Sunday, July 24, 2011

तुम हिंदू को कि मुसलमान?


एक दिन मैं ऑफिस आने के लिए बस का इंतजार कर रहा था। काफी देर से बस नहीं रही थी। मैं कानों में इयरफोन लगाए गाने सुन रहा था। बस स्टॉप के पास ही कूड़ादान है। देखा कि एक करीब सात-आठ साल का बच्चा कंधे पर प्लास्टिक की बोरी लटकाए कूड़ेदान से कुछ बीन रहा था। वो प्लास्टिक की बातलें और थैलियों को इकट्ठा कर रहा था। मैं उसके पास चला गया। बच्चे का नाम सलीम था। मैंने उससे पूछा कि प्लास्टिक बेचने पर उसे कितना मिलता है। बच्चे ने बताया कि प्रति किलो प्लास्टिक बेचने पर उसे दस रुपए मिलते हैं।

सूरज चढ़ा हुआ था और धूप बहुत तेज थी। उस तेज धूप में भी छोटा बच्चा पन्नियों और बोतलों को इकट्ठा करने में लगा हुआ था, वो भी सिर्फ आठ-दस रुपयों के लिए। मैंने उससे पूछा कि वो पढ़ाई करता है या नहीं। बच्चे ने जवाब दिया कि वो पढ़ाई नहीं करता है। वजह भी उसने बताई कि वो इस काम में लग गया है और घर में अभाव हैं, इसलिए उसे भी पैसों का जुगाड़ करना पड़ता है। पर बच्चे ने मुझसे ये भी कहा कि वो पढ़ना चाहता है। बच्चा जिस झुग्गी में रहता था, वहां से मेरा सेक्टर कुछ ही दूरी पर है। मैंने सोचा अगर इसके जसे और भी बच्चे होंगे तो उन्हें पढ़ाया तो जा ही सकता है। मैंने उससे ये भी पता कर लिया कि उसके जसे और भी बच्चे हैं, जो पढ़ नहीं पाते हैं।

मैंने कहा कि वो अपने पिता या किसी का नंबर दे दे ताकि मैं फोन कर सकूं, पर ये भी समझ सकता था कि बच्चे को नंबर कहां से याद रहते। मैंने उसे अपना नंबर दिया और कहा कि अपने पापा से कहना कि वो मुझसे बात कर लें। मैं जाने को था तभी सलीम ने मुझसे कुछ ऐसा पूछा कि मैं हैरत में पड़ गया। उसने मुझसे पूछा कि तुम हिंदू हो कि मुसलमान? मैं एक बच्चे के मुंह से ये सवाल सुनकर खामोश खड़ा रहा, फिर उसे समझाया कि सबसे पहले एक इंसान, फिर कुछ और हूं।
सलीम को भी समझाया कि वो इन बातों में पड़कर एक अच्छा इंसान बने। जानता हूं कि मैंने जो कुछ कहा शायद उसे समझ में आया हो, पर उसका ये सवाल तुम हिंदू हो कि मुसलमान मुङो आज भी खटकता है कि इस छोटी सी उम्र में उसे इंसान की इस तरह पहचान करना किसने सिखाया होगा? किसने उसके मन में इस पेचीदा सवाल को जन्म दिया होगा? बच्चे ने तो बस मुझसे मेरी पहचान पूछी थी, जो उसके बाल मन में भरा गया होगा, पर उसके बाल मन पर ये बोझ लादा किसने?

धर्मेद्र केशरी

Saturday, June 11, 2011

जनता का जनार्दन को जूता आईना

कांग्रेस के मीडिया प्रभारी जनार्दन द्विवेदी सरकार का पक्ष लेकर प्रेस कांफ्रेंस में हाजिर हुए। जनार्दन के चेहरे पर साफ दिख रहा था कि उनकी सरकार इस निरंकुशतो को किस कदर हवा दे रही है। उन्होंने रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ, उसे जायज ठहराया। उन्हें और उनकी सरकार को देशवासियों को लाठी मारने का कोई गम नहीं। कोई मलाल नहीं। वहीं सुनील सिंह नाम का एक पत्रकार कवरेज के लिए भी गया हुआ था। उसके जनार्दन के तर्क और उनका बर्ताव रास नहीं आया और उसने जनार्दन का जूता दिखाते हुए ये जताने की कोशिश की कि सरकार यही खाने वाले काम कर रही है।

