Sunday, November 28, 2010

सब कुछ फिक्स है बिग बॉस में!

रियलिटी शो बिग बॉस का चौथा सीजन करीब दो महीने का होने जा रहा है। इस शो को लेकर तमाम तरह की बातें की जाती रही हैं। कभी शो वीना-अस्मित की वजह से चर्चा में आया तो कभी डॉली और श्वेता तिवारी के बवाल ने लोगों को शो देखने पर मजबूर कर दिया। शो पहले से ही स्क्रिप्टेड होता है, इसको लेकर शो के निर्माता न जाने कितनी बार सफाई दे चुके हैं। खुद सलमान खान ने डॉली से कहा था कि उन पर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि शो फिक्स होता है, पर डॉली ने कहा कि नहीं ये ओरिजिनल है, पर आप एक बार शो से निष्काषित सदस्यों पर गौर फरमाएं तो आपको सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि शो में वोटों के हिसाब से नहीं, बल्कि टीआरपी को ध्यान में रखकर सदस्यों की विदाई की जाती है।
बिग बॉस के घर में ऐसा माहौल बनाया गया है जसे बिग बॉस बहुत बड़े न्यायाधीश हों और उनकी नजर से कुछ भी नहीं बच सकता, लेकिन ये सौ फीसदी सच है कि न बिग बॉस और न ही घरवाले, सब कुछ तय करता है टीआरपी और कमाई से बढ़कर कोई सिद्धांत और उसूल नहीं है। शो में सबसे पहले निष्काषित किए गए थे वकील अब्बास काजमी। उनके साथ और भी कई लोग नॉमिनेटेड थे, पर उन्हें शो से बाहर नहीं किया गया, क्योंकि पहले ही हफ्ते में आयोजकों को ये अंदाजा हो गया था कि अब्बास काजमी उनके किसी काम के नहीं है। फिर बारी आई साक्षी प्रधान की।
वो सिर्फ इसलिए कि घर के अन्य सदस्यों की अपेक्षा वो टीआरपी दिलाने में नाकाम रही हैं। शो का फॉरमेट है कि जो अच्छे से बर्ताव करेगा, वो बिग बॉस का विजेता बनेगा, जबकि सच्चाई यह है कि जो बिना विवाद, बिना बवाल किए अच्छे से घर अच्छे से रहना चाहता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। यहां वोट नहीं टीआरपी ही मायने रखती है। आंचल कुमार ने भी न तो लड़कों को भाव दिया और न ही कोई लफड़ा किया, लिहाजा वो हो गईं घर से बेघर। अगर वो शांत या घर के किसी मर्द सदस्य के साथ अफेयर जसा कोई माहौल बनातीं तो निश्चित तौर पर वो अब भी घर में बनी होतीं, जसे कि वीना घर में डेरा डाले हुई हैं। वीना का अश्लील आकर्षण शो को टीआरपी देने में मददगार रहा है, इसलिए वो अभी तक घर में बनी हुई हैं।
ऐसा ही राहुल भट्ट के साथ हुआ, क्योंकि उन्होंने भी घर के फालतू के झगड़ों में पड़ने का जोखिम नहीं उठाया था। अगर बिग बॉस में सिद्धांत और उसूलों को महत्व दिया जाता, तो डॉली बिंद्रा उसी दिन घर से बेघर हो जातीं, जब उन्होंने पहली बार ही श्वेता के साथ गाली-गलौज किया था, लेकिन नहीं बिग बॉस की टीआरपी लगातार बढ़ती रहे, डॉली को गाली-मारपीट दोनों की छूट दे दी गई। ये तो समीर अड़ गए, इसलिए बिग बॉस को अपने उसूलों की याद आ गई।
डॉली के जाते ही टीआरपी न के बराबर हो गई है, इसलिए डॉली को फिर से घर में एंट्री देने का विचार किया जा रहा है। पिछले हफ्ते जब पांच नॉमिनेशंस में शांत का नाम आया तो उसी समय ये तय हो गया था कि इस बार शांत गोस्वामी शो से बाहर होने वाले हैं। वो इसलिए, क्योंकि शांत कलर्स की कमाई बढ़ाने में नाकाम साबित होकर अच्छे बच्चे की तरह बर्ताव कर रहे थे, जसा कि उनका नेचर भी है।
वीना जातीं तो अस्मित के साथ उनका प्रेम प्रसंग अधूरा रह जाता और श्वेता जातीं तो समीर के साथ अफेयर की सुगबुगाहट भी खत्म हो जाती। लिहाजा शांत ही कच्चे मोहरे थे, इसलिए उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब आपको बता दें कि अगले हफ्तों में सीमा परिहार, द ग्रेट खली और सारा खान का नंबर आने वाला है, क्योंकि ये भी घर में आराम से रह रही हैं कोई बवाल नहीं कर रहीं। इन सारी घटनाओं को देखकर तो यही लगता है कि बिग बॉस में जो कुछ भी होता है वो पहले से ही फिक्स होता है। भले ही चैनल कितने भी सिद्धांत और पारदर्शिता की बातें क्यों न करे।
धर्मेद्र केशरी

