Thursday, September 24, 2009

पेश है ताजा नौटंकी

कौन कहता है कि हिंदुस्तान की पुरानी परंपरा नौटंकी का पटाक्षेप हो रहा है। इस विधा का कभी समापन हो भी नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि अब नौटंकी अब दूर-दराज के गांवों में ही खेली जाती है, शहरों में भी नौटंकी खेली जा रही है और लोग जमकर लुत्फ भी उठा रहे हैं। हां, नौटंकी का स्वरूप और उसके किरदार थोड़े बदले हुए हैं।

आज हम राजनीति की नौटंकी की कतई बात नहीं करेंगे। वो इसलिए क्योंकि नेता रजिस्टर्ड नौटंकी बाज हैं और इनके नौटंकी का कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं। इस बार तो कुछ और नौटंकियों की बात की जाएगी। अगर आपसे पूछा जाए कि राजनीति में आप किसे सबसे ज्यादा नौटंकी बाज करार देंगे तो आपका जवाब क्या होगा! कौन बोला अमर सिंह! ये अमर सिंह का नाम किसने लिया। खर, मैं तो भूल ही गया था कि आज राजनीति की चर्चा नहीं। हां, कुछ स्वयंवर-वयंवर की बात करते हैं। देखा स्वयंवर के नाम से ही लगे खींसे बघारने।

राखी सावंत के नाम से ही लोग कितने खुश हो जाते हैं। अमर सिंह की तरह राखी की जुबान का भी कोई भरोसा नहीं, कब किससे पिल पड़ें और कब, क्या कर दें ये इन्हें भी नहीं पता होता है। अगर अमर सिंह राजनीति के राखी सावंत हैं तो मैडम फिल्म जगत की अमर सिंह हैं। फिर, राजनेता का नाम! हां, तो भाई बात नौटंकी की हो रही है। अब राखी सावंत से अच्छी नौटंकी कोई कर सकती है! नहीं ना। संस्कृति मंत्री को तो राखी सावंत को नौटंकी का ब्रांड अंबेसडर बनाना चाहिए।

अब उनके एक भाई भी स्वयंवर रचाने आ रहे हैं। भाई, कहने पर कहीं भड़क न जाएं। भाजपा के दिवंगत बड़े नेता के सुपुत्र हैं। अब ये नौटंकी पार्ट टू मेरा मतलब है स्वयंवर पार्ट टू में अपनी जीवन संगिनी को खोजने का काम करेंगे। हंसने वाली कौन सी बात है! शादी करना बुरी बात नहीं है और हिम्मत तो देखिए बंदा दुनिया के सामने डंके की चोट पर शादी की बात करता है। क्या हुआ, शादी नहीं सगाई होगी और बाद में टूट भी जाए, हिम्मत की तो कद्र कीजिए। अब दांत नहीं निकालना।

हां, तो बाबा स्वयंवर रचाएंगे, पर एक बात नहीं समझ में आई कि लड़कियां स्वयं-वर चुनती हैं, इसलिए इसका नाम स्वयंवर पड़ा, तो क्या ये भी स्वयं-वर चुनेंगे! इन्हें तो स्वयंवधू रचाना चाहिए। खर, हमें इससे क्या। मौका लगा तो टीआरपी बढ़ा देंगे। नौटंकी का नया मसाला लग चुका है, बस पकने भर की देर है। गुजारिश तो बस इतनी है कि इन देव और देवियों को नौटंकी का सरताज जरूर घोषित कर दिया जाए। अच्छा, नमस्ते।
धर्मेद्र केशरी

Friday, September 18, 2009

मुफ्त की सलाह सेवा

अक्सर लोगो को, महापुरुषों को कहते सुना है कि किसी को बिना मांगे मुफ्त की सलाह नहीं देनी चाहिए, पर ये दिल है कि मानता ही नहीं। दिन भर में जब तब दो-चार बंदों को पर उपदेश झाड़ न लो, चैन ही नहीं मिलता है। इतनी बार झिड़कियां खा चुका हूं, पर ये आदत भी नेताओं की तरह है, सुधरती ही नहीं।

एक बार एक बंदा बारिश में भीगता चला जा रहा था, मैंने मानवीयता के नाते बोल दिया, दोस्त भीगो मत तबीयत खराब हो जाएगी, नजला-जुकाम से परेशान होकर बिस्तर पर पड़ोगे और दवाइयों पर पैसे खर्च करोगे सो अलग। मेरा कहना ही था कि बंदा फट पड़ा- अबे, तुझसे कोई सलाह तो मांगी नहीं मैंने और तू ये सलाह दे रहा है कि बद्दुआ। तबीयत भी खराब होगी तो तुझसे या तेरे बाप से..। उसकी पूरी बात सुने बिना मैं वहां से नौ दो ग्यारह हो गया और खुद को फटकारते हुए कसम खाई कि कभी किसी के फटे में अपनी टांग नहीं अड़ाऊंगा, पर साहब फिर वही, आदत।

कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है, पर आदतें, भगवान ही मालिक हैं। घर पहुंचते वक्त रास्ते में एक भिखारी टकरा गया। उसने भगवान के नाम पर कुछ मांगा, मैंने सोचा इसे कुछ दूंगा तो जल्द ही इसकी बिरादरी में शामिल होने का नंबर मेरा भी होगा, पर कुछ न कुछ तो देना ही था। दे डाली वही, बिन मांगी सलाह। कहा- भाई कुछ काम-वाम करो, हट्टे-कट्टे होकर मांगने में शर्म नहीं आती। मेहनत की कमाई खाओगे तो नींद भी अच्छी आएगी। मेरा इतना कहना ही था कि बंदा मेरी ओर खिसियाई नजरों से देखा, जसे कह रहा हो, अबे जो मांगा वो दिया नहीं, फालतू की सलाह अपने पास ही रख।

ऐसे ही एक दिन मैं एक नेताजी के भाषण समारोह में पहुंचा। नेताजी अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में डींगे हांक रहे थे। आदत से मजबूर चुप कैसे रहता। नेताजी को नेकनीयत रखने और जनता के भलाई की सलाह दे डाली। फिलहाल तो नेताजी ने मुस्कुराकर मुङो अपने साथ वाली कुर्सी पर बिठा दिया और साथ भी चलने को कहा। सोचा था नेताजी मेरी सलाह से इतने प्रभावित हुए हैं कि उनका हृदय परिवार्तन हो गया है, पर भइए बात कुछ और थी। मेरी सलाह नेताजी को इतनी खल गई कि उन्होंने अपने मुस्तंडों से ऐसी-ऐसी जगह सिंकाई करवाई कि बयां करने के काबिल भी नहीं बचा। किसी तरह जान बचाकर वहां से भागा।

रास्ते में एक प्रेमी जोड़ा मिला। हंसते-खिलखिलाते। दिल पर चोट खाए बंदा ठहरा, लिहाजा रहा नहीं गया और उसे भी उसकी प्रेमिका से दूरी बनाकर रहने की सलाह दे डाली। उसने पिटाई तो नहीं की, पर मुंह से जितने विश्लेषण निकाल सकता था, उसमें कंजूसी नहीं बरती। फिलहाल तो मैंने ये मुफ्त की सलाह सेवा बंद करने की ठानी है, पर कब तक, मुङो खुद नहीं पता।
धर्मेद्र केशरी

Saturday, September 12, 2009

जिन्नों का चक्कर

जिन्न विन्न से बचकर ही रहना चाहिए। कब, कौन, क्या गुल खिला जाए कहा नहीं जा सकता है, पर लोग जिन्नों से बचना कहां चाहते हैं। दरअसल, बचपन में पीपल के पेड़ के पास से खासकर दोपहर को गुजरते वक्त हर बड़े हो चुके बच्चे ने ये कहानी सुनी होगी कि पीपल के पेड़ पर जिन्नों का वास होता है, जो नुकसान भी पहुंचा सकते हैं और फायदा भी। वैसे मेरे घरवाले फायदे की कहानी ज्यादा बताते रहे हैं। फिर अलादीन के जिन्न की कहानी भी तो देख रखी है। यकीन मानिए, सोते-जागते वैसे ही जिन्न की कामना करता हूं, ताकि बिगड़े काम आसानी से बन जाएं। ये तो रही मेरी बात, अब मुद्दे की बात।


जसवंत सिंह ने भी कुछ ऐसा ही सोचकर जिन्ना के जिन्न का आह्वान किया था। जिन्ना का जिन्न आया भी, लेकिन उन्हें पार्टी से बाहर कराकर ही दम लिया। जसवंत सिंह जिन्ना के जिन्न से बखूबी परिचित भी हैं। कई साल पहले जिन्ना के जिन्न ने बवाल मचवाया था। फिर भी वो जिन्ना के जिन्न को बुलाने से नहीं चूके। सिंह साहब ने सोचा जिन्ना का जिन्न उनकी मदद कर सकता है। मदद कौन सी चाहिए थी वो तो वो ही जानें, पर जसवंत सिंह अब जिन्ना के जिन्न को दोबारा नहीं बुलाना चाहेंगे।


बेचारे लौहपुरुष आज तक उस वार से बच नहीं पाए हैं। लौहपुरुष क्या, इतिहास पुरुष भी जिन्ना के जिन्न से नहीं बचे हैं। आजादी के इतने साल बाद भी जिसे भी जिन्ना के जिन्न को जगाने की कोशिश की है, वो विवादों में ही रहा है। सच-झूठ तो परे हो जाता है, विवाद की राख बचती है। वैसे जिन्नों की कमी नहीं है। राजनीति में तो अधिकतर जिन्नों ने नुकसान ही पहुंचाया है। राजीव गांधी जसे बेदाग छवि के राजनेता को बोफोर्स का जिन्न आज भी परेशान करता है। लालकृष्ण आडवाणी को जिन्ना के जिन्न ने तो पटका ही है, कंधार का जिन्न कभी पीछा ही नहीं छोड़ता।


लालू यादव कितनी भी सरपट रेल दौड़ा चुके हों, बिजनेस गुरु का खिताब हासिल कर लिया हो, पर भैंसों के चारे वाला जिन्न उनके साथ ही रहता है। तब से लेकर आज तक अंधेरे में लालू जी की परछाई ने साथ छोड़ दिया होगा, पर उस अजीब जिन्न ने उनका साथ नहीं छोड़ा है और आने वाले दिनों में छोड़ता दिख भी नहीं रहा। आडवाणी जी जब भी कुछ बोलने के लिए अपना मुंह खोलते हैं, कंधार का जिन्न पहले ही उनके सिर पर बैठा दिख जाता है। बोलने से पहले ही उनकी बात ठिठोली में ले ली जाती है। जसवंत सिंह की किताब ने ऐसा कबाड़ा किया है कि आने वाले दिनों में पार्टी के महाभारत जिन्न की भी चर्चा की जाती रहेगी।
धर्मेद्र केशरी

Friday, September 4, 2009

महाभारत का आधुनिक एपिसोड

महाभारत देखने वालों को आजकल नए महाभारत में बहुत मजा आ रहा है। बी आर चोपड़ा ने अपने धारावाहिक महाभारत को बंद कर दिया तो क्या हुआ, दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए रियल लाइफ में कई धृतराष्ट्र और दुर्योधन हैं। अब भाजपा को ही देख लीजिए। ऐसा लगता है, जसे महाभारत के आधुनिक एपिसोडों का प्रसारण हो रहा हो।


पार्टी में ऐसी घमासान मची है कि पूछिए ही मत। महाभारत में तो फिर भी ठीक था कि दुर्योधन के भाई बंधु उसका साथ देते दिख रहे थे, लेकिन इस आधुनिक महाभारत में अपने ही दर्द देते नजर आ रहे हैं। पार्टी उसूलों, सिद्धांतो से दूर निकल चुकी है। हालात ऐसे बन गए हैं कि न तो निगला जा रहा है और न ही उगला। जिन्ना का जिन्न एक बार आडवाणी के भी सिर पर आया था, खूब हाय तौबा भी मची, पर अबकी जसी हालत नहीं थी। जसवंत सिंह को तो अपनी बात कहने तक का मौका नहीं मिला।


वो बस बरबराते रहे कि हमें तो किनारे कर दिया, आडवाणी जी के सुरखाब के पर लगे थे। सच कहें तो महाभारत कम रामायण का सीन भाजपा में ज्यादा बन रहा है। ‘घर का भेदी लंका ढाएज्, विभीषण ने भले ही रामकाज को अच्छे तरीके से चलाने के लिए श्रीरामचंद्र जी से हाथ मिला लिया हो, लेकिन कहा तो उन्हें घर का भेदी ही जाता है। कुछ ऐसा ही हाल भाजपा के नेताओं का भी है।
अंदर की बातें बाहर करने में जरा भी नहीं हिचक रहे हैं लोग। भाजपा में एक नहीं, बल्कि कई विभीषण पैदा हो गए हैं, जो अदृश्य रूप से अपनी ही जड़ खोदने में लगे हैं। एक तो हर कोई सिंहासन झटकने के मूड में है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, इसलिए इसकी टोपी उसके सिर किया जा रहा है कि क्या पता इस बहती गंगा में हाथ ही धो लें।

ये भूलकर कि ये कोई मखमली सिंहासन नहीं, बल्कि कांटों की सेज पर सोने जसा होगा, पर किसी न किसी को तो आना ही है, मगर कोई एक ऐसा बंदा नहीं है, जो अपनी जिम्मेदारियों से नाता जोड़ ले। लोक सभा चुनावों ने वैसे भी पार्टी की हालत पतली कर दी है। आगे श्रीराम ही मालिक। वैसे भगवान राम भी तंग आ गए हैं, इनके रोज-रोज के दल बदलने से, इसलिए वो भी चुपचाप हैं, क्योंकि उनके इन्ही कथित बंदों ने उन्हें मानहानि पहुंचाया है।


कहते हैं दूसरे के घर में झगड़ा देखने में पड़ोसियों को बहुत मजा आता। कांग्रेस कुछ वैसे ही चटखारे लेकर चुपचाप जायके का मजा उठा रही है, ये भूलकर कि वक्त से किसकी यारी है, आज मेरी तो कल तेरी बारी है।
धर्मेद्र केशरी