Thursday, December 10, 2009

कभी हो प्यार..पुकार लेना

जब आती हैं दूरिया
तब होता है एहसास

प्यार का

उन जज्बातों का

जिनसे खेल बैठे कभी

आज वो दूर हैं

कहते हैं प्यार नहीं तुमसे

है यकीं प्यार आज भी है

सोचा न था ये दिन भी आएगा

वो नजरें यूं चुराएंगे

जसे गैर हों हम

गैर तो हमसे भले

भूल से ही सही, इनायत तो करते हैं

पर हम तो दूर हैं!

फासला शहरों का होता तो सह लेते

फासला मजहब का होता तो सह लेते

फासला जन्मों का होता तो उफ न करते

पर दूरियां तो दिलों की हैं

उन्हें कैसे ये समझाऊं

के दूरियों पर सिसक रहे हैं हम

और भी करीब हो रहे हैं हम

चाहा तो कई बार उनसे ये कह दूं

कह दूं कि जिंदगी पे तुम्हारा ही हक है

पर जानता हूं

वो नहीं चाहते साथ मेरा

फिर जिंदा रहूं या उनका नाम लेके मर जाऊं

मरने से पूरी होती गर ये सजा

तो जान देने से डरता ही कौन है?

लेकिन एक अहसास बाकी है, एक उम्मीद बाकी है

के वो रूबरू होंगे हमसे

जब होंगे रूबरू तो पूछूंगा एक सवाल

सजा का हकदार बेशक हूं

पर इतना बुरा हूं?

डरता भी हूं

कहीं जज्ब रह न जाए ये सवाल

न जाने तुम पूछने का मौका दो भी या नहीं!

उन नादानियों का क्या करूं

जो आ गईं आड़े

नादानियों को क्यों कोसूं, जिम्मेदार तो में ही हूं

सच में, सजा का हकदार बेशक मैं ही हूं

यकीं दिलाऊं भी तो कैसे, पास आऊं भी तो कैसे?

जिन दरवाजों को था कभी तुमने खोला

आने दिया अंदर, दिल के मकां में

अब तो खिड़कियां भी बंद हैं

रोशनदानों पर लगी हैं कांच की मोटी परत

झांक सकता हूं, पर कुछ बयां कर नहीं सकता

नहीं चाहता वो कांच भी टूटे

शीशे सा दिल तोड़ा था तुम्हारा

कांच टूटेगा, तो इल्जाम मुझपर ही आएगा

खुश हूं तुम्हारी खुशियों को देखकर

तुम छोड़ना चाहो, तुम भूलना चाहो

रोकता कौन है!

आजाद हो

करके देख लो

दूर तो हैं ही और भी दूर करके देख लो

पर हम तो जिंदा रहेंगे

क्योंकि हर लम्हा मरना है

मौत तो पल भर की हकीकत है

नसीब वो भी नहीं

क्योंकि हर लम्हा जो मरना है

सिखा के प्यार भूल बैठे हो हमें?

भूल मेरी थी या है तुम्हारी, इंसाफ तुम ही करो

हम तो इंतजार के दामन में उम्र काट देंगे

वक्त का भी क्या अजीब खेल है

जागे तब, जब मुट्ठी में रेत है!

ये तुम्हें भी पता है, टूट कर चाहता हूं तुमको

नादानियां थीं मेरी

झुका के सिर, कबूल करता हूं

पर क्या इतना ही प्यार था?

जो यूं मुंह फेर लिया

अपना बनाने के बाद, सरे राह छोड़ दिया

न समझना कि ये शिकायत है

हंस के कबूल तुम्हारी हर खुशी

ये तो हैं इस नादान दिन के सवाल

जो हर वक्त मुझसे पूछता रहता है

जीते हैं लोग, हम भी जी लेंगे

पर जिंदा लाश देखना हो

तो दर पे आ जाना

तुम्हें तो पता था कि हमनवाज हो मेरे

फिर भी जाने दिया उस खाई में?

