Friday, July 30, 2010

कहीं नेताओं, साधुओं सा हाल न हो जाए पत्रकारों का

‘ऐश्वर्या राय को चांद दिखा या नहीं ये ब्रेकिंग न्यूज है, पर हजारों कश्मीरी महिलाओं के पति आज तक घर लौट कर नहीं आए, इस पर कोई खबर नहीं बनतीज्। ये डायलॉग राहुल ढोलकिया की ताजातरीन फिल्म ‘लम्हाज् का है। महज ये संवाद कई गंभीर बातों को सामने लाने के लिए काफी है। मसला कश्मीर का तो है ही बड़ा मसला है मीडिया का, जिसे देश का चौथा स्तंभ कहा जाता है। सिर्फ लम्हा ही नहीं, तमाम फिल्में मीडिया के सच को ‘उजागरज् करने का दावा करने लगी हैं। चाहे वो रामगोपाल वर्मा हों या मधुर भंडारकर या फिर कोई और क्यों अब मीडिया को ही निशाने पर लिया जा रहा है? ये बहुत बड़ा सवाल है।
संविधान के मुताबिक हर किसी को अभिव्यक्ति की आजादी है। कोई भी अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र है। फिल्में भी अभिव्यक्ति को जाहिर करने का माध्यम हैं और फिल्मकार अपने तरीके से लोगों तक अपनी बात पहुंचाते हैं, पर क्या कभी ये गौर किया गया है कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये खुन्नस निकालने का तरीका हो सकता है, पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि अनुषा रिजवी जसी पत्रकार भी मीडिया पर व्यंग्य करती हुई फिल्म (पीपली लाइव) बना रही हैं। ऐसा क्यों है कि मीडिया को आईना दिखाने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूंजीवादी बेड़ियों में मीडिया कुछ इस कदर जकड़ा जा चुका है कि वो अपने मूल्यों से भी पीछे हटता जा रहा है!
मीडिया पर हर किसी का भरोसा है। इसे आम जन की आकाक्षांओं का प्रहरी कहा जाता है। यही वजह है कि आज मीडिया पर ही सबसे ज्यादा यकीन किया जाता है। लोगों को ये ढांढस बंधता है कि सरकार और नौकरशाह को सही राह पर लाने के लिए मीडिया जनता की आवाज बुलंद करता है और करता रहेगा। जब कोई आप पर विश्वास करता है तो उसके यकीन को कायम रखने के लिए सारे जतन किए जाते हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही है। मीडिया को भी अपना भरोसा कायम रखने की जरूरत है, पर दुर्भाग्य से कहीं चूक जरूर हो रही है। आलम ये है कि अब लोग मीडिया को भी गरियाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। नेता-अभिनेता के आरोपों से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर आम जन अगर मीडिया के बारे में ऐसी राय रखने लगे तो ये पत्रकारिता के मुंह पर बहुत बड़ा तमाचा होगा।
 फिलहाल फिल्मों का उदाहरण दिया जा रहा है। कहते हैं साहित्य या सिनेमा समाज का आईना होता है। पहले की इक्का-दुक्का फिल्मों में ही कहानी की मांग पर किसी भ्रष्ट पत्रकार का किरदार गढ़ दिया जाता था, पर अब..अब तो मीडिया को केंद्र में रखकर कहानी लिखी जा रही है और उन कहानियों में मीडिया का ‘असलीज् चेहरा पेश किया जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों है? केवल ये कहकर की फिल्में हैं, काल्पनिकता पर बनती हैं, जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है।