हिंसा गलत है और किसी को मारना ठीक नहीं, लेकिन अपना विरोध जताना भी बुरा कतई नहीं है। पत्रकार ने जूता दिखाकर अपना विरोध दर्ज कराया है कि उनकी सरकार किस तरह गर्त में जा रही है और आने वाले दिनों में जनता भी ऐसे ही सरकार के नुमाइंदों को जूते मारने वाली है। एक तरह से ये सरकार को आईना दिखाया गया है। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। ये सरकार हर मोर्चे पर नाकाम रही है। महंगाई कहां से कहां पहुंच गई, पर सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। अभी भी महंगाई दर बढ़ती ही जा रही है। आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है, पर मनमोहन सिंह एंड कंपनी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। दरअसल, एसी में बैठकर सरकारी सुविधाओं के साथ सत्ता सुख लेने वालों को गरीबी और तकलीफ कभी दिखने वाली नहीं। वो आम आदमी के दर्द के कभी महसूस ही नहीं कर सकते।
वैसे भी ये सरकार जनता विरोधी सरकार है। रामलीला मैदान में उनकी दमन नीति यही दर्शाती है कि विरोध करने वाले का मुंह बंद कर दो। यह लोकतंत्र के मुंह पर तमाचा है। जनता के साथ विश्वासघात है। यह सरकार जन लोकपाल बिल का समर्थन नहीं करती। अगर करती तो तिकड़मों का पेंच फंसाए बिना ईमानदारी से प्रस्ताव पास हो जाता। काले धन के मुद्दे पर भी यह सरकार कुछ नहीं कर रही। दरअसल, सबसे ज्यादा शासन देश पर कांग्रेस ने ही किया है और उन्हीं के लोगों ने सबसे ज्यादा सत्ता सुख भोगा है। काले धन पर कांग्रेस के लगातार मुकरने से तो ऐसा ही लगता है कि इनके ही प्रतिनिधियों ने काली कमाई कर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है और पोल खुलने के डर से काले धन पर कोई भी कानून लाने से बच रहे हैं। फिर रामलीला मैदान में सो रही जनता पर अत्याचार कर और उन्हें दुत्कार कर सरकार ने जता दिया कि सरकार से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं और जनता निरी बेवकूफ है। उसने सरकार को चुना है। अपनी मर्जी से सत्ता यूपीए के हाथों में दी है और अब वो कुछ भी कर सकते हैं। वो राजा हैं और प्रजा को तोड़े-मरोड़ें या बर्बाद कर दें, कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। सरकार के कर्म उनकी ऐसी ही मानसिकता को दर्शाते हैं।

ऐसे में उन्हें आईने की जरूरत है। रामलीला मैदान में जलियावाला बाग जसे कांड की पुनरावृत्ति करने की हठी सरकार को ये दिखाने की जरूरत है कि जनता से बड़ी कुछ नहीं हो सकती है। कभी भगत सिंह ने भी अंग्रेजों को नींद से जगाने के लिए ऐसा ही आईना उन्हें भी दिखाया था। बुश को भी मुंतजर ने जूता रूपी आईना दिखाया था और जनरैल सिंह ने चिदंबरम को। जनार्दन द्विवेदी और उनकी सरकार को भी ऐसे ही आईने की सख्त जरूरत थी। अभी तो ये आगाज है। अभी जनता भी जूते मारने शुरू करेगी और सबसे पहले उसका शिकार बनेंगे दिग्विजय सिंह, क्योंकि दिग्विजय सिंह भी इस समय उलूल-जूलूल बयान देने में आगे हैं। जिस दिन पानी सिर पर से ऊपर हो जाएगा, उन्हें भी प्रसाद मिल सकता है। सरकार को चेतने की आवश्यकता है नहीं तो उसका हाल भी पश्चिम बंगाल में माकपा जसा होना तय है। जनता उखाड़ फेकेंगी। कहते हैं विनाशकाले विपरीतबुद्धि..ओर ये सरकार उसी राह पर चल रही है। अगर इस सरकार को सद्बुद्धि नहीं आई तो एक दिन पूरा देश ही सड़क पर निकल आएगा। फिर यहां का हर चौराहा तहरीर चौक में तब्दील हो जाएगा।
धर्मेद्र केशरी


Monday, June 6, 2011

कहां गायब हो गए कांग्रेस के युवराज?