Friday, July 30, 2010

कहीं नेताओं, साधुओं सा हाल न हो जाए पत्रकारों का

‘ऐश्वर्या राय को चांद दिखा या नहीं ये ब्रेकिंग न्यूज है, पर हजारों कश्मीरी महिलाओं के पति आज तक घर लौट कर नहीं आए, इस पर कोई खबर नहीं बनतीज्। ये डायलॉग राहुल ढोलकिया की ताजातरीन फिल्म ‘लम्हाज् का है। महज ये संवाद कई गंभीर बातों को सामने लाने के लिए काफी है। मसला कश्मीर का तो है ही बड़ा मसला है मीडिया का, जिसे देश का चौथा स्तंभ कहा जाता है। सिर्फ लम्हा ही नहीं, तमाम फिल्में मीडिया के सच को ‘उजागरज् करने का दावा करने लगी हैं। चाहे वो रामगोपाल वर्मा हों या मधुर भंडारकर या फिर कोई और क्यों अब मीडिया को ही निशाने पर लिया जा रहा है? ये बहुत बड़ा सवाल है।
संविधान के मुताबिक हर किसी को अभिव्यक्ति की आजादी है। कोई भी अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र है। फिल्में भी अभिव्यक्ति को जाहिर करने का माध्यम हैं और फिल्मकार अपने तरीके से लोगों तक अपनी बात पहुंचाते हैं, पर क्या कभी ये गौर किया गया है कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये खुन्नस निकालने का तरीका हो सकता है, पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि अनुषा रिजवी जसी पत्रकार भी मीडिया पर व्यंग्य करती हुई फिल्म (पीपली लाइव) बना रही हैं। ऐसा क्यों है कि मीडिया को आईना दिखाने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूंजीवादी बेड़ियों में मीडिया कुछ इस कदर जकड़ा जा चुका है कि वो अपने मूल्यों से भी पीछे हटता जा रहा है!
मीडिया पर हर किसी का भरोसा है। इसे आम जन की आकाक्षांओं का प्रहरी कहा जाता है। यही वजह है कि आज मीडिया पर ही सबसे ज्यादा यकीन किया जाता है। लोगों को ये ढांढस बंधता है कि सरकार और नौकरशाह को सही राह पर लाने के लिए मीडिया जनता की आवाज बुलंद करता है और करता रहेगा। जब कोई आप पर विश्वास करता है तो उसके यकीन को कायम रखने के लिए सारे जतन किए जाते हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही है। मीडिया को भी अपना भरोसा कायम रखने की जरूरत है, पर दुर्भाग्य से कहीं चूक जरूर हो रही है। आलम ये है कि अब लोग मीडिया को भी गरियाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। नेता-अभिनेता के आरोपों से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर आम जन अगर मीडिया के बारे में ऐसी राय रखने लगे तो ये पत्रकारिता के मुंह पर बहुत बड़ा तमाचा होगा।
 फिलहाल फिल्मों का उदाहरण दिया जा रहा है। कहते हैं साहित्य या सिनेमा समाज का आईना होता है। पहले की इक्का-दुक्का फिल्मों में ही कहानी की मांग पर किसी भ्रष्ट पत्रकार का किरदार गढ़ दिया जाता था, पर अब..अब तो मीडिया को केंद्र में रखकर कहानी लिखी जा रही है और उन कहानियों में मीडिया का ‘असलीज् चेहरा पेश किया जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों है? केवल ये कहकर की फिल्में हैं, काल्पनिकता पर बनती हैं, जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है।
पूरी दुनिया में, खासकर भारत में मीडिया का प्रभाव इसलिए ज्यादा है, क्योंकि यहां की दीन-दुखी जनता को मीडिया से ही खासी उम्मीदे हैं। ऐसे में जब मीडिया को कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है तो आम आदमी किस पर यकीन करे?
पत्रकारों के बिकने और पेड न्यूज पर न जाने कितनी गोष्ठियां और मीटिंग आयोजित हो जाती हैं, पर क्या कोई पूरी ईमानदारी से पेड न्यूज के कल्चर को स्वीकार कर रहा है। गिरेबां में झांककर देखें तो पेड न्यूज की मुखालिफत करने वाले सिर्फ मीडिया की मर्यादा को बचाने के लिए ऐसी बातें कर रहे हैं, पर उनकी आत्मा जानती है कि पेड न्यूज का चलन उनके पास से ही होकर गुजरता है और वो कुछ नहीं कर पाते हैं।
दरअसल, बाजार मीडिया पर बुरी तरह हावी होता जा रहा है, इसलिए कई बार ‘बड़ी खबरेंज् टीवी पर प्रोमो दिखाने के बाद भी उतार ली गई हैं। वजह रसूख के दबाव की हो या माया ने उन खबरों को मुंह बंद कर दिया हो, पर बदनाम तो पत्रकारिता ही हुई है। आखिर मीडिया मैनेज जसे शब्द कहां से निकले हैं। क्या किसी की इतनी औकात है, जो लंच-डिनर कराके और चार पैग दारू पिलाकर या गिफ्ट देकर मीडिया को मैनेज कर सके..पर ये बातें अब आम होने लगी हैं और इसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। कुछ घुनों की वजह से गेहूं के अस्तित्व को भी कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है और उन घुनों को गेहूं से निकालना बेहद जरूरी है।
बाजार के बढ़ते प्रभाव से हम आम जनता से ग्राहक की तरह पेश आने लगे हैं। जसे दुकान में खबरें लगाकर बैठे हों और ग्राहकों को परोस रहे हों उनकी मनपसंद खबरें। बदलते वक्त में कुछ बदलाव जरूरी है, पर इसका मतलब ये नहीं कि हम अपना रास्ता ही बदल लें।
पत्रकारिता का सीधा संबंध समाज से है और समाज को साथ लेकर ही सार्थकता सिद्ध की जा सकती है। एक सम्मानित और जिम्मेदार कार्य को ‘प्रोफेशनज् में तब्दील किया जा चुका है। ‘प्रतिष्ठानज् पत्रकारिता के आड़े आने लगा है। इसके पीछे कई दलीलें दी जा सकती हैं, कि ये वक्त की मांग है, जमाना बदल चुका है, मीडिया का स्वरूप बदल चुका है वगैरह वगैरह। यकीनन वक्त बदल गया है, मीडिया का चेहरा बदल रहा है, पर जितने भी वरिष्ठ और बड़े पत्रकार हैं, उन्हें उनकी खबरों ने, उनकी रिपोर्टों ने बड़ा बनाया है, लोग सम्मान की नजर से देखते हैं, इसलिए इस बात का खास ख्याल रखे जाने की जरूरत है कि समय कितना भी बदल जाए आम आदमी से सरोकार रखने वाला और उनके दुख दर्द का साझीदार ही पत्रकार है।

एक वक्त था, जब साधुओं को तवज्जो दी जाती थी। उन्हें इज्जत और श्रद्धा के भाव से देखा जाता था। कुछ ऐसा ही हाल नेताओं का था, जिन पर लोग भरोसा करते थे, पर इन लोगों ने अपनी ऐसी मिट्टी पलीद कराई कि पूछिए ही मत। आम जनता तक पैठ बनाने वाले इस तबके को अब सम्मान की दृष्टि से तो नहीं ही देखा जाता है। गालियां मिलती हैं सो अलग, वजह साफ है कि आम आदमी को इन्होंने इस्तेमाल करना चाहा और अपना स्वार्थ सिद्ध किया। बदकिस्मती से मीडिया भी इसी राह पर है। मीडिया पर आंख मूंदकर भरोसा करने वाले लोग (जनता) अब संदेह भी करने लगे हैं। अभी भी वक्त है, मीडिया के साख, सम्मान और मर्यादा को बचाया जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाए और लोग मीडिया पर भी भरोसा करना छोड़ दें।
धर्मेद्र केशरी

