे।

उनके पीछे कुछ लोगों का हूजूम था, सबसे ज्यादा मजा तो बच्चों को आ रहा था। मैंने एक बंदे से रोककर पूछा- ये महानुभाव भैंस पर बैठकर क्या कर रहे हैं? उसने जवाब दिया- ये हमारे नेताजी हैं, भैंस पर बैठकर हमसे वोट का प्रसाद मांगने आए हैं। मुङो हंसी आ गई, वाह! क्या तरीका है वोट मांगने का। पर यह तो कुछ भी नहीं है। इनसे भी बड़े-बड़े धुरंधर अपने हथकंडे अपनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। एक जगह मंडली जमी हुई थी, चारों ओर कीर्तन-भजन हो रहा था। भीड़ से ‘छोटो मेरो मदन गोपालज् की ध्वनि आ रही थी। भक्ति-भाव से विभोर होकर हाथ जोड़े में भी भीड़ में घुस गया और उनके साथ ताल से ताल मिलाने लगा।

सामने एक चश्मे वाले भाई साहब ‘कृष्ण भक्तिज् में तल्लीनता से लगे हुए थे। बाद में पता चला कि वो गायक नहीं, बल्कि नेताजी थे, जो वोटर देवता को मनाने के लिए ‘कृष्ण रागज् छेड़ रहे थे। नेताजी के कृष्ण प्रेम का राज मुङो बाद में पता चला। खर, जसे-तैसे मैंने वहां से भागकर घर की ओर कूच किया। रास्ते में देखा कि चिरौंजी लाल अपने घर की सामने वाली नाली साफ कर रहा था। मुझसे पूछे बिना नहीं रह गया- अरे चिरौंजी, सफाई तो होती है, फिर तुम्हें नाली साफ करने की धुन कैसे सवार हो गई? उसका जवाब सुनकर मैं हंसे बिना नहीं रह सका, चिरौंजी बोला- भैया, मैं नाली साफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि सड़क और नाली को और भी गंदा कर रहा हूं।

पता चला है कि कल फलाने नेता वोट मांगने आने वाले हैं, जीत गए तब भी, हारे तो कोई बात नहीं, पांच साल अपना चेहरा दिखाने से रहे। वो पाखंड करेंगे ही। इसलिए मैं यह गंदगी मचा रहा हूं ताकि सफाई का ढोंग करने वाले इसी बहाने कुछ सफाई तो करेंगे, बाद में तो इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे। जनता भी क्या करे, जिसे मौका देती है उसके ही भाव बढ़ जाते हैं। यही तो मौका है कुछ समय के लिए ही सही इन्हें सबक सिखा सकेंगे। चिरौंजी की बात भी सही थी, लेकिन यह नेता हैं, अभिनेताओं को भी मात दे दें इसलिए ‘बावनरुपज् रचकर लोगों को छलने का हौसला रखते हैं।


धर्मेद्र केशरी

एक वो नेता, एक ये नेता

चुनाव के समय हमें एक नेताजी बहुत याद आते हैं, जो सही मायनों में नेता थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस। उनके नाम के आगे नेता शब्द सुशोभित करता है, लेकिन आज के नेता उसी शब्द की कमाई खा रहे हैं। ‘नेतागिरीज् से बेहतर आरामतलबी का पेशा और समृद्धि भरी जिंदगी और कहीं नहीं रह गई है। बेचारे ‘नेताजीज् सुभाष चंद्र बोस ने अपनी जिंदगी देश के निर्माण में झोंक दी, लेकिन हमारे ये नेता अपनी जिंदगी लंगड़ी लगाने और खुराफात में ही बिता देते हैं।