कुछ दिन पहले ही कांग्रेस के युवराज और युवाओं के हिमायती राहुल गांधी आधी रात के बाद भट्टा परसौल गांव पहुंचे थे। राहुल के मुताबिक वहां वो किसानों के हक की लड़ाई लड़ने गए थे। वो भी तब, जब शायद उस समय उसकी कोई जरूरत नहीं थी। उनके जाने के बाद बहुत हंगामा हुआ और आधी रात की नौटंकी हिट रही । उत्तर प्रदेश सरकार ने जब उन्हें गिरफ्तार करके नोएडा की सीमा से बाहर भेज दिया तो खूब हो-हंगामा हुआ।
कुछ दिन तक तो कांग्रेसी माया सरकार के खिलाफ लोकतंत्र की दुहाई देते हुए सड़कों पर नजर आए। इतना बवाल काटने का मतलब नहीं समझ में आया। भूमि अधिग्रहण की नीति केंद्र सरकार को तैयार करनी है और राहुल चाहते तो माया को घेरने के बजाय केंद्र सरकार पर दबाव बनाते। राहुल भट्टा पारसौल जाकर राजनीति की रोटी सेंकने की बजाय प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को किसानों की परेशानी से अवगत कराते और भूमि अधिग्रहण की नीति बदलने पर विचार करने के लिए कहते तो उनकी मंशा पर कोई सवाल ही नहीं खड़ा करता, पर उन्होंने ऐसा बिलकुल नहीं किया।
राहुल गांधी किसानों का दर्द बांटने तो पहुंचे, पर ग्रामीणों के हमले में मारे जाने वाले पुलिसकर्मी भी तो इंसान ही थे। क्या उन्हें भी मरहम की जरूरत नहीं थी? क्या उन के परिवार वालों को बड़ी हानि नहीं हुई थी? बात तो तब बनती जब राहुल उन मृतक पुलिसवालों के परिवार के पास जाकर भी सांत्वना प्रकट करते।
शनिवार देर रात केंद्र सरकार के इशारे पर पुलिस ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में जो तांडव मचाया वह तो पूरी तरह से लोकतंत्र की हत्या है और अब कांग्रेस के युवराज कहां गायब हो गए? अब वो लोकतंत्र की दुहाई क्यों नहीं दे रहे? माया सरकार ने तो राहुल के साथ कुछ भी नहीं किया और न ही उनकी पार्टी के लोगों को कोई हानि पहुंचाई थी, लेकिन उनकी पार्टी की सरकार ने रामलीला मैदान में डटे देशवासियों के साथ अमानवीयता की हद को ही पार कर दिया। अब राहुल कोई प्रतिक्रया क्यों नहीं देते हैं? क्या रामलीला मैदान में जुटी भीड़ से उनका कोई वास्ता नहीं है? क्या उनके अपने लोगों की कोई कैटेगरी है। राहुल पहले ये तय कर लें कि उनके लोग क्या सिर्फ वही हैं, जो कांग्रेस को वोट देते हैं?
यह दुर्भाग्य की बात ही है कि राहुल मुद्दों से तो जुड़े, लेकिन उन मुद्दों से जो ज्यादा प्रभावशाली नहीं हैं। वह कलावती के घर खाना खाने जाते हैं और बाइक पर बैठकर भट्टा पारसौल ही पहुंचना जानते हैं। आखिर वो जन लोकपाल बिल और काले धन के मामले में खुलकर सामने क्यों नहीं आते? सिर्फ इसलिए, क्योंकि उनकी सरकार पर ये दोनों मुद्दे आफत की तरह है। राहुल अगर इन मुद्दों पर भी अपना पूरा समर्थन देते तो देश की जनता यह समझती कि वास्तव में वह भी भ्रष्टाचार मुक्त भारत की कल्पना करते हैं और पूरी ईमानदारी से बिना पार्टी और आलोचना की फिक्र किए उसके लिए लड़ाई भी लड़ने को तैयार हैं, पर कांग्रेस का यह भविष्य खामोश है।
राहुल कहते हैं कि वो युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और चाहते हैं कि और भी युवा राजनीति में आएं, पर शनिवार की रात रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ उसे देखकर युवा सियासत के दलदल से दूर रहना ही बेहतर समङोंगे। आखिर युवा राजनीति में क्यों आएंगे? युवा बदलाव करने की नीयत से आएंगे और जब बदलाव घाघ नेताओं को रास नहीं आएगी तो वो ऐसे ही तिकड़मों से लोकतंत्र और राजनीति को शर्मशार करते रहेंगे, जसा केंद्र सरकार के वयोवृद्ध नेताओं ने रामलीला मैदान में किया। खामोश राहुल किन तर्को के साथ युवाओं को अपने साथ जोड़ेंगे?  राहुल का इन दोनों मुद्दों से न जुड़ना और रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ उस पर उनका चुप रहना सिर्फ कांग्रेस की साख पर ही बट्टा नहीं लगाता, बल्कि राहुल के राजनीतिक चरित्र और भविष्य पर भी सवाल खड़ा करता है कि आखिर राहुल किस तरह की राजनीति करना चाहते हैं? साफ-सुथरी बदलाव वाली या यूं ही कभी न बदलने वाली नीतियों के साथ। 
धर्मेद्र केशरी