आज भी महसूस करता हूं तुमको

तुम्हारे नर्म हाथों को तुम्हारी मुस्कराहट को

भूल सको तो भूल जाओ, तुम्हें भूलना मेरे वश में नहीं

मुमकिन है कि वक्त बदलता रहे, नामुमकिन भुलाना तेरी याद है

जीना सिखाया तुमने, इंसां बनाया तुमने

कब मुहब्बत से खुदा बन गए

खुद भी न जान पाए

बांध सका है कोई, जो मैं बांधूंगा

पर जब भी कभी याद आए

पुकार लेना

वैसे ही पाओगे, जिस हाल में छोड़ा था

पर हां,

पुकार लेना

मरने से पहले

जीना चाहता हूं तुम्हारे साथ।

धर्मेद्र केशरी

सत्रह का गुणा-भाग

सत्रह साल ने आम आदमी को जबरदस्त प्रभावित किया है। सत्रह साल में बहुत कुछ बदल गया। दस रुपए किलो बिकने वाली दाल सौ रुपए पहुंच गई। दो रुपए किलो बिकने वाला आलू तीस रुपए पहुंच गया। दस रुपए किलो बिकने वाली चीनी चालीस रुपए पहुंच गई। चूल्हा हर आम आदमी से दूर होता जा रहा है, पर कमबख्त पेट की आग वैसी ही है। कितनी बार इसे समझाया कि ज्यादा तड़फड़ाया मत कर, पर इसकी पूजा तो करनी ही पड़ेगी। नतीजा ये कि आज हर कोई सिर्फ ‘दाल-रोटीज् कमाने की जुगत में लगा हुआ है। सच तो ये है कि सत्रह साल बाद ‘दाल-रोटीज् भी नहीं नसीब हो रही है। बहुत कुछ बदल गया इन सत्रह सालों में। इंसान बदल गया पर एक रंग नहीं बदला।

सफेदपोश आज भी वैसे ही हैं, जसे सत्रह साल पहले थे। उन्हें इस बात का मलाल ही नहीं कि उन्होंने सत्रह साल पहले चार सौ साल पुराने प्रतीक को सुनियोजित तरीके से ढहा दिया। बात आई-गई भी हो गई, क्योंकि साल दर साल लोगों को अपने पेट और भविष्य की चिंता सताती रही, बीते को भुला रहे थे, पर सत्रह साल आम आदमी पर भारी पड़ गए। जिसका निपटारा बरसों पहले हो जाना चाहिए था, वो फाइल आज खुली वो सिर्फ सियासी फायदे के लिए। सत्रह सालों ने आम आदमी के पेट पर एक बार फिर लात मार दी।

मुआं ये मुद्दा न होकर वोट कतरने वाली कैंची हो गई, जो लोग कचकचा के चला रहे हैं। खुद को जनता के सेवक कहने वाले ये लोग भूल गए कि धीरे-धीरे ये देश भुखमरी की कगार पर पहंच रहा है। वो ये भूल गए कि महंगाई अपने चरम पर है और आम आदमी इस बोझ से उबर नहीं पा रहा। लक्जरी गाड़ियों में घूमने वाले ये भूल गए कि आम आदमी का सफर महंगा हो गया है। वो अशिक्षा भूल गए, बेरोजगारी भूल गए, लोगों का दुख दर्द, सारी परेशानियां भूल गए। मंदी भूल गए, जिसकी मार न जाने कितनों पर पड़ चुकी है और वो दरबदर फिर रहे हैं।

याद आया तो सत्रह सालों बाद वही पुराना मंदिर और मस्जिद, जिन्हें जनता भूलना चाहती है। याद भी आया तो सिर्फ नसीहत बनकर, सजा का दूर-दूर तक कोई नामलेवा नहीं। इस एक मुद्दे ने सभी मुद्दों की हत्या कर दी। ऐसा मुद्दा जिसका कोई हल नहीं निकलना है, उल्टा उन्माद बढ़ेगा सो अलग, पर इन सफेदपोशों को सिर्फ त्रिशूल और चांद तारा दिखाई पड़ रहा है। सत्रह सालों में आम आदमी बौना होता गया, इस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं। आखिर क्यों हैं ये देश ऐसा कि यहां नफरत के सौदे में फायदा ढूंढ़ते हैं लोग और विकास, प्यार, संभानाएं हैं कोसो दूर।

धर्मेद्र केशरी

पाकिस्तान जी,

काफी दिनों से आपको एक पत्र लिखने का मन कर रहा था। आज मन को रोक नहीं पाया और आपके नाम पाती लिखने बैठ गया। आप सोच रहे होंगे कि आपके नाम के आगे प्रिय या कुछ और क्यों नहीं लिखा, तो आप न तो प्रिय कहलाने के लायक हैं और न ही दोस्त। आप ही बताइए क्या करता, झूठी दोस्ती तो मैं निभाने से रहा। आपके घर में इन दिनों रोज बम ब्लास्ट हो रहे हैं। हम कुछ नहीं कहने वाले आपका निजी मामला है।



आप चाहें तो अपनी जनता को खुश रखें और आप चाहें तो उनकी बलि चढ़ाते रहें। ये आप पर निर्भर करता है कि शांति चाहते हैं या बेगुनाहों की मौत। आपने दुश्मनी किस बात पर ठान रखी है। क्या ये सार्वभौमिक सत्य आपकी समझ में नहीं आता कि इस युग में क्या युगो-युगांतर तक हिंदुस्तान का बाल भी बांका नहीं कर सकते हैं। हां, अपनी ओछी हरकतों से परेशान जरूर कर सकते हैं, जसा कि मुंबई हमले के दौरान देखने को मिला।