Thursday, July 29, 2010

कहां से सीखी ये अदाएं

डियर गर्लफ्रेंड्स,

मेरे पास तो एक भी गर्लफ्रेड नहीं है ये संबोधन उनके लिए है, जिनके ब्वॉयफ्रेंड्स हैं और वो हैं उनकी गर्लफ्रेंड। सभी गर्लफ्रेंड्स से आज एक गुजारिश करना चाहता हूं। प्लीज कुछ बातों पर गौर फरमाया कीजिए। आप लोग किसी के आने-जाने, उठने-बैठने, करने-धरने से पहले टोंकाटाकी करती हैं तो वो आपकी केयरिंग होती है और बेचारे ब्वॉयफ्रेंड्स ने अगर ये पूछा-ताछी कर ली तो वो पजेशिव हो जाता है। एक ही मामले में ये दोहरा मापदंड क्यों अपनाती हैं आप लोग?
फोन बिजी गया नहीं कि मेरी कसम बताना कौन थी फोन पर, भले ही बंदा अपने पापा से बात कर रहा हो। कसमें खा-खाकर सफाई देनी पड़ती है। नखरे, गुस्सा ङोलो वो अलग। अगर कहीं मिस गर्लफ्रेंड्स का फोन बिजी गया और मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स ने गलती से पूछ भर लिया कि किससे बात हो रही थी तो जमीन-आसमान एक। सीधा सवाब- तुम्हें मुझपर जरा भी भरोसा नहीं, शक करते हो मुझपर। फिर तो बंदे ने जो भुगतना है, उसी की आत्मा जानेगी। कहीं गलती से मिस्टर ब्यॉयफ्रेंड्स ने फोन छेड़ दिया तो कहानी खत्म और मोहतरमाओं का तो बंदे के फोन पर जन्म सिद्ध अधिकार है। डियर गर्लफ्रेंड्स, कुछ बंदे के भावों को भी तो समझा कीजिए।
प्यार की पटरी पर आ रही गाड़ी कब पटरी से उतर जाती है पता ही नहीं चलता। कभी-कभी तो चलती ट्रेन से मुसाफिर बिना बताए भी उतर जाता है। ओ के, दार्शनिक बातें नहीं..सीधे आपसे की जाने वाली गुजारिशों पर आते हैं। हां तो आप लोगों से जब तक मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स शादी की बात पर नहीं आते हैं रिश्ते को आप सीरियसली नहीं लेती हैं।
बंदा सीरियस हुआ नहीं कि इमोशनल अतयाचार शुरू। वैसे इमोशनल अत्याचार का गुर आपको किस गुरु भाई या गुरु मां ने सिखाया है? प्लीज बताएं, बेचारे ब्वॉयफ्रेंड्स को भी उसी गुरुकुल में भेज दिया जाए ताकि वो आपके प्यार भरे अत्याचारों का उसी अंदाज में जवाब दे सकें। जब मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स मिस गर्लफ्रेंड्स से शादी जसे गंभीर मसले पर बात करते हैं तो शुरू होती है असली महाभारत।
गर्लफ्रेंड्स जी, प्लीज ये बताएं कि प्यार-व्यार के झमेले में डालने से पहले आप एक कमरे का घर, एक थाली और एक कटोरी में भी गुजारा करने की बात करती हैं। बंदे का जेब और जेब खर्च भी बखूबी जानती हैं और उसी में खुद को सेट कर लेने का हवाला देती हैं, पर बाद में आप स्टेसस का हवाला क्यों देती हैं। फिर आपको अपने मौसी के दामाद जसे पैसेवाले पति की दरकार होने लगती है और प्यार भिखमंगा और नंगा नजर आने लगता है। एक बात और..मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स आपके नखरे उठाने के लिए उधारी मांगते फिरते हैं, प्लीज इतनी महंगाई और रिसेशन के टाइम में थोड़ा कंसेशन दे दिया कीजिए। बाकी क्या कहें, करना वही है जो आपका मन करेगा। नमस्ते।
धर्मेद्र केशरी

Friday, July 23, 2010

..खो गई हैं

फिर वही शाम वही बत्तियां झिलमिला रही हैं
पर रोशनी कहीं खो गई है
हवा की वही रेशमी छुअन
मगर सिरहन कहीं गुम हो गई है
दूर क्षितिज पर टिकती हैं निगाहें
जहां एक होते जमीं आसमां
इनके मिलन के जसे ही
अपने रिश्ते की बनावट हो गई है
ख्वाहिशें चाहती हैं तोड़ना बंदिशों को
पर अब ख्वाहिशें तोड़ने की आदत हो गई है
चाहता हूं प्यार को प्यार से पाना
पर प्यार में भी अब मिलावट हो गई है
टूटे दिल से अब क्या अरमां करें ऐ दोस्त
अब दर्द में भी राहतें हो गई हैं
यकीन-ए-मुहब्बत न करना टूट के
बेवफाई की वफा पे आहट हो गई है
जार-जार रोता है दिल
पर आंखों की नमी कहीं खो गई है
होता था तेरे होने का गुमां
हुए ऐसे दूर
अब तो रास्ते भी खो गए हैं
न जाने क्या गुनाह किया हमने
कि मिलती रही सजा दर सजा
सोचा था अब सजायाफ्ता नहीं
पर ये कैद बड़ी हो गई है
फिर वही शाम, वही बत्तियां झिलमिला रही हैं
पर रोशनी कहीं खो गई है

Sunday, July 4, 2010

कठपुतलियों का देश!

हमारे देश के प्रधानमंत्री इतने शांत और सौम्य हैं कि वो जहां भी जाते हैं लोग उनके सामने मुख्य मुद्दों को भूलकर उनकी सादगी और सौम्यता की मिसाल देने लगते हैं। कुछ दिन पहले ही वो ओबामा से मिले थे। ओबामा उनके विराट स्वरूप में इस कदर फंसे कि पाकिस्तान और डेविड हेडली की बात करना ही भूल गए। ओबामा ने कहा कि जब सिंह साहब बोलते हैं तो पूरी दुनिया उनकी बात सुनती है। माननीय प्रधानमंत्री भी उनकी बातों में ऐसे डूबे कि उन्होंने एक बार ये नहीं पूछा कि भई, आतंकवाद मुद्दे पर आप क्या कहना चाहते हैं या मुंबई हमले के आरोपी को आप भारत के सुपुर्द क्यों नहीं करते।
न जाने क्यों मुङो अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। मेरी एक टीचर मैडम थीं। मैं उनकी बात बहुत मानता था। मानता क्या था। उनके इशारों पर ही कदम बढ़ाता था। उन्होंने कह दिया आगे बढ़ो, तो बढ़ गया, उन्होंने कहा कि चुपचाप बैठे रहो, तो अच्छे बच्चे की तरह चुपचाप बैठा रहता था। वैसे मैडम थीं बड़ी अच्छी, उन्होंने ही मुङो स्कूल का मॉनिटर बनवाया था। उस एहसान को मैं भूल तो सकता नहीं था, इसलिए जो मैडम की मर्जी होती थी, वो मेरी मर्जी। कई बार मेरे दोस्तों ने ये कहा कि तू तो मैडम की कठपुतली हो गया है, पर अब उन्हें मैं ये कैसे समझाता कि सारा दान-दक्षिणा तो मैडम का ही है।
उन दिनों मैं अपने दोस्तों को तर्क दिया करता था कि जब चौदह वर्ष तक राम जी का खड़ाऊ राज कर सकता है तो मैं तो जीता-जागता इंसान हूं। मैं भी मैडम की खड़ाऊ लेकर ही राज कर सकता हूं। इसके बड़े फायदे होते थे। फालतू दिमाग नहीं खर्च करना पड़ता था। जो सोचना था मैडम को सोचना था। दिमाग पर जरा भी भार पड़ता नहीं था और मैं स्वस्थ्य, चैतन्य। पर अब ये महसूस होता है कि मॉनिटर होने के नाते मुङो कुछ काम खुद भी करने चाहिए थे, मैडम की बातों को मानने के अलावा। इस देश पर जब खड़ाऊ ने राज किया तब किया, अब उन खड़ाऊओं में कोई जान नहीं।
वैसे कठपुतली मैं पहले भी था। अब भी हूं। मैं क्या, पूरा देश है। तिगनी नाच नाच रहे हैं सब, पर कोई कुछ कह नहीं पाता। टैक्सों का इतना भार लाद दिया गया है निरीह जनता पर कि वो दिन ब दिन उसके नीचे ही दबता जा रहा है। ऊपर से नीचे तक सभी कठपुतली हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि ये कठपुतलियों का देश है। खर, ज्यादा कुछ नहीं कहना। ओबामा आने वाले हैं इंडिया, समोसा खाकर और लस्सी पीकर उसका गुणगान करके चले जाएंगे और हम उन्हें कठपुतलियों की तरह आत्ममुग्ध होकर बस देखते रहेंगे।