Saturday, June 4, 2011

थके बूढों की नाकाम नपुंसक सरकार रात में ही जुल्म ढा सकती है

रामलीला  मैदान से रामदेव को दिल्ली  की पुलिस ने अगवा कर लिया और देर रात धावा बोलकर सो रहे भारतवासियों को लाठियों के जोर पर खदेड़ दिया गया.महिलाओ को भी जमकर पीटा.हजारो लोगो को इस तरह दुतकार कर भगाया जैसे की वो जानवर हों. मनमोहन सिंह इस देश के प्रधानमंत्री हैं और यही इस देश का दुर्भाग्य है. अब तो उनकी इमानदारी पर भी सवाल खडा होता है की कही विदेशी बैंको में सबसे ज्यादा धन मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के थके बूढों का तो नहीं है?

अगर ऐसा नहीं होता तो जो रामलीला मैदान में हो रहा है वो बिलकुल नहीं होता. अब शक नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास होता जा रहा है की कांग्रेस  सरकार के आला अधिकारिओ का ही सबसे ज्यादा धन विदेशी बैंको में जमा है. सवाल तो मनमोहन सिंह से पूछा जाना चाहिए कि उनकी सरकार नपुन्सको जैसा बर्ताव क्यों कर रही है. ये सरकार न सिर्फ नाकाम नहीं  है बल्कि सबसे भ्रष्ट और क्रूर सरकार है. इतनी बेवकूफी भरे कदम उठाने कि सलाह आखिर इस सरकार के किस तिकड़मी बूढ़े ने दी. क्या ये सरकार मानवीयता को भी भूल गयी है. आधी रात को उठाया गया ये कदम जलियावाला बाग की याद दिलाता है. वो अँगरेज़ थे, ये कौन है? ये तो अँगरेज़ नहीं पर ये उनसे भी खतरनाक है. धन के लोभी ये ऐसे भेड़िये हैं जो इंसानों को कच्चा चबा जाना चाहते हैं. रातोरात हजारो लोगो को जानवरों की तरह खदेड़ना और मीडिया की आवाज़ को दबाकर क्या सिध्ध करना चाहती है सरकार? की जनता उन्हें शाबाशी देगी. जनता अब इस थके और नपुंसक सरकार को बख्सने वाली नहीं है.