चुनावी समर में एक आधुनिक नेताजी ने तो उनके नारे तक को नहीं बख्शा। सुभाष चंद्र जी ने तो देश की आजादी के लिए लोगों का खून मांगा था, लेकिन इनका कहना है ‘तुम मुङो वोट दो, मैं तुम्हें विकास दूंगा।ज् ये नेता भी कम बेशर्म नहीं होते हैं। हर बार झूठ बोलकर भी पता नहीं किस मुंह से जनता के सामने खींसे बघारे पहुंच जाते हैं। वोट तो हर बार पाते हैं, गद्दी पर पहुंचते ही विकास को टाटा, बाय-बाय कह देते हैं। एक नेताजी ने अपना प्रचार कुछ इस अंदाज में किया है कि- बिजली का मीटर भाग रहा है, बिल लंबे-चौड़े आ रहे हैं। वो साहब सत्ता में आएंगे तो बिजली सस्ते भाव में देंगे। नेताजी के एक चमचे ने उनसे पूछा-सरकार, आपने घोषणा तो कर दी, और मान लो कि हम जीत भी गए, तो ये सब होगा कैसे? नेताजी मुस्कराते हुए बोल- वादों और उनके पूरा होने में जमीन-आसमान का फर्क है। वादे करते रहो, वादों और आश्वासन का पैसा तो लगता नहीं है।

जीत गए तो जनता पांच साल तक कुछ कर नहीं पाएगी। महंगाई का मीटर भाग रहा है तो बिजली का मीटर कहां से रुक जाएगा। ये सब ‘चुनावी लॉलीपॉपज् हैं। जनता को थमा दिया है, अब वो न चाहते हुए भी इसे चूसेंगे। और हमीं कौन सा ये काम कर रहे हैं, आज के दौर में सारे नेता यही कर रहे हैं। वादा पूरा नहीं कर पाए तो दोष किसी और पर मढ़ देंगे। चमचे ने आश्चर्य से पूछा- वो तो ठीक है कि पांच साल कट जाएंगे, लेकिन दोबारा हम जनता के बीच किस मुंह से जाएंगे? इस बात पर नेताजी गुस्सा गए, बोले- इसी मुंह से गधे और किस मुंह से, बेशर्मी हमारी फितरत हो चुकी है, फिर जनता को कौन सा याद रहता है। तब तक नए मुद्दों की धार तेज कर लेंगे, इस बार मीटर और महंगाई कैश करो अगली बार कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। नेतागिरी की यह दुर्दशा बेचारे नेताजी सुभाष चंद्र बोस को पता होता तो वो कभी अपने नाम के आगे ‘नेताजीज् नहीं लगाते।


धर्मेद्र केशरी

आखिर कब तक?

हिंदुस्तान की आर्थिक राजधानी मुंबई पर आतंकवादियों ने खुलेआम हमला बोला है। ऐसा हमला बोला है कि सबकी बोलती बंद हो गई है। चुनाव-चुनाव चिल्ला रहे राजनेताओं को सांप सूंघ गया है, लेकिन पक्के तौर पर वो इसे भी मुद्दा बनाकर चुनावी पटकथा तैयार कर रहे होंगे। यह निश्चित है कि राजनेता इस पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आए हैं।

अभी हालात बुरे हैं तो कोई अपनी जुबान नहीं खोल रहा है, लेकिन जरा सा मौका पाते ही आरोप-प्रत्यारोपों के लिए चोंगा सा मुंह खोल देंगे। अब मराठी-मराठी चिल्लाने वाले राज ठाकरे भी बिल में घुस गए हैं। वैसे भी उनके वश का कुछ है नहीं। ये वो लोग हैं, जो अपने पिछवाड़े पर ढाल और बुलेट और बुलेटप्रूफ जकेट पहनकर चलते हैं, ताकि भागते समय कोई इनके पिछवाड़े पर हमला न कर दे। कायर कहीं के। जब सेना को ही बॉर्डर से लेकर घर के अंदर ही जान की बाजी लगानी है तो लोकतंत्र की दुहाई क्यों देते हैं। ये सफेदपोश ऐसे हैं कि अपने स्वार्थ के लिए इमान का सौदा करने से भी कोई गुरेज नहीं। किसी एक की क्या बात करें, हर किसी की तो यही कहानी है। बेचारे हिंदुस्तानी बने ही हैं बर्दाश्त करने के लिए। बर्दाश्त करने वाली उम्र में अगर कोई प्रधानमंत्री बनेगा तो वो बर्दाश्त ही करता रहेगा, कार्रवाई करना तो उसके वश की बात है ही नहीं।