धर्मेद्र केशरी

Friday, June 25, 2010

न रहेंगे गरीब,न रहेगी गरीबी

बड़े-बूढ़ों ने कहावतें और मिसालें ऐसे ही नहीं दी हैं। उनके पीछे न जाने कितने ही तर्क छिपे होते हैं। अब जसे कई बार आपने सुना होगा कि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी कितने काम का है। कितनी बार आपने इस पर अमल किया होगा। सरकारें भी ऐसा करती हैं तो क्या बुराई है। खद्दरधारी बेचारे कभी-कभी देश के दौरे पर होते हैं, चकाचक सूट पहनकर, फिर भी कोई न कोई पीछे से बोल ही देता है गरीबी हटाओ। कुछ कह तो पाते नहीं बेचारे हां, एक कसम खाकर वहां से चलते हैं कि वो अब गरीबी मिटाकर ही रहेंगे। वैसे भी हमारे यहां भूखे नंगे लोग हैं ही किस काम के। भूख से बिलबिलाने की वजह से कोई काम नहीं करते और नंगे रहकर इज्जत खराब कर देते हैं।
ऊपर से पार्टियों का गरीबी मुद्दा बवाल। लिहाजा गरीबी को हटाने के लिए वो कमर कसकर तैयार हैं। गरीबों पर तो हाथ कुछ ज्यादा मेहरबान है। अपने ‘पंजेज् में रखता है बिलकुल। अब गरीबी हटाने के लिए ये लोग न रहेगा बांस.. वाली कहावत चरितार्थ करते हैं तो इसमें बुराई क्या है। न रहेंगे गरीब और न रहेगी गरीबी। इसके लिए सरकार ने पूरी तरह से कमर कस लिया है। अनाजों के दाम, डीजल-पेट्रोल के भाव, चीनी के दाम बढ़ाकर सरकार अपने उसी मकसद को पूरा कर रही है। देखिए दाम बढ़ेंगे, तो लोग खरीद नहीं पाएंगे और जब पेट की जरूरतें भी।
रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरतों में फंसे आम आदमी को अब कपड़ा मकान तो मयस्सर नहीं होना, रोटी के भी लाले पड़ गए हैं। ये स्थिति ही ऐसी बना देंगे कि आने वाले दिनों में लोगों को रोटी भी नहीं मिलने वाली। गरीब खत्म तो गरीबी खुद ब खुद खत्म। गरीबों को हटाने के लिए सरकार को ये कदम तो उठाने ही पड़ेंगे। पहले महानगरों से गरीबों को गायब करो। महंगाई इतनी करवा दो कि दस-पंद्रह हजार रुपए वेतन पाने वाले गरीब यहां से रवाना हो जाएं। इससे कम वाले तो खुद ब खुद भाग खड़े होंगे। और क्या।
अगर दिल्ली की ही बात करें तो छोटे-मोटे वेतन वालों की यहां औकात ही क्या है। शीला सरकार दिल्ली को न्यूयॉर्क बनाएगी, फिर न्यूयॉर्क जसी दिल्ली में गरीबों के लिए तो कोई जगह रहने वाली है नहीं। गरीब ऑटोमैटिक गायब। गांवों में तो हालत और भी खराब है। भुखमरी से तंग होकर बेचारे गरीब वहां भी जाएंगे तो भुखमरी की तमाम बहनें उनका स्वागत करने के लिए पहले से वहां खड़ी मिलेंगी। जिसके शिकार गांव के लोग हो ही रहे हैं। सरकार बड़ा सराहनीय कार्य कर रही है। महंगाई बढ़ने से देश का भला ही होने वाला है। गरीबों के खात्मे के साथ ही गरीबी भी मिट जाएगी। फिर न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

धर्मेद्र केशरी

Friday, May 28, 2010

डर लगता है..

कभी तुम्हें खोने से डरता था
आज पाने से डर लगता है..
तन्हा होने से डरता था
अब महफिल से डर लगता है..
कभी सब कुछ कह जाता था तुम्हें
आज लब खोलने से डर लगता है..
पास आने की जिद थी कभी
अब तो पास आने से ही डर लगता है..
गुजरती सांसों पर नाम था तेरा
अब तो सांस लेने से ही डर लगता है..
तेरे सजदे में झुकाते थे सिर कभी
मांगा करते थे दुआओं में
खुदा बन गए थे तुम मेरे
अब रब से नजरें मिलाने में डर लगता है..
प्यार इस कदर किया तुझको
कि भूल गए सारा जमाना
ताश के पत्तों से बिखरा वहम मेरा
अब वफा के नाम से भी डर लगता है..
फख्र था जिंदा मुहब्बत पर अपनी
उस मुहब्बत की लाश उठाने से डर लगता है..
किसी अपने ने किया दिल पर ऐसा वार
अनजानों को कहना ही क्या
पहचाने चेहरों से भी डर लगता है..
चाह कर भी नहीं होता किसी पर भरोसा
अब तो यकीं के नाम से ही डर लगता है..
चाहतों की चाह में खाया है धोखा
अब चाहतों को चाहने में डर लगता है..
सोचता हूं पूछूं कई सवाल
प्यार था या था मजाक तेरा
दिल में उतर के किया क्यों दिल से दूर
जवाब दोगे कि नहीं, डर लगता है..
तेरी यादों से लिपटकर जिंदा हैं
छीन न लो यादों को भी, डर लगता है..
बड़ी मुश्किल से साहिल पर आई है कश्ती
अब तो मझधार में जाने से डर लगता है..
कभी तुम्हें खोने से डरता था
आज पाने से डर लगता है..