अन्ना हजारे ने अपने लिए अनशन नहीं रखा था. वो प्रधानमंत्री तक को भी जन लोक पाल के दायरे में इसलिए रखना चाहते है ताकि प्रधानमंत्री भी चोर न बन जाये. पर इस सरकार को न जाने किस बात का खौफ है? बहुत मनमानी कर ली इस सरकार ने. अब बाबा रामदेव को भी मनमोहन एंड कंपनी ने सियासत का शिकार बना डाला. दरअसल उन्होंने बाबा या अन्ना को धोखा नहीं दिया हैं बल्कि ये जनता के गले पर वार किया जा रहा है. काले धन के मुद्दे पर कामजोर, बूढों की जमात वाली सरकार पीछे हट रही है. सिर्फ इसलिए क्योकि उन काले चोरो में उनका भी नाम है. अगर ऐसा नहीं होता तो ऐसी बर्बरता ये सरकार अपनों पर नहीं करते और लाठियां नहीं भांजती. 

सठियाये लोग इस सरकार को चला रहे है. प्रधानमंत्री भी महज कठपुतली बने है, रिमोट कंट्रोल जिसके हाथ में है वो विशुद्ध राजनीति कर रहा है. इमरजेंसी तो हमने नहीं देखा, छोटे थे पर जितना पढ़ा, देखा और जाना है इंदिरा गाँधी भी शरमा रही होगी कि उनकी पार्टी कि रसातल में पहुच गयी है.शर्म आनी चाहिए इस नपुंसक सरकार को. पाप का घड़ा भरेगा तो छलकेगा भी और फूटेगा भी.
धर्मेन्द्र केशरी



Monday, May 9, 2011

गोली-गोली पर लिखा है गोलीबाजों का नाम


आज प्रवचन करने का मूड है। लेकिन मैं बाबाओं जसा प्रवचन नहीं करने वाला, इसलिए न तो हाथ जोड़ने की जरूरत है और न ही आंख बंद कर ध्यान लगाने की। ओके, प्रवचन स्टार्ट। जितने भी यूनिवर्सल ट्रथ यानी सार्वभौमक सत्य हैं उन्हें ऐसे ही सार्वभौमिक नहीं कहा जाता। उसके पीछे छिपी है सच्चाई। उन्हीं में सें एक है जसी करनी वैसी भरनी। जो बोया है काटना भी वही पड़ता है यानी बबूल के पेड़ पर आम लगने से रहे। किस फिल्मी हीरो बाबा ने कहा था ये तो याद नहीं पर जो कहा था वो जरूर याद है कि किसी न किसी बुलेट पर मारने वाले का भी नाम लिखा ही होता है। क्या सॉलिड ज्ञान है। सच है।

लादेन चच्चा के अंत ने एक बार फिर ये साबित कर ही दिया कि गोली मारने वाले को भी एक दिल गोली ही मिलती है। जहां चच्चा छिपे थे वहां तो अमेरिका 9/11 स्टाइल में विमान घुसाने की ही सोच रहा था, पर चच्चा की भी किस्मत में थी बुलेट ही। अब सोचता हूं कि ये ज्ञान पहले बांटता तो शायद उन तक भी पहुंच जाता और वो मान लेते (मजाक कर रहा हूं..अगर चच्चा को पता चलता कि ये ज्ञानवाणी उनके लिए है तो मुङो भी समय से पहले ही लंबलेट कर देते), पर ऊपर जाकर उन्हें प्रवचन सुनाने का फिलहाल मेरा कोई इरादा नहीं। वैसे सैम अंकल को भी सुधरने की जरूरत है। हां तो ज्ञान की बात ये कि कुछ भी करने से पहले ये सोच जरूर लिया जाए कि आज नहीं तो कल उसका भी हश्र कुछ वैसा ही होने वाला है, जसे वो गुल खिला रहा है। 