पूरी दुनिया में, खासकर भारत में मीडिया का प्रभाव इसलिए ज्यादा है, क्योंकि यहां की दीन-दुखी जनता को मीडिया से ही खासी उम्मीदे हैं। ऐसे में जब मीडिया को कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है तो आम आदमी किस पर यकीन करे?
पत्रकारों के बिकने और पेड न्यूज पर न जाने कितनी गोष्ठियां और मीटिंग आयोजित हो जाती हैं, पर क्या कोई पूरी ईमानदारी से पेड न्यूज के कल्चर को स्वीकार कर रहा है। गिरेबां में झांककर देखें तो पेड न्यूज की मुखालिफत करने वाले सिर्फ मीडिया की मर्यादा को बचाने के लिए ऐसी बातें कर रहे हैं, पर उनकी आत्मा जानती है कि पेड न्यूज का चलन उनके पास से ही होकर गुजरता है और वो कुछ नहीं कर पाते हैं।
दरअसल, बाजार मीडिया पर बुरी तरह हावी होता जा रहा है, इसलिए कई बार ‘बड़ी खबरेंज् टीवी पर प्रोमो दिखाने के बाद भी उतार ली गई हैं। वजह रसूख के दबाव की हो या माया ने उन खबरों को मुंह बंद कर दिया हो, पर बदनाम तो पत्रकारिता ही हुई है। आखिर मीडिया मैनेज जसे शब्द कहां से निकले हैं। क्या किसी की इतनी औकात है, जो लंच-डिनर कराके और चार पैग दारू पिलाकर या गिफ्ट देकर मीडिया को मैनेज कर सके..पर ये बातें अब आम होने लगी हैं और इसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। कुछ घुनों की वजह से गेहूं के अस्तित्व को भी कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है और उन घुनों को गेहूं से निकालना बेहद जरूरी है।
बाजार के बढ़ते प्रभाव से हम आम जनता से ग्राहक की तरह पेश आने लगे हैं। जसे दुकान में खबरें लगाकर बैठे हों और ग्राहकों को परोस रहे हों उनकी मनपसंद खबरें। बदलते वक्त में कुछ बदलाव जरूरी है, पर इसका मतलब ये नहीं कि हम अपना रास्ता ही बदल लें।
पत्रकारिता का सीधा संबंध समाज से है और समाज को साथ लेकर ही सार्थकता सिद्ध की जा सकती है। एक सम्मानित और जिम्मेदार कार्य को ‘प्रोफेशनज् में तब्दील किया जा चुका है। ‘प्रतिष्ठानज् पत्रकारिता के आड़े आने लगा है। इसके पीछे कई दलीलें दी जा सकती हैं, कि ये वक्त की मांग है, जमाना बदल चुका है, मीडिया का स्वरूप बदल चुका है वगैरह वगैरह। यकीनन वक्त बदल गया है, मीडिया का चेहरा बदल रहा है, पर जितने भी वरिष्ठ और बड़े पत्रकार हैं, उन्हें उनकी खबरों ने, उनकी रिपोर्टों ने बड़ा बनाया है, लोग सम्मान की नजर से देखते हैं, इसलिए इस बात का खास ख्याल रखे जाने की जरूरत है कि समय कितना भी बदल जाए आम आदमी से सरोकार रखने वाला और उनके दुख दर्द का साझीदार ही पत्रकार है।

एक वक्त था, जब साधुओं को तवज्जो दी जाती थी। उन्हें इज्जत और श्रद्धा के भाव से देखा जाता था। कुछ ऐसा ही हाल नेताओं का था, जिन पर लोग भरोसा करते थे, पर इन लोगों ने अपनी ऐसी मिट्टी पलीद कराई कि पूछिए ही मत। आम जनता तक पैठ बनाने वाले इस तबके को अब सम्मान की दृष्टि से तो नहीं ही देखा जाता है। गालियां मिलती हैं सो अलग, वजह साफ है कि आम आदमी को इन्होंने इस्तेमाल करना चाहा और अपना स्वार्थ सिद्ध किया। बदकिस्मती से मीडिया भी इसी राह पर है। मीडिया पर आंख मूंदकर भरोसा करने वाले लोग (जनता) अब संदेह भी करने लगे हैं। अभी भी वक्त है, मीडिया के साख, सम्मान और मर्यादा को बचाया जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाए और लोग मीडिया पर भी भरोसा करना छोड़ दें।
धर्मेद्र केशरी

Thursday, July 29, 2010

कहां से सीखी ये अदाएं

डियर गर्लफ्रेंड्स,

मेरे पास तो एक भी गर्लफ्रेड नहीं है ये संबोधन उनके लिए है, जिनके ब्वॉयफ्रेंड्स हैं और वो हैं उनकी गर्लफ्रेंड। सभी गर्लफ्रेंड्स से आज एक गुजारिश करना चाहता हूं। प्लीज कुछ बातों पर गौर फरमाया कीजिए। आप लोग किसी के आने-जाने, उठने-बैठने, करने-धरने से पहले टोंकाटाकी करती हैं तो वो आपकी केयरिंग होती है और बेचारे ब्वॉयफ्रेंड्स ने अगर ये पूछा-ताछी कर ली तो वो पजेशिव हो जाता है। एक ही मामले में ये दोहरा मापदंड क्यों अपनाती हैं आप लोग?
फोन बिजी गया नहीं कि मेरी कसम बताना कौन थी फोन पर, भले ही बंदा अपने पापा से बात कर रहा हो। कसमें खा-खाकर सफाई देनी पड़ती है। नखरे, गुस्सा ङोलो वो अलग। अगर कहीं मिस गर्लफ्रेंड्स का फोन बिजी गया और मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स ने गलती से पूछ भर लिया कि किससे बात हो रही थी तो जमीन-आसमान एक। सीधा सवाब- तुम्हें मुझपर जरा भी भरोसा नहीं, शक करते हो मुझपर। फिर तो बंदे ने जो भुगतना है, उसी की आत्मा जानेगी। कहीं गलती से मिस्टर ब्यॉयफ्रेंड्स ने फोन छेड़ दिया तो कहानी खत्म और मोहतरमाओं का तो बंदे के फोन पर जन्म सिद्ध अधिकार है। डियर गर्लफ्रेंड्स, कुछ बंदे के भावों को भी तो समझा कीजिए।
प्यार की पटरी पर आ रही गाड़ी कब पटरी से उतर जाती है पता ही नहीं चलता। कभी-कभी तो चलती ट्रेन से मुसाफिर बिना बताए भी उतर जाता है। ओ के, दार्शनिक बातें नहीं..सीधे आपसे की जाने वाली गुजारिशों पर आते हैं। हां तो आप लोगों से जब तक मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स शादी की बात पर नहीं आते हैं रिश्ते को आप सीरियसली नहीं लेती हैं।
बंदा सीरियस हुआ नहीं कि इमोशनल अतयाचार शुरू। वैसे इमोशनल अत्याचार का गुर आपको किस गुरु भाई या गुरु मां ने सिखाया है? प्लीज बताएं, बेचारे ब्वॉयफ्रेंड्स को भी उसी गुरुकुल में भेज दिया जाए ताकि वो आपके प्यार भरे अत्याचारों का उसी अंदाज में जवाब दे सकें। जब मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स मिस गर्लफ्रेंड्स से शादी जसे गंभीर मसले पर बात करते हैं तो शुरू होती है असली महाभारत।
गर्लफ्रेंड्स जी, प्लीज ये बताएं कि प्यार-व्यार के झमेले में डालने से पहले आप एक कमरे का घर, एक थाली और एक कटोरी में भी गुजारा करने की बात करती हैं। बंदे का जेब और जेब खर्च भी बखूबी जानती हैं और उसी में खुद को सेट कर लेने का हवाला देती हैं, पर बाद में आप स्टेसस का हवाला क्यों देती हैं। फिर आपको अपने मौसी के दामाद जसे पैसेवाले पति की दरकार होने लगती है और प्यार भिखमंगा और नंगा नजर आने लगता है। एक बात और..मिस्टर ब्वॉयफ्रेंड्स आपके नखरे उठाने के लिए उधारी मांगते फिरते हैं, प्लीज इतनी महंगाई और रिसेशन के टाइम में थोड़ा कंसेशन दे दिया कीजिए। बाकी क्या कहें, करना वही है जो आपका मन करेगा। नमस्ते।
धर्मेद्र केशरी

Friday, July 23, 2010

..खो गई हैं

फिर वही शाम वही बत्तियां झिलमिला रही हैं
पर रोशनी कहीं खो गई है
हवा की वही रेशमी छुअन
मगर सिरहन कहीं गुम हो गई है
दूर क्षितिज पर टिकती हैं निगाहें
जहां एक होते जमीं आसमां
इनके मिलन के जसे ही
अपने रिश्ते की बनावट हो गई है
ख्वाहिशें चाहती हैं तोड़ना बंदिशों को
पर अब ख्वाहिशें तोड़ने की आदत हो गई है
चाहता हूं प्यार को प्यार से पाना
पर प्यार में भी अब मिलावट हो गई है
टूटे दिल से अब क्या अरमां करें ऐ दोस्त
अब दर्द में भी राहतें हो गई हैं
यकीन-ए-मुहब्बत न करना टूट के
बेवफाई की वफा पे आहट हो गई है
जार-जार रोता है दिल
पर आंखों की नमी कहीं खो गई है
होता था तेरे होने का गुमां
हुए ऐसे दूर
अब तो रास्ते भी खो गए हैं
न जाने क्या गुनाह किया हमने
कि मिलती रही सजा दर सजा
सोचा था अब सजायाफ्ता नहीं
पर ये कैद बड़ी हो गई है
फिर वही शाम, वही बत्तियां झिलमिला रही हैं
पर रोशनी कहीं खो गई है