धर्मेद्र केशरी

Thursday, May 27, 2010

ठंडे बस्ते का बोझ

हूं..तो क्या शुरू किया जाए। शुरू करने से पहले ही डर लगता है कहीं ये भी ठंडे बस्ते में न डाल दिया जाए। मुआ ये ठंडा बस्ता है ही ऐसा। इस देश में दो बस्तों का बोझ बहुत ज्यादा है। एक तो बेचारे स्कूली बच्चों का बस्ता दूसरा सरकार का बस्ता। स्कूली बच्चों का बस्ता दिन ब दिन और भी बढ़ता जा रहा है। ये उम्मीदों का बस्ता है, जो भारी तो है पर भविष्य में उस बस्ते से कुछ न कुछ करामात जरूर होती है, पर सरकार का बस्ता नाउम्मीदी से भरा पड़ा है। हां, गर्मी के दिनों में इसका नाम थोड़ा सुकून देता है।
नाम ही है इसका ठंडा बस्ता। सरकार को ये बस्ता बड़ा प्रिय है। स्कूली बच्चे तो अपना बस्ता खोलकर रोजाना पढ़ाई करते हैं, पर सरकार के ठंडे बस्ते में गई चीजें इतिहास बनकर ही बाहर निकलती हैं। ठंडे बस्ते में जो कुछ भी जाता है बस फ्रीज हो जाता है, तभी तो ये है ठंडा बस्ता। इस ठंडे बस्ते ने न जाने क्या-क्या पचा लिया है। बस्तों में घुसकर बड़े-बड़े मुद्दों का कीमा निकल जाता है। उठते गर्म शोलों को ठंडे बस्ते में जज्ब करने का हुनर सभी सफेदपोश जानते हैं। कहां से शुरू करें। बाबरी मस्जिद विघ्वंस की बात करें या बोफोर्स सौदा। ठंडे बस्ते ने इतने कमीशन की रिपोर्टों और सरकारी योजनाओं को पचाया है कि चंद वाक्यों के इस लेख में उनका नाम भी नहीं लिखा जा सकता। अकेले ठंडे बस्ते की रिपोर्टों को ही प्रकाशित करने के लिए सालों किसी समाचार पत्र का प्रकाशन करना पड़ेगा। सरकार के पास ठंडा बस्ता के रूप में गजब की कचरा पेटी है। तेलंगाना मुद्दा..मुंबई हमले पर कार्रवाई..सिख दंगा..बंबई दंगो पर श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट..नयों में शशि थरूर और मोदी विवाद..ठंडे बस्ते में। आइपीएल घोटाला विवाद..ठंडे बस्ते में। कहां तक गिनाएं।

अब जातिगत जनगणना के मुद्दे को भी सरकार ठंडे बस्ते में डालने का मन बना रही है। वैसे आइडिया मस्त है, जिन पर विवाद हो और फंस रहे हों उनके अपने..जिस मुद्दे पर सरकार फंस रही हो, फालूदा निकल रहा हो, उसे भी डाल दो ठंडे बस्ते में। इस बस्ते की एक खास बात और है। सरकारें भले बदल जाएं, पर ठंडे बस्ते का आकार-विचार वही रहता है। अब अगर कोई इस ठंडे बस्ते पर ही सवाल उठाए तो क्या करेगी सरकार। कोई नया ठंडा बस्ता ढूंढ़ेगी। बेचारी जनता आज तक नहीं समझ पाई कि ये ठंडा बस्ता आखिर रखा कहां जाता है। ठंडे बस्ते के मंत्रालय का मंत्री कौन है। शायद उससे फरियाद करने पर ही कोई हल निकल सके। जो भी हो इस इंडे बस्ते की माया ने सब को भरमा रखा है। मैं तो पहले संपादक जी को धन्यवाद दे दूं कि उन्होंने मेरे लेख को ठंडे बस्ते के हवाले नहीं किया।
धर्मेद्र केशरी

Friday, April 23, 2010

कोई कुछ भी कहे, फर्क नहीं पड़ता- पायल रोहतगी

पायल रोहतगी। हैदराबाद में जन्मी और मिडिल क्लास से संबंध रखने वाली इस बाला के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि इतने कम समय में अपने दम पर वो इस मुकाम पर पहुंच जाएंगी। बॉलीवुड में उनका कोई गॉड फादर नहीं, फिर भी वो इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान के साथ कायम हैं। उन्हें सेक्सी, ग्लैमरस या हॉट हीरोइन कहलाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। पायल को फिल्म इंडस्ट्री की हकीकत पता है और वो प्रैक्टिकली इस सच को स्वीकार भी करती हैं। बिना किसी सपोर्ट के वो अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं। पायल का फैमिली बैकग्राउंड एकेडमिक है, लेकिन मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग लेने के बाद उनका रुझान पूरी तरह से ग्लैमर वर्ल्ड की ओर हो गया। उन्होंने खुद कंप्यूटर इंजीनियरिंग का कोर्स किया है। पायल हिम्मत हारने वालों में नहीं हैं। अपनी जिंदगी से जुड़ी कई बातों को पायल ने बेबाकी से बयान किया। पेश है धर्मेद्र केशरी की पायल रोहतगी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

आपकी इमेज सेक्सी और ग्लैमरस अभिनेत्री की बनी हुई है, इस इमेज से कोई परेशानी नहीं होती?
देखिए, इस इंडस्ट्री में मेरा कोई गॉड फादर नहीं है। न ही मैं सलमान खान की गर्लफ्रेंड हूं और न ही अनिल कपूर की बेटी। कहने का मतलब ये कि बॉलीवुड में ब्रेक पाने के लिए मैंने एक्सपोज का सहारा लिया, इसे मैं कबूल भी करती हूं और सच कहूं तो मुङो इस बात का कतई मलाल नहीं है। मुङो इमेज से कोई फर्क नहीं पड़ता। आपको काम करना है और हर तरह के रोल करने पड़ते हैं। मैंने भी किया है। मेरा काम अभिनय करना है और मैं सिर्फ इस पर ही अपना ध्यान केंद्रित करती हूं, बेवजह की बातों पर ध्यान नहीं देती।

अपनी प्रोफेशनल लाइफ से कितनी खुश हैं?
सबसे पहले मैं बता दूं कि मैं टूटने वाली लड़की नहीं हूं। संघर्ष करना जानती हूं और विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आपको संभालना जानती हूं। मैंने भी अच्छी-बुरी फिल्में की हैं और हर कोई अनुभव से ही सीखता है। हर किसी की अपनी किस्मत होती है। दीपिका पादुकोण की अपनी किस्मत है, जो आते ही शाहरुख खान के साथ फिल्म पा गईं। मुङो किसी बात का दुख नहीं है, बल्कि मैं अभी सीख ही रही हूं।

बिग बॉस से आपको कितना फायदा पहुंचा?
बिग बॉस देश का बड़ा रियलिटी शो है और कोई दो राय नहीं कि इस शो से मुङो भी फायदा पहुंचा है। ये बहुत बड़ा प्लेटफॉर्म है। लोग सीधे आपसे जुड़ते हैं। आपकी असली शख्सियत का पता चलता है। शो करने के बाद कम से कम मुझ पर आइटम डांसर का लगा ठप्पा मिट गया। यकीनन शो ने मुङो फायदा पहुंचाया है।

क्या अभी भी कोई रियलिटी शो करने जा रही हैं?
बिग बॉस से बड़ा शो तो फिलहाल कोई नहीं है, इससे बड़ा कोई शो आएगा तो जरूर करूंगी। रही बात किसी अन्य शो में पार्टिसिपेट करने की, तो ऑफर तो मिलता रहता है, पर शो भी तो अच्छा होना चाहिए। हाल ही में मुङो देसी गर्ल के लिए ऑफर आया था, पर मुङो ठीक नहीं लगा। हां, अगर कांसेप्ट अच्छा रहे तो मैं दोबारा रियलिटी शो जरूर करना चाहूंगी।

मान लीजिए, सच का सामना आपको होस्ट करना पड़े तो?
होस्ट करने की बात होगी तो मुङो शो से इनकार नहीं है, लेकिन अगर शो में खुद से जुड़े राज दुनिया के सामने जाहिर करने वाली बात हो तो मैं कभी नहीं करूंगी। मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं, जो अपनी निजी जिंदगी, पारिवारिक बातों को भी दुनिया के सामने जाहिर कर दे।

आजकल बेबाक बयान शॉर्टकट का जरिया बन चुका है, कश्मीरा शाह, संभावना सेठ जसी हीरोइनें अपनी बेबाकी से अटेंशन क्रिएट करती हैं। इस पर आपका क्या कहना है?
मेरा इन लोगों से कोई मतलब नहीं है और न ही मैं इनके बारे में कुछ जानती हूं, इसलिए कोई टिप्पएाी नहीं करना चाहूंगी। मैं इन लोगों से अपनी तुलना भी नहीं करना चाहती। जिसको जो करना है करे, मैं सिर्फ अपने बारे में जानती हूं।

कोई खास रोल, जो आप करना चाहती हों?
ऐसा कोई खास ड्रीम रोल नहीं है। मैं यहां सिर्फ अभिनय करना चाहती हूं। तरह-तरह के बेहतरीन किरदारों को निभाने की ख्वाहिश है। मैं सिर्फ फिल्में ही नहीं, थिएटर पर भी अपना ध्यान केंद्रित कर रही हूं। हाल ही में थिएटर के कई वर्कशॉप भी मैंने अटेंड किए हैं। मेरे कहने का मतलब ये है कि यहां मैं काम करने आई हूं और यही चाहतर हूं कि पायल की पहचान भी सिर्फ उसके अभिनय और काम से हो।

आपका एकेडमिक बैकग्राउंड है, खुद आपने कंप्यूटर इंजीनियरिंग की है, ऐसे में हीरोइन बनने का ख्याल कैसे आया?
जी हां, मेरी मम्मी टीचर हैं, पापा भी जॉब में हैं। घर में इंजीनियरों की भरमार है, फिर भी मैंने ग्लैमर वर्ल्ड चुना। ये मेरी पसंद थी। मम्मी-पापा ने मुङो वही करने दिया, जो मुङो अच्छा लगता है। मैं अपने कॉलेज में सबसे लोकप्रिय लड़की थी। ईश्वर की कृपा से सुंदरता और लंबाई मुङो मिली ही है। कॉलेज में सबकी पसंद मैं हुआ करती थी। शोज वगैरह में भी भाग लेती थी। उसी दौरान मैंने फेमिना मिस इंडिया में पार्टिसिपेट किया और मुंबई आना हो गया।

फिलहाल क्या कर रही हैं?
जल्द ही एक फिल्म की शूटिंग शुरू होने जा रही है। फिल्म में मैं एक जर्नलिस्ट का किरदार निभा रही हूं। अभी फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता सकती, पर जल्द ही मैं इससे जुड़ी जानकारी आपको दूंगी। वैसे फिल्म की शूटिंग जुलाई-अगस्त तक शुरू हो जाएगी। इसके अलावा कुछ शो भी कर रही हूं।

पायल शादी कब कर रही है?
फिलहाल तो नहीं, क्योंकि मेरा मिस्टर राइट अभी मिला ही नहीं है, जिस दिन मिलेगा शादी भी कर लूंगी।

कैसे हमसफर की तलाश है?
स्मार्ट और हैंडसम तो हो ही, उसे पारिवारिक जिम्मेदारियों की भी समझ हो। मुङो समझने वाला हो, जो कभी किसी चीज के लिए रोक टोक न लगाए। मुङो प्रेरित करे, पर सच कहूं तो ऐसे लड़के मिलते कहां हैं। या तो संकीर्ण मानसिकता के लड़के मिलते हैं या गे (समलैंगिक)।

Monday, April 19, 2010

अलविदा मामा

हैलो, प्रणाम पापाजी
खुश रहो, कैसे हो?

ठीक हूं, आप कैसे है?

हम भी अच्छे हैं, मिर्जापुर जा रहा हूं।

क्यों, दीदी के लिए लड़का-वड़का देखने..

नहीं, तुम्हारे मामा अब इस दुनिया में नहीं रहे, उन्हीं के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए जा रहे हैं।

कब..!

कल रात ग्यारह बजे, आज उनकी मिट्टी मिर्जापुर आने वाली है, तुम्हारी अम्मा भी हैं साथ में, बात करोगे?

दे दीजिए..हैलो अम्मा

हां भैया

अम्मा, मामा नहीं रहे..आप ज्यादा रोइएगा मत

(रोते हुए) हां..

अपना ध्यान रखना अम्मा..पापा देखिएगा अम्मा रोकर अपनी तबीयत न खराब करें।

ठीक है..रखता हूं, बाद में बात करूंगा।

मामा अब नहीं रहे। ये सोचकर आंखों की कोर से आंसू खुद ब खुद ढुलक पड़े। दूर हूं, उनके अंतिम संस्कार में भी जाने से बच गया। उन मामा के अंतिम दर्शन भी न कर सका, जिन्होंने कभी अपनी गोद में खिलाया था, टॉफियां देते थे, खूब लाड़ करते थे। अब वही मामा नहीं रहे। परदेस में रहने का यही फायदा है, सिर्फ कुछ बूंद आंसुओं से ही किसी अपने के लिए शोक व्यक्त कर लेते हैं, क्योंकि हमें तो उन अपनों का अंतिम दर्शन भी नसीब नहीं होना। आंसू बचा लिए मैंने।

Saturday, March 27, 2010

एक प्यार का खत

सच कहते हैं कि लोग प्यार अपने नाम की तरह अधूरा है। अगर अधूरा है तो लाग क्यों करते हैं प्यार। क्यों फंस जाते हैं ऐसे चक्रव्यूह में, जिससे मौत के बाद ही निकला जा सकता है। जब कोई आपकी जिंदगी में सब कुछ बनकर आता है, जब कोई आपके सपनों को पंख लगा देता है, जब कोई आपकी हर सांस में समा जाता है, तो वही शख्स आपसे दूर क्यों चला जाता है? कुछ बातों को जवाब इंसान को खुद ढ़ूढ़ना पड़ता है, पर सवाल ही करने वाला सवाल न करे, तो क्या? दुनिया हसीन बनाने के बाद बीच मझधर में छोड़ने को तो प्यार नहीं कह सकते। महज कुछ गलतियों पर दिल का रिश्ता तोड़ देना कहां तक ठीक है?

ये वो सवाल हैं, जिनका जवाब जिसके पास है, वो देना नहीं चाहता और इन सवालों को मैं उनसे करना नहीं चाहता। सिर्फ इसलिए, क्योंकि उनके हर फैसले पर उनका साथ देने का वादा किया है, फिर इस वादे को कैसे तोड़ सकता हूं। हमेशा से यही चाहत थी और आज भी यही है कि उन्हें दुनिया की हर खुशी नसीब हो, वो सब कुछ मिले, जो उन्होंने अधूरे मन से भी चाहा हो। कहते हैं कि प्यार जताने की चीज नहीं, वो तो महसूस करने की चीज है।

फिर उन्हें क्यों नहीं महसूस होता ये दर्द, ये प्यार, जो सिर्फ उनके लिए ही है। उन्हें लगता होगा कि सब खेल था, वक्त सब ठीक कर देगा। दरअसल, वक्त नहीं ठीक करता, ये आंसू सूख जाते हैं, जब बहते नहीं, तो लोगों को गलतफहमी हो जाती है कि वक्त ठीक कर देता है। इस गलतफहमी ने न जाने कितनों को बर्बाद कर डाला।

खर, किसी का प्यार पूरा हो जाता है, किसी का अधूरा। हम अधूरे वालों की फेहरिस्त में शामिल हैं। हां, दिल से यही दुआ है कि शायद कभी उन्हें प्यार हो तो वो पूरा हो, वो इस दर्द से दूर ही रहें। यही ईश्वर से हमेशा प्रार्थना रहेगी। वो आगे बढ़ें और खुशियां हर कदम पर उनके साथ ही रहें।

Saturday, February 20, 2010

हुस्न नहीं, हुनर बोलता है

पत्रकारिता में इन दिनों महिलाओं को लेकर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है। ये सच है कि बिना जाने लोग महिला पत्रकारों के आचरण पर कीचड़ उछालने से भी बाज नहीं आते हैं। आज हर फील्ड में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। अब वो जमाना लद गया, जब उन्हें घूंघट में घर बैठाने की परंपरा थी, पर अब बहुत कुछ बदल चुका है। सही भी है। विकसित देश बनने के लिए आधी आबादी का आगे आना भी बेहद जरूरी है। जब दोनों पहिए सही-सलामत होंगे तो गाड़ी न सिर्फ पटरी पर आती है, बल्कि तेज रफ्तार से दौड़ती भी है। बात मीडिया की, तमाम बातें हुईं कि महिला पत्रकार अपने हुस्न के दम पर नौकरी पाती हैं और न जाने क्या-क्या करने के बाद ही वो ऊपर पहुंची हैं।

आखिर ये सोच लोगों ने बना क्यों रखी है। हुनर भी तो कोई चीज है और अगर वो लड़कों की तरह काम करने का दमखम रखती हैं तो इस तरह की बातों से उनका मनोबल गिराने की क्या जरूरत है। दरअसल, अभी भी समाज पुरुष प्रधान है, वो महिलाओं के दखल को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है। हम किसी के चरित्र पर बेबाक टिप्पणी बिना सच्चाई के कर देते हैं, पर कसूरवार कौन हैं। वो जिनका भी जुनून पत्रकारिता है? हमेशा ये बात कही जाती है कि प्रतिभा अपना रास्ता खुद ब खुद बना लेती है। देर भले ही हो जाए, पर कामयाबी मिलती ही है, फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की। पत्रकारिता में ऐसे तमाम नाम हैं, जो अपने काम के दम पर शीर्ष पर पहुंची हैं। पुरुषों की तरह उन्होंने भी संघर्ष किया है। जरा सोचिए, पुरुष प्रधानता के बावजूद वो मुकाम बनाने में सफल रहीं। कुछ अपवाद भी हैं, जो हर क्षेत्र की तरह इस फील्ड में भी हैं।

दरअसल, परेशानी हमारी सोच में है। हमने सोच ही ऐसी बना रखी है। एक वाकया सुनाता हूं। मेरे एक दोस्त के सीनियर ने किसी से उसकी नौकरी की बात की। चैनल के वो बंधु दोस्त के सीनियर की बात सुनते रहे, फिर कहने लगे, कोई लड़की हो तो बताओ, फिलहाल यहां लड़कियों को ही लिया जा रहा है। ये एकतरफा सच हो सकता है, पर उन बंधु के मनोभावों को तो देखिए। आप दोष किसे देंगे? आखिर वो कहना क्या चाहते थे, सोच किसकी गलत है? और ये बहुत बड़ा सच है कि ऐसे लोगों की कमी नहीं है। कई तो ऐसे हैं, जो अपनी पद और प्रतिष्ठा का गलत उपयोग करने से भी नहीं चूकते हैं। अब मीडिया में चाटुकारिता का जमाना है। हो सकता है कि मैं गलत होऊं, पर परिस्थितियां कुछ ऐसी ही हैं कि यहां लॉबिंग चलती है। सीनियर की जी-हूजूरी से ही तरक्की मिलती है।

फिर अपने उसूलों पर चलने वाला पत्रकार भी सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या उसे भी चापलूस होना चाहिए? महिला पत्रकार भी इस जाल से नहीं बच पाती हैं। लॉबिंग से वो भी दूर नहीं रह पातीं, पर इसका मतलब तो ये नहीं कि उनके चरित्र पर कीचड़ उछाला जाए। हम अक्सर कह देते हैं कि हुस्न के दम पर फलाने मौज की नौकरी काट रही हैं, पर दिल पर हाथ रखकर देखें, क्या पुरुष पत्रकार भी चाटुकारिता नहीं करते? मेरी बातों से कुछ लोगों को गुस्सा आ सकता है, पर यही सच है। यहां हुस्न के साथ हुनर की भी जरूरत पड़ती है और जिसके पास सुंदरता है उसे चरित्रहीन कहने का हक तो किसी को नहीं।

हां, एक बात ये भी है। अगर किसी महिला पत्रकार के साथ कोई घटना होती है तो उसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार वो भी हैं। अगर वो विरोध करें तो किसी की क्या मजाल जो उन्हें हाथ लगाकर बात करे या उनके साथ बदसलूकी की हिम्मत करे। मेरी एक मित्र हैं, वो एक समाचार पत्र में थीं। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनका पूर्व बॉस उन्हें आई टॉनिक समझता था और कई बार उनका हाथ भी पकड़ चुका था। इन सबके बाद भी वो चुप रहीं। नौकरी खोने का डर रहा। मैं समझता हूं कि अगर उन्होंने आवाज उठाई होती तो उनकी जगह वो सीनियर ही बाहर होता। इन चर्चाओं को दरकिनार करते हुए अगर किसी की प्रतिभा का आंकलन किया जाए तो ही ठीक है। और रही बात मर्यादा की, तो इस पर दोनों को खरा उतरना चाहिए, फिर वो चाहे कोई पुरुष हो या कोई महिला।

धर्मेद्र केशरी

पत्रकारिता, फिल्में और समाज सेवा

पत्रकारिता फिल्मकारों, लेखकों के लिए हमेशा दिलचस्प विषय रहा है। कई फिल्मकारों ने अपनी बात पत्रकारों के माध्यम से ही कही हैं। पुराने-नए सुपरहीरो पर भी नजर डालें तो फिल्मों में ही उनका दूसरा रूप पत्रकार का होता है।

पत्रकारिता। वो माध्यम, जिससे जुड़ती है दुनिया। पत्रकारिता नई नहीं है। बहुत पुरानी। जब से समाज है, तभी से पत्रकारिता भी। कभी साहित्यकार पत्रकार की भूमिका में हुआ करते थे, पर अब पेशेवर लोग इस क्षेत्र में आने लगे हैं, पर स्वरूप अभी भी वही है। समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत लोग ही इस जुनूनी क्षेत्र में रमते हैं। कभी आपने ये सोचा है कि सुपरहीरो किरदारों का असल पेशा क्या था! चाहे वो सुपरमैन हो, स्पाइडरमैन या भारतीय सुपरहीरो शक्तिमान। ये तीनों दुनिया को बचाने का कारनामा करते हैं, पर इनका असली पेशा क्या था। जी हां, इनका इन फिल्मों में पेशा था पत्रकारिता। फिल्में और किरदार काल्पनिक हो सकते हैं। फंतासी भी अलग चीज है, पर इनके फिल्मी पेशे पर नजर डालें तो पत्रकारिता की अहमियत का पता चलता है।