हमारे यहां भी लादेनों की कमी नहीं है। वीरप्पन दादा जंगल के टारजन थे। पर क्या करें, दांत दर्द की दवा जंगल में मिलने से रही। बहुत रेकी की थी उसने भी लोगों के मारने के लिए, पर एक दिन दांत का इलाज कराने निकले वीरप्पन दादा की रेकी पुलिसवालों ने ऐसे की कि सीधे नरक के स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के पास वो इलाज करने निकल गए। जिस गोली से वो बेकसूरों का कत्ल किया करता था, वैसी ही गोली उसके भी सीने में जज्ब हो गई। चित्रकूट में ददुआ जी भी कुछ ऐसे भी करामात दिखा रहे थे। दशकों बंदूक की दहशत के नीचे लोगों को जीने के लिए मजबूर कर रखा था।

उसे ग्रामीणों का मसीहा भी कहा जाता था, पर ऊपर वाला, जो सब का मसीहा है, उसकी नजर में भी ये ठीक नहीं था और एक दिन सरकारी गोली उसे भी निगल गई। ना जी, न ही ये क्राइम स्टोरी है और न ही क्राइम पेट्रोल के अगले एपिसोड की झलक। ये तो एक रिमाइंडर है, उन लोगों के लिए, जो गोली और बंदूक के दम पर राज करने की सोचते हैं।
थोड़ा और इतिहास बांचा जाए। हिटलर को अपने खून पर नाज था और अपने इसी भ्रम की वजह से उसने न जाने कितनों निर्दोषों को मौत की नीद सुला दिया, पर उसे भी अपने किए का हिसाब देना पड़ा। फूलन देवी ने मजबूरी में हथियार उठाया और खून की होली खेली। बाद में वो राजनीति में आईं, लेकिन गोली का जवाब गोली से ही मिला। किसने मारा क्यों मारा ये मुद्दा नहीं, बात कुदरत के इंसाफ और इन सार्वभौमिक सत्यों की है। लादेन चच्चा की वजह से ये चैप्टर खोला है, पर इतने गोलीबाजों के नाम हैं कि एक छोटे लेख में लिखा नहीं जा सकता। 

आप भी याद कीजिए अपने आसपास के कुछ वैसे महानुभावों को और उनका हश्र देखेंगे तो अंत गोली से ही लिखी होगी या उससे भी बुरा। अब आप कहेंगे कि बाबा (वैसे आई एम स्मार्ट डूड) ये जो इंडिया के घपलबाजे, घोटालेबाज हैं, उनका भी कुछ होगा या नहीं? तो बच्चा..इनका तो और भी बुरा हाल होने वाला है। कोई गोली मारे न मारे, पर इनके कौन-कौन से अंग सड़ेंगे, बताऊंगा तो आपका खाना खराब हो जाएगा। 

वैसे इस प्रवचन के पीछे आशय सिर्फ इनके कर्मो के फल का नहीं है, बल्कि हर किसी को एक बार सोचने का बहाना दे रहा हूं। झांककर देखा जाए कि हमने ..जसी करनी वैसी भरनी वाला कितना और कैसा काम किया है। फिर जो किया है, उसका फल तो वैसा ही मिलने वाला है। खर, अभी ज्ञान गंगा यहीं बांध रहा हूं, फिर कभी ऐसे ही प्रवचन करने जरूर आऊंगा।
धर्मेद्र केशरी



..दुम कभी सीधी नहीं हो सकती


शाहिद अफरीदी का बहुत-बहुत शुक्रिया। आप जसे भाई साहब हैं जो पुराने कहावतों को जिंदा रखे हुए हैं। उनका सम्मान करते हैं। नहीं तो गिरगिटों और उनको को भला कौन याद करता। भाई, पहले ही क्लियर कर दूं कि मैंने किसी को कुछ कहा नहीं है, कोई गाली-वाली नहीं दे रहा। मैं तो कुछ पुरानी कहावतों को ही दोहरा रहा हूं। गिरगिट का रंग बदलना और उसकी दुम सीधी न होना, दोनों शाहिद अफरीदी भाईजान पर सटीक बैठती है। 