दिल्ली धमाके को बीते ज्यादा दिन नहीं बीते कि आतंकियों ने हमारी लाचारी फिर जाहिर कर दी है। नेता तो कर्महीन हैं ही, सुरक्षा एजेंसियों और सुरक्षा संगठनों को भी सांप सूंघ गया है। इतनी बड़ी क्षति होने के बाद भी संयम से काम लेंगे? लेंगे क्यों नहीं अपनों को खोने का गम तो वो ही जानते हैं, जिनके अपने काल के गाल में समा गए। आतंकियों की हरकत तो वही वाली बात हो गई कि कोई खींचकर तमाचा जड़े तो बोलना कि अब मारोगे तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा, फिर चांटा खाने के बाद गाल पकड़कर बोलना कि अब मारोगे तो देख लेना, सामने वाला फिर मार देता है और हम बस दांत पीसते रह जाएं। यही हो रहा है हमारे मुल्क में भी मुल्क के आकाओं ने भी बर्दाश्त और संयम की वही घुट्टी पी और पिलाई है।

पड़ोसी कहते हैं कि वो मद्द करने को तैयार हैं, क्या आतंकियों की और भी खेप भेजकर हमारी मद्द करेंगे? अब तो जागो देश के मोहन प्यारों और प्लीज अलग-अलग जागने के बजाय मिल कर जागो तो बेहतर है नहीं तो भविष्य की जो रूपरेखा तय हो रही है, वो इससे भी वीभत्स और खतरनाक होगा। खद्दधारियों से सिर्फ एक ही सवाल है, आखिर कब तक?


धर्मेद्र केशरी

तोता मैना की कहानी..


तोता मैना की कहानी पुरानी हो गई..। ये अब सच होता लग रहा है। बहुत पुरानी बात हो गई जब हमारी दादी, नानियां तोता-मैना के प्यार भरे किस्से सुनाया करती थीं। हमारे देश में भी ‘तोते-मैनाओंज् की संख्या भी कुछ कम नहीं है। कम क्या लगातार बढ़ रही है। और बढ़नी भी चाहिए, प्यार बढ़ने में तो कोई बुराई नहीं है। न ही सरकार ने इन्हें रोकने का कोई कानून बनाया है और न ही कोई पॉलिसी। एक दिन तोता और मैना दोनों उदास बैठे थे।

मैंने उनकी उदासी का कारण पूछा तो कहने लगे- आजकल हमें कोई पूछता ही नहीं है। पुराने लोग तो उनके किस्से सुनते थे, लेकिन अब कोई हमारे प्यार का किस्सा नहीं सुनता है। अब दादा-दादी परिवार से अलग कर दिए जाते हैं, कोई किस्सा सुनाए भी तो कैसे? और तो और तुम इंसानों ने ऐसी खुराफात कर दी है कि कोई हमारी कहानी ही नहीं सुनना चाहता है। मैंने कहा- मैना रानी, ये तो समझ में आता है कि परिवार में अलगाववाद हावी है, लेकिन इंसानों ने क्या खुरापात कर दी? तोते ने कहा- अच्छा, ज्यादा भोले मत बनो तुम्हें सब पता है।