आपकी आत्मा जानती है कि मुंबई के गुनहगार कौन हैं और कौन है असली अपराधी, फिर भी आप आंखें मूंदें बैठे हैं। न ही चैन से जीते हैं और न ही चैन से जीते देखना चाहते हैं। जरा आंखें खोलिए, बिना समस्या के समस्या पैदा करने के बजाय अपने देश की प्रगति पर ध्यान दें तो बेहतर है। बहुत कुछ है करने को आतंकवाद फैलाने के सिवा। नाम पाकिस्तान हरकतें नापाक। दुनिया भर में तमाम समस्याएं हैं। कुदरत को बचाने पर ध्यान दीजिए, मानवता का साथ दीजिए, दुनिया में अपने देश का झंडा बुलंद कीजिए।



हमारे यहां कहावत है कि जसी करनी वैसी भरनी। शायद आपने ये कहावत नहीं सुनी, सुनी भी है तो नजरअंदाज करना आपके खून में है, इसलिए अपने घर में मची मार-काट को भी आप खुली आंखों से नहीं देख पा रहे हैं। आंखें खोलिए, कहीं ऐसा न हो कि आपकी इतनी मट्टी पलीद हो जाए कि कहीं मुंह दिखाने के काबिल न रहें। हम तो गांधी जी के रास्ते पर चल रहें हैं, इसलिए अभी चुप हैं। यही कहना है कि चंद्रशेखर आजाद की याद न दिलाएं। आप अपनी हरकतों से बाज नहीं आएंगे।



धर्य की भी एक सीमा होती है। अब उस सीमा को न लांघें तो आपके लिए अच्छा है। बिगड़े अगर सुधरता नहीं है तो यहां सुधारने वाले बहुतायत हैं। और क्या कहूं फिलहाल यही चाहता हूं कि अगली बार जब आपको पत्र लिखूं तो खुशी-खुशी पाकिस्तान के आगे प्रिय या दोस्त जरूर लगाऊं। बाकी आपकी मर्जी।

धर्मेद्र केशरी

Monday, November 16, 2009

प्रोफाइल के फेर में फंसी मीडिया

इस बार मैं अपने गृहनगर इलाहाबाद से कुछ सवालों को लेकर लौटा, कुछ ऐसे सवाल, जिनका जवाब जानते हुए भी मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा। जब भी घर जाता हूं, मीडिया में होने की वजह से लोग मीडिया के बारे में कुछ न कुछ चर्चा जरूर करते हैं। मेरा एक दोस्त है, वो इस बार एक सवाल पर अड़ गया। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले ही एक ग्रामीण महिला को उसके ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला था। बात न थाने तक पहुंची और न ही उसके आगे, क्योंकि उसके मुताबिक सबकुछ ‘मैनेजज् कर लिया गया था। महिला साधारण घर की थी। ये पहला वाकया नहीं था, बल्कि और भी कई ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं। वो चाहता था कि मैं इस मुद्दे पर कुछ करूं। पर मैं उसके लिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया।
वो इसलिए कि इस व्यक्तिगत मुद्दे पर तो मैं लड़ सकता था, पर न जाने कितनी ऐसी घटनाएं लगातार होती रही हैं और होती भी रहेंगी और ये मेरे सामथ्र्य से बाहर होगा कि मैं वहां भी अपनी जिम्मेदारी निभा सकूं। वो जिद करता रहा और मैं उसे टालता रहा। आखिरकार उसने पूछा कि उस ग्रामीण महिला को इंसाफ क्यों नहीं मिल सकता? क्या करती है तुम्हारी मीडिया ऐसी घटनाओं पर। किसी रईस के घर में ऐसी घटना होती, क्या फिर भी तुम लोग आवाज नहीं उठाते?

जवाब उसके सवाल में ही था, फिर भी मैं चुप रहा। जवाब भी देता तो क्या कि हमारी मीडिया भी खबरों की परख करती है। टारगेट व्यूवर या रीडर घटना से ज्यादा मायने रखता है। अगर वो ग्रामीण महिला न होकर किसी रसूखवाले के परिवार की सदस्य होती तो चैनलों और कैमरों का जमावड़ा लग जाता। कई चैनल तो उसे इंसाफ दिलाकर ही सांस लेते और तब तक दिखाते, जब तक सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। मैं अपने दोस्त को ये बात कैसे समझाऊं कि जिस मीडिया को वो लोकतंत्र का चौथा खंभा मानता है, वो भी टीआरपी के फेर में फंसी है।