सेमीफाइनल की हार के बाद बहुत बौखलाए हुए हैं अफरीदी भाई। बौखलाएं भी क्यों.. हारे ही ऐसी टीम से हैं, जिस देश से कभी जीत नही पाए। गरम लोहे की छड़ को हाथों में लेने का दर्द तो समझा ही जा सकता है। फिलहाल अफरीदी के नाश्ते और सब्जियों का चौकस जुगाड़ हो गया है। असल में उन पर अंडे, टमाटर और सड़े आलू बेतहाशा पड़े, जिसमें से अच्छा माल छांटकर उने अपने घर में रख लिया और महीनों का बंदोबस्त हो गया। वैसे भी हार के बाद उनका खाता बंद होने वाला है, ऐसे में उनकी जनता ने आलू, प्याज, अंडे फेंककर..मतलब भेजकर अपना प्यार जताया है। 

खर मुद्दे की बात पर आते हैं। उनके बयानों का क्या किया जाए। पहले तो भाई ने कहा कि हम हिंदुस्तानियों से इतनी नफरत क्यों करते हैं..चलो भाई ने एक बार फिर बता दिया कि वो हमसे नफरत करते हैं। रजिस्टर्ड। फिर वो अपने घर से बाहर निकले। सोचा फूल मिलेंगे, पर पड़ गए पत्थर। अब करें तो क्या करें। जो बोला था उसे वापस तो लेना ही था, तो भई उन्होंने अपने घर के सामने वाली सड़क से ही लिया यू टर्न और वापस चले आए। वैसे भी ये लोग सिर्फ यू टर्न लेने में ही माहिर हैं। कितनी बार यू टर्न मारा होगा, अब तो याद भी नहीं आता। फिर क्या था, बोली भी बदली और खुद को बताने लगे पिटे तीस मार खां। अफरीदी भी कम नहीं, अपनी बड़ाई उन्हें खुद करनी पड़ रही है। खर, जसी उनकी आत्मा कहे वो करें, हमसे क्या। 

आप सोच रहे होंगे कि इतने दिनों बाद मुङो शाहिद भइए की याद क्यों आ रही है। दरअसल, एक रात मैं जब ऑफिस से घर जा रहा था तो अपने गली के उसको एक गिरगिट से बतियाते देखा। रात को गिरगिट और उसे साथ देखकर मैं ठिठक गया। कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा। दोनों शाहिद साहब की चर्चा कर रहे थे। गिरगिट बड़ा खुश, पर वो बेहद खफा था उन पर। गिरगिट इसलिए खुश था, क्योंकि अफरीदी ने उनकी लाज रख ली थी। 

कहावत को चरितार्थ किया था, अपना रंग बदलकर। सफल तो उन्होंने दुम वाली कहावत को भी किया था, पर फिर भी भौं भौं यूनियन नाराज थी। गिरगिट तो वहां से शाहिद का गुणगान करते हुए चला गया, पर उसकी आंखों में दर्द उभर आया। बड़ा भावुक हूं मैं भी। वैसे तो उनको देखकर ही मेरी घिग्घी बंध जाती है, लेकिन उसे दुखी देखकर उसके पास जाने की हिम्मत कर बैठा। ऊपर से चर्चा थी शाहिद अफरीदी कि, मैं कहां पीछे रहता पूछ ही बैठा- अरे वो गया अपने घर तुम क्यों परेशान होते हो और उसने तो तुम्हारा नाम ही ऊंचा किया है। 
इस पर वो बोला- क्या खाक नाम ऊंचा किया है..लोग उसे भारत विरोधी के रूप में जानते थे। आज तक उसने यहां की तौहीन ही की है। ऐसा लगता है कि जसा बंदा क्रिकेटर नहीं, आईएसआई का मुलाजिम हो। जितनी बार भी मुंह खोला कड़वाहट ही घोली है। उससे उम्मीद भी यही होने लगी थी, लेकिन पहली बार कुछ अच्छा बोला था, लेकिन फिर आ गया अपनी औकात में। 

हमारी बिरादरी बड़ी खुश थी। खुशी इस बात कि थी कि अब शायद ये कहा जाए कि .. दुम भी सीधी हो सकती है, पर उसने तो बेड़ा गर्क कर दिया। इमेज सुधारने का मौका ही गंवा दिया..फिर अब सीधी हो भी जाए तो लोग यकीन नहीं करने वाले और तुम भी निकल लो अभी नहीं तो भूल जाऊंगा कि मेरा हाल चाल लेने निकले थे। मैं चुपताप गिरगिट और दुम के बारे में सोचते हुए वहां से खिसक लिया।
धर्मेद्र केशरी