Sunday, July 4, 2010

कठपुतलियों का देश!

हमारे देश के प्रधानमंत्री इतने शांत और सौम्य हैं कि वो जहां भी जाते हैं लोग उनके सामने मुख्य मुद्दों को भूलकर उनकी सादगी और सौम्यता की मिसाल देने लगते हैं। कुछ दिन पहले ही वो ओबामा से मिले थे। ओबामा उनके विराट स्वरूप में इस कदर फंसे कि पाकिस्तान और डेविड हेडली की बात करना ही भूल गए। ओबामा ने कहा कि जब सिंह साहब बोलते हैं तो पूरी दुनिया उनकी बात सुनती है। माननीय प्रधानमंत्री भी उनकी बातों में ऐसे डूबे कि उन्होंने एक बार ये नहीं पूछा कि भई, आतंकवाद मुद्दे पर आप क्या कहना चाहते हैं या मुंबई हमले के आरोपी को आप भारत के सुपुर्द क्यों नहीं करते।
न जाने क्यों मुङो अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। मेरी एक टीचर मैडम थीं। मैं उनकी बात बहुत मानता था। मानता क्या था। उनके इशारों पर ही कदम बढ़ाता था। उन्होंने कह दिया आगे बढ़ो, तो बढ़ गया, उन्होंने कहा कि चुपचाप बैठे रहो, तो अच्छे बच्चे की तरह चुपचाप बैठा रहता था। वैसे मैडम थीं बड़ी अच्छी, उन्होंने ही मुङो स्कूल का मॉनिटर बनवाया था। उस एहसान को मैं भूल तो सकता नहीं था, इसलिए जो मैडम की मर्जी होती थी, वो मेरी मर्जी। कई बार मेरे दोस्तों ने ये कहा कि तू तो मैडम की कठपुतली हो गया है, पर अब उन्हें मैं ये कैसे समझाता कि सारा दान-दक्षिणा तो मैडम का ही है।
उन दिनों मैं अपने दोस्तों को तर्क दिया करता था कि जब चौदह वर्ष तक राम जी का खड़ाऊ राज कर सकता है तो मैं तो जीता-जागता इंसान हूं। मैं भी मैडम की खड़ाऊ लेकर ही राज कर सकता हूं। इसके बड़े फायदे होते थे। फालतू दिमाग नहीं खर्च करना पड़ता था। जो सोचना था मैडम को सोचना था। दिमाग पर जरा भी भार पड़ता नहीं था और मैं स्वस्थ्य, चैतन्य। पर अब ये महसूस होता है कि मॉनिटर होने के नाते मुङो कुछ काम खुद भी करने चाहिए थे, मैडम की बातों को मानने के अलावा। इस देश पर जब खड़ाऊ ने राज किया तब किया, अब उन खड़ाऊओं में कोई जान नहीं।
वैसे कठपुतली मैं पहले भी था। अब भी हूं। मैं क्या, पूरा देश है। तिगनी नाच नाच रहे हैं सब, पर कोई कुछ कह नहीं पाता। टैक्सों का इतना भार लाद दिया गया है निरीह जनता पर कि वो दिन ब दिन उसके नीचे ही दबता जा रहा है। ऊपर से नीचे तक सभी कठपुतली हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि ये कठपुतलियों का देश है। खर, ज्यादा कुछ नहीं कहना। ओबामा आने वाले हैं इंडिया, समोसा खाकर और लस्सी पीकर उसका गुणगान करके चले जाएंगे और हम उन्हें कठपुतलियों की तरह आत्ममुग्ध होकर बस देखते रहेंगे।

धर्मेद्र केशरी