कई दशक से बच्चों, बड़ों और बूढों पर राज करने वाले किरदार सुपरमैन का जिक्र करते हैं। वैसे तो सुपरमैन लोगों को बचाने का काम करता था। वो दुनिया को बुरे इंसानों से बचाता था, पर जब वो सुपरमैन नहीं होता था तो उसका व्यवसाय क्या था। कभी गौर किया आपने। सुपरमैन भी पेशे से पत्रकार था। पहले वो लोगों के दुख दर्द पर गौर करता था बाद में उन्हें समस्याओं से निजात दिलाता था। अब आते हैं स्पाइडर मैन पर। फिर एक काल्पनिक कथा। सुपरहीरो, जो इंसानियत की रक्षा के लिए मरने को भी तैयार है। वो अपनी शक्तियों से दुश्मनों को मात देता है। अब जरा स्पाइडर मैन के दूसरे रूप की ओर नजर डालते हैं। स्पाइडर मैन का पेशा भी पत्रकारिता था। वो पेशे से फोटो जर्नलिस्ट था और लोगों के बीच हमेशा रहता था।

ऐसे ही भारतीय सुपरहीरो शक्तिमान। शक्तिमान लोगों की मदद करता है, लेकिन उसकी दूसरी जिंदगी होती है गंगाधर के रूप में एक पत्रकार की। माना कि ये तीनों कैरेकटर काल्पनिक हैं और पूरी तरह से फंतासी पर आधारित हैं। कोरी कल्पना, पर गौर करने वाली बात ये है कि लेखक ने अपने किरदारों का दूसरा रूप पत्रकार का ही क्यों रखा! वो चाहता तो किरदारों का पेशा डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक का भी रख सकता था।

दरअसल, यहां पत्रकारिता की अहमियत पता चलती है। यही ऐसा माध्यम है, जिससे लोगों से जुड़ा जा सकता है। सच्चाई को करीब से देखने की आदत हो जाती है। व्यावहारिकता में इंसान ज्यादा यकीन करता है। कहने का मतलब ये कि पत्रकारिता हमेशा से समाज सेवा के लिए तत्पर रहा है। पत्रकारिता में खबरें ही हथियार होती हैं और लोगों के बीच पहुंचने का माध्यम भी। इन किरदारों और फिल्मों के लेखकों को पत्रकारिता का मूल्य अच्छी तरह पता है, यही वजह है कि इन काल्पनिक किरदारों की दूसरी जिंदगी पत्रकारिता रही है। उन लेखकों को भी ये एहसास था कि पत्रकार ही ऐसे हैं, जो लोगों से सीधे जुड़े होते हैं, बिना स्वार्थ के, बिना किसी लाग लपेट के। सार ये कि पत्रकारिता हमेशा से ही समाजसेवा रही है और पूंजीवादी दौर में इसका स्वरूप यही रहने वाला है।

फिल्में समाज का आइना होती हैं और समाज को भी इस क्षेत्र से काफी उम्मीदें हैं। हिंदी सिनेमा ही नहीं, दुनिया भर की फिल्म इंडस्ट्री में जर्नलिज्म रोचक विषय रहा है। ‘ब्रूस अलमाइटीज् हॉलीवुड की हिट फिल्म है। इसमें एक पत्रकार की दशा-दुदर्शा की कहानी है। कहानी काल्पनिक है कि भगवान आते हैं और अपनी शक्ति उसे देकर दुनिया चलाने को कहते हैं, पर बाद में जिम कैरी रूपी पत्रकार अपने सामाजिक दायित्यों को समझता है। यहां भी फिल्मकार ने अपनी बात कहने के लिए पत्रकार को ही चुना है। हिंदी फिल्में भी जर्नलिज्म से अदूती नहीं हैं। पहले फिल्मों में पत्रकार का किरदार हुआ करता था, लेकिन अब मीडिया पर ही फिल्में बनने लगी हैं। ‘पेज थ्रीज् में मधुर भंडारकर ने पत्रकारिता को करीब से दिखाया है। ‘बीट पत्रकारिताज् में ग्लैमर की चकाचौंध तो दिखाई है ‘क्राइम रिपोर्टिगज् के रूप में प्रोफेशन और समाज सेवा का कड़वा सच भी उजागर किया है। इस फिल्म के जरिए भी यही दिखाने की कोशिश की गई है कि पत्रकार का पहला धर्म उसका प्रोफेशन, ईमानदारी, सच्चाई और समाजसेवा हेाता है।

दरअसल, पूंजीवादी पत्रकारिता में ये चीजें थोड़ी पीछे छूटती जा रही हैं। खबरों की ऐसी मारा-मारी होती है कि पत्रकार अपना धर्म भूल जाता है। कभी कोई एक्सीडेंट होता है तो अब भीड़ के साथ पत्रकार भी उसे नजरअंदाज कर देता है या खबरों तक ही सीमित रह जाता है। समाजसेवा का धर्म यहीं डगमगाने लगता है। माना कि रियल लाइफ फंतासियों से भरी नहीं होती और आप उड़कर सुपरहीरो की तरह किसी को बचा नहीं सकते, पर खबरों को कवर करने के साथ-साथ किसी घायल को अस्पताल तो पहुंचा ही सकते हैं। अगर हम भी नजरअंदाज करके आम लोगों की तरह हाथ पर हाथ धरे खड़े रहें तो फिर उस भीड़ से अलग कैसे हुए।

ये बात इसलिए, क्योंकि ये सिर्फ पेशा नहीं है, धर्म भी है और अगर लोग इस धर्म के प्रति आस्था न रखते तो वो अपनी फिल्मों और किरदारों को पत्रकारों के रूप में इतनी अहमियत न देते। अपेक्षाएं बढ़नी लाजिमी हैं और ऐसे समय में आप अपेक्षाओं को तोड़ भी नहंी पाते। फिल्मों के जरिए ही सही एक बात समझने की जरूरत है कि इस क्षेत्र के प्रति अभी भी लोगों का विश्वास है। पत्रकारों को बुद्धिजीवी समझा जाता है और वो हैं भी, इसलिए बहकते कदम संभालने की जरूरत है।

फिर फिल्मों पर ही आते हैं। हाल ही में राम गोपाल वर्मा ‘रणज् फिल्म लेकर आए थे। मीडिया मैनेज की जो तस्वीर रामू ने दिखाई, वो उनका सच हो सकता है, पर पत्रकारिता जगत के लिए ये सच घातक है। फिल्म आखिर में यही संदेश दिया गया है कि ये समाज सेवा से जुड़ा क्षेत्र है और इस धर्म से अलग हुआ भी नहीं जा सकता। मीडिया का मतलब ही है मीडियम यानी माध्यम। जनता के बीच जाने का, उनका सुख-दुख जानने और उससे निजात दिलाने के तरीकों को सामने रखने का। मीडिया के पास भी जनता की ताकत है और ये ताकत किसी सुपरहीरो की ताकत से कम नहीं है।

धर्मेद्र केशरी

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