Tuesday, April 5, 2011

कुत्ता खाने को मजबूर इंसान

2 अप्रैल 2011 का दिन हमेशा याद रखा जाएगा। इस दिन हमने इतिहास जो दोहराया है। श्रीलंका का मात देकर टीम इंडिया दूसरी बार वर्ल्ड चैंपियन जो बनी है, पर यही दिन मुङो किसी और घटना के लिए याद रहेगी। फाइनल मैच था और मेरी ऑफिस से छुट्टी। जाहिर सी बात है मैच तो देखना ही था। नोएडा में अकेला रहता हूं। 1 अप्रैल तक यही सोच रहा था कि आखिर कल (2 अप्रैल) का मैच अकेले देखना पड़ेगा? तभी रात को मेरे बड़े भाई जसे वरिष्ठ अतुल दयाल जी का फोन आया कि मैं उनके सोसायटी में आऊं और मैच का आनंद लूं। मैं निकल भी गया। पहली पारी में श्रीलंका के बल्लेबाज जुटे पड़े थे।

  टोटके के तौर पर मैं तीस ओवर के बाद सर के साथ बाजार की ओर निकल गया। लौटते समय तो बड़ी घटनाएं हुईं। पहली ये कि हमारे सामने ही किसी गाड़ी ने एक व्यक्ति को टक्कर मार दी। उसके सिर से खून बह रहा था। हम उसे अस्पताल तो नहीं पहुंचा सके, लेकिन मौके पर पुलिस को सूचना देकर हम घर की ओर निकल गए। फिर तुरंत ही एक और घटना हुई। ऐसा दर्दनाक दृश्य देखा कि 10 सेकेंड से ज्यादा देखने की हिम्मत नहीं हुई। दरअसल, सड़क के बीचोंबीच एक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति सड़े-गले कुत्ते की लाश को नोचकर खा रहा था। 

 आपके सामने ये दृश्य चलने लगे होंगे और उकताई भी रही होगी, पर ये सच है। वा एक मरे कुत्ते को अपना भोजन समझ के खा रहा था वो। इस दृश्य ने मुङो हिला दिया। थोड़ी देर तक मैं कुछ सोचने और समझने की स्थिति में नहीं था। ये कोई डिस्कवरी के मैन वर्सेज वाइल्ड का एपिसोड नहीं था, बल्कि जीने की चुनौतियों के साथ एक जीता-जागता मानसिक रूप से मजबूर इंसान था। वहां मैं सोचने के सिवा कुछ नहीं कर पाया। उस इंसान को देखकर मेरे दिमाग में फौरन सरकार के वो 45 करोड़ नजर आने लगे, जो वर्ल्ड कप में इंडिया के फाइनल में पहुंचने पर आइसीसी को टैक्स में छूट के रूप में दिए गए हैं। उस आइसीसी को, जिसे इस विश्व कप से अरबों का फायदा हुआ है। 

 आंकड़े तो स्पष्ट नहीं, पर आइसीसी का फायदा फिलहाल करीब 400 से साढ़े चार सौ करोड़ बताया जा रहा है। अगर सरकार उन्हें छूट देती तब भी उन्हें किसी प्रकार का नुकसान नहीं होने वाला था। अगर यही 45 करोड़ मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के देखभाल के लिए सरकार लगा देती तो उस मजबूर और मानसिक रूप से बीमार इंसान को सड़क के किनारे बैठकर सड़ा-गला कुत्ता खाने पर मजबूर नहीं होना पड़ता। करने को सरकार दावा कर सकती है कि वो ऐसे लोगों पर पूरा ध्यान दे रही है, पर सच्चाई बिलकुल अलग है। सफेदपोश किसी कमाऊ संस्था पर धन वर्षा कर सकते हैं तो ऐसे बीमार और लाचार लोगों पर ध्यान क्यों नहीं? 

धर्मेद्र केशरी