प्यार तुम करोगे, बदनाम हमें होना पड़ता है। अब तो तुम्हारे यहां के राजनेता खुल कर रास रचाने लगे हैं। देखा नहीं, एक औरत के चक्कर में अच्छे-भले चंद्रमोहन, चांद मुहम्मद बन गए। अपने परिवार तक को छोड़ दिया। अरे यह भी कोई मुहब्बत होती है। हम भी प्यार करते थे, लेकिन किसी एक को ही, तुम लोगों की तरह ‘प्यार का प्रसादज् नहीं बांटते फिरते थे। अरे, आज से 25 साल पहले ‘चांद बाबूज् ऐसा कदम उठाते तो हम भी उन्हें अपनी सलामी देते, लेकिन 45 साल की उम्र में उन्हें तोता कहा जाए, मजनू या रांझा। वो तो ये सब भी नहीं कहे जा सकते हैं। एक वो भी हैं, आपके पुलिस अफसर, हां हां वही, ‘कलयुगी राधाज्। पांडा साहब पर इश्क की खुमारी बुढ़ापे में छाई और ढोंगी राधा तक बनने से नहीं चूके। वो भी पराई नार पर नजर डालने की हिमाकत कर बैठे।

अब बेमन से कृष्ण भजन कर रहे हैं। उनके तो भूले ही जा रहे हैं, जिन्होंने पढ़ाते-पढ़ाते अपनी शिष्या को ही बीवी बना लिया। अपनी पहली बीवी और बच्चों के बारे में भी नहीं सोचा। खर, उनकी माया वो ही जानें, लेकिन तुम्हीं बताओ जब यही सारा अटेंशन ले लेंगे तो हमें भला कौन पूछेगा। बच्चों के सामने इनके किस्से का गलत असर भी तो पड़ेगा। मैं तोता-मैना की परेशानी से सन्न रह गया। कह भी क्या सकता था, आखिर उन्होंने गलत कहां कहा था।


धर्मेद्र केशरी

पड़ोसी शैतान सिंह

कहावत है कि चोर चोरी से चला जाए, लेकिन हेराफेरी से कभी नहीं जा सकता है। और जो सिर्फ साव बनने का ढोंग कर रहा हो, वो तो कभी भी सुधर ही नहीं सकता है। यह कहावत हमारे पड़ोसी पर बिलकुल फिट बैठता है। हमारे पड़ोस में एक शैतान सिंह नाम का बंदा रहता है। वो लोगों अपने घर के लोगों को को सिर्फ हिंसा का ही पाठ पढ़ाता है। गाली-गलौज कैसे की जाती है, मारपीट करने का हुनर और जान तक लेने का गुण भी अपने लोगों को सिखाता रहता है। और तो और हमारे यहां के भगोड़ों को भी अपने घर में पनाह देता है।

हद तो तक हो जाती है, जब वो यह कहता है कि फलाना हमारे घर में है ही नहीं, जबकि वो दामाद की तरह उनकी सेवा कर रहा है। कानून की आड़ में खिलवाड़ करता रहता है हमारा पड़ोसी। चांइयों के सारे गुण उसमें मौजूद है। सच तो यह है कि वो सारे शहर को परेशान करने का माद्दा रखता है। पिछले दिनों उसी के इशारे पर हमारे घर में मार-काट मची। वो कहता है कि हमारी मद्द करेगा, लेकिन जब मद्द करने की बारी आई तो औकात दिखा दी। जब हमारे घर के मुखिया ने पड़ोस में ऐश कर रहे भगोड़ों की मांग की तो शैतान सिंह ने भी अपना असली चेहरा दिखा दिया। शैतान सिंह को सबूत चाहिए। उन मौतों का सबूत चाहिए, जो उसके इशारे पर हुआ है। उस छिने सूकून का सबूत चाहिए, जो कई घरों में नदारद है। उजड़ी मांगों का सबूत चाहिए, खाली गोदों का सबूत चाहिए, सूनी कलाइयों का सबूत चाहिए। खर, शैतान से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। उसे तो लाल रंग से प्यार होता है, फिर अपनों का बहे या पड़ोसी का उसे फर्क नहीं पड़ता है। बस लहू दिखना चाहिए।

अभी वो रक्तपिचाशों की वकालत कर रहा है। कह रहा है सबूत दो तो हम अपने तरीके से सजा देंगे। हां, फूलों की सेज पर बैठाकर उनकी आवभगत करेंगे, घर के भेदी जो ठहरे। शैतान सिंह यह भूल गया है हर बुराई का अंत जरूर होता है। उसका भी होगा। रस्सी तो जल गई, लेकिन अभी ऐंठन बरकरार है। सीधे घर में घुसने की हिम्मत नहीं है तो सेंधमारी कर रहा है। अपने पड़ोसी रिश्तेदारों के बल पर बहुत कूद रहा है शैतान, लेकिन जिस दिन पाप का घड़ा भरेगा कोई उसकी तरफदारी भी नहीं करने वाला। इस शैतान का व्यक्तित्व कुछ ऐसा है, जसे कोई बगुला भक्त हो और मछली देखते ही झट से शिकार कर ले। ये है हमारा पड़ोसी शैतान सिंह। अब आप ही सोचिए ऐसे पड़ोसी के साथ क्या हो?


धर्मेद्र केशरी

Monday, January 12, 2009

जूता खाने का इरादा

जॉर्ज बुश जूनियर ने जूतों के दिन लौटा दिए हैं। नए जूतों के कद्रदानों की संख्या तो बढ़ ही रही है, पुराने जूतों के चेहरे भी खिल गए हैं। बिना पॉलिश किए भी जूते खीस निपोर कर अपनी बत्तीसी दिखा रहे हैं। फटे-पुराने जूतों ने अब अपनी किस्मत पर रोना बंद कर दिया है। एक जूता दूसरे जूते से बड़ा खुश होकर बात कर रहा था। पहले ने कहा- दोस्त, सही कहा गया है कि भगवान हर किसी का दिन लौटाते हैं। हमारी किस्मत अब सिर्फ पैरों में नहीं रह गई है, बाकायदा किसी के सिर पर पड़ने को भी तैयार है।
पहले तो लोग बस कहा करते थे कि जूता खींच कर मारूंगा, लेकिन ऐसी खुशनसीबी कम ही नसीब होती थी। अगर हमें पैरों के बदले सिर मिलता था, तो उन लागों का, जो जुल्म के शिकार हुआ करते थे। बलवान अपनी शान दिखाने के लिए अत्याचार किया करते थे। सच बताऊं, तो उस समय खुद पर कोफ्त होती थी कि हम बने ही क्यों, जो अपनों पर ही पड़ रहे हैं। अंग्रेजों ने हमारे नीचे इतने भारतीयों को कुचला है कि उसकी कसक आज भी महसूस होती है, लेकिन इस बार दिल को तसल्ली मिल रही है। इस बार एक ‘महाशक्तिशालीज् को जूता पड़ा है। दूसरा जूता- लेकिन दादा, वो जूता उन्हें लगा कहां? पहला- लगा, उनके दिल पर लगा है छोटे, महाशक्तिशाली होने का दंभ हो गया था उन्हें और जाते-जाते ये विदाई तो होनी ही थी, फिर सोच हमारी कितनी शान बढ़ गई।
पहली बार खुद के शक्तिशाली होने का आभास हुआ है। हमारी वकत अब लोगों को होने लगी है। अब हमें सिर्फ पैरों में पहनने और मंदिर से चुराने वाली चीज नहीं समझा जाता है, भले ही वो ‘जूताज् उनके मस्तक पर नहीं लगा, लेकिन उस ‘जूतेज् से हमारा ‘मस्तकज् तो ऊंचा हो गया। ये तो रही जूतों के दिल की बात। देश के कुछ राजनेता भी अब जूतों की पूजा करने लगे होंगे। खासकर वो, जिनके नेतागिरी की दुकान मंदी चल रही है। सोच रहें होंगे कि काश! कोई एक जूता मार दे तो हम भी लोकप्रिय हो जाएं। जूता खाने का दर्द इन्हें होने से रहा, क्योंकि वो इसी में लोकप्रियता की गंध ढूढ़ते हैं। वो भगवान से मनाते होंगे कि हे भगवान, हम भी जूता खाने वाले काम करते हैं, फिर हमें कोई क्यों नहीं मारता।
कोई मारे तो उस जूते को ‘चरण पादुकाज् मानकर पूजेंगे। अब अगर कोई इनसे पूछे कि ‘जूता खाने का इरादा हैज् तो भाई लोग मुस्करा कर जवाब देंगे, सिर्फ कह रहे हैं, करेंगे कब!

धर्मेद्र केशरी

शैतानराज का खात्मा

एक समय की बात है। दो राजा थे। एक राजा रामराज्य में विश्वास करता था तो दूसरा रावण की पूजा करता था। सही मायनों में वो रावण की भी नहीं पूजा करता था, बल्कि वो शैतान का पुजारी था। पुजारी भी ऐसा कि गुरू शुक्राचार्य भी पानी मांगते फिरें। जहां राम राज्य था, वहां राजा शासक था, प्रजातंत्र था, उम्मीद थी, खुशहाली थी और लोगों में प्यार था। दूसरे राज्य में ये सब होने ही नहीं पाया, क्योंकि वहां लोकतंत्र के नाम पर सैनिक अपनी मनमानी चलाते थे। वो राज्य रामराज्य की अपेक्षा काफी छोटा था, कद में भी और नीयत में भी। रामराज्य के लोग हमेशा प्रगति की ओर देखते थे, लेकिन शैतान राज्य के लोग उन लोगों के सामने हमेशा परेशानियां ही खड़ी किया करते थे।

शैतान राज्य के सभी लोग तो नहीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे थे जो रामराज्य की ओर टेढ़ी नजरों से ही देखा करते थे। वो हमेशा अपने घुसपैठियों को रामराज्य में घुसाते और हिंसा फैलाने की कोशिश किया करते, वो लोगों को लड़ाने के लिए आमादा थे। हर समय कोई ऐसी खुरापात सोचते कि रामराज्य के लोग सकून से नहीं रह सकें। वर्षो से उन्होंने हिंसा का राग ही अलाप रखा था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वो रामराज्य पर तीन बार आक्रमण कर चुके थे, लेकिन हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। हारने पर वो दुम दबाकर ऐसे भागते, जसे घोड़े के पीछे पेट्रोल लगा दिया गया हो।

रामराज्य उसे बिगड़ा बच्चा समझ कर हमेशा माफ करने की भूल करता रहा और पड़ोसी राज्य की हिम्मत बढ़ती रही। दिन बदले, हालात बदले, लेकिन शैतान राज्य के मंसूबे नहीं बदले। रामराज्य ने उनकी हर कोशिश नाकाम कर दी थी। एक बार तो हद ही हो गई। शैतान राज्य के कुछ शैतानों ने रामराज्य के दिल पर हमला बोल दिया। कई मासूमों को मौत की नींद सुलाने के बाद भी शान से कहता रहा कि वो उसकी करतूत नहीं थी। रामराज्य के राजा ने उसे कार्रवाई करने के लिए कहा, उसने सबूत मांगा। सबूत दिया, फिर भी वो अड़ा रहा कि वो तो थे ही नहीं।

इस बार रामराज्य के राजा को गुस्सा आ गया। सालों से जर्जर पड़ा सब्र का बांध आखिर टूट गया। रामराज्य के राजा ने भी अपने पूर्वज राम से सीख ली और शैतानों की सेना पर चढ़ बैठा। झूठी शान बघारने वाली शैतानों की सेना इस बार भी दुम दबा कर भागने लगी, लेकिन इस बार राजा ने खतरा नहीं उठाया और पूरे शैतानराज का ही खात्मा करके दम लिया। ये वो कहानी है, जो कभी भी सच हो सकती है।


धर्मेद्र केशरी