कैसे समझाऊं कि वो ग्रामीण महिला चैनलों की उपभोक्ता नहीं थी। उसे तो ये भी नहीं पता होगा कि समाचार चैनल या अखबार क्या होते हैं। अगर वो महिला खबरिया चैनल की उपभोक्ता होती तो शायद उसकी मौत के लिए जिम्मेदार लोगों को सलाखों के पीछे करने की मुहिम चलती और लोग उसके लिए भी इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलाते। देश में चंनिंदा मुद्दों को ही मीडिया घेरती है। मनु शर्मा के पैरोल का मुद्दा, निठारी कांड, आरुषि मर्डर पर कुछ भी होता है तो ब्रेकिंग न्यूज चलते हैं और कई पन्ने समर्पित कर दिए जाते हैं। गलत तो गलत होता है और हम यहां अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं, पर क्या सच में हम ईमानदारी से अपने सरोकारों पर खरा उतरते हैं? इन मुद्दों की खास बात ये है कि इनका संबंध धनाढ्य परिवारों से है।

देश में ऐसी तमाम घटनाएं होती हैं, पर मीडिया उन्हें क्यों पचा ले जाती है, क्योंकि वो ‘लो प्रोफाइलज् होती हैं। ये सच है कि ये बड़ी घटनाएं हैं, जिनका समाज पर असर पड़ता है, पर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि अगर सच्चाई और इंसाफ की बात ही है तो हम उस ग्रामीण महिला को न्याय दिलाने के लिए मुहिम चला सकते थे। उस खबर का समाजिक संदेश तो और भी दूरगामी होता, क्योंकि हाइ प्रोफाइल मामलों में एक बार पैसों के बल पर खिलवाड़ भी हो सकता है, पर ग्रामीण महिला को मिला इंसाफ कई घरों को सुधार सकता था। लोग किसी को जलाने और जान से मारने से डरते, क्योंकि गांवों में शहरों से ज्यादा लोग कानून के डंडे से डरते हैं।

ये सामाजिक संदेश भी होता और लोग मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल भी नहीं उठाते। मीडिया में लोगों का यकीन बहुत ज्यादा है, उन्हें विश्वास है कि मीडिया आम लोगों के हितों के लिए हमेशा आगे आती रही है, पर हम दिलचस्प और बड़ी खबरों के चक्कर में कहीं न कहीं अपने ट्रैक से उतरते जा रहे हैं। कृषि प्रधान देश हिंदुस्तान में किसानों की समस्याएं बहुत ज्यादा हैं, पर विडंबना है कि बिना किसी किसान के आत्महत्या किए या कोई बड़ा बवाल हुए उन पर ध्यान दिया जाता हो। अगर ध्यान भी दिया जाता है तो वो चंद बुलेटिन और कुछ लेखों तक ही सिमट जाता है, कोई इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए आगे नहीं आता।

देश में कितनी कलावती होंगी, जिनके बच्चे भूख से तड़पकर कई रातें गुजारते होंगे, पर राहुल गांधी के कलावती जिक्र के बाद ही उसकी गरीबी भी लोगों को दिखी। मैं अपने उस दोस्त को इन सच्चाइयों से कैसे रूबरू कराता, जो मेरे मन को भी सालते हैं। हम तो अभी तिनके हैं, पर मैं अपने उस दोस्त के सवाल का क्या जवाब दूं, ये मैं अपने आदरणीय वरिष्ठों से पूछना चाहता हूं। उसका सवाल अपने मीडियाकर्मी दोस्तों से करना चाहता हूं कि मुङो उसके सवाल का क्या जवाब देना चाहिए था।

धर्मेद्र केशरी

Saturday, October 24, 2009

देशद्रोही

देशद्रोही की परिभाषा क्या होती है। जो देश के हित के खिलाफ हो। जो देशवासियों के दिलोदिगमाग पर विपरीत असर डाले और जिसकी वजह से देश की संस्कृति और अस्मिता पर खतरा पैदा हो। जरूरी नहीं कि सिर्फ आतंकवाद फैलाकर या हिंसा का सहारा लेने वालों को देशद्रोही समझा जाए। वो लोग भी देशद्राहियों की श्रेणी में आते हैं, जो कानून की आड़ में, मनोरंजन के नाम पर देश की अस्मिता को ठेस पहुंचाते हैं। मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाले कार्यक्रम, जिनमें अश्लीलता कूट-कूट कर भरी हो, भारतीय सभ्यता के हिसाब से वो भी देशद्रोह ही है।

इन दिनों रियलिटी कार्यक्रमों का बोलबाला है। बदलाव की इस बयार का खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए, पर चैनल मनोरंजन के नाम पर अपना विश्वास खोते जा रहे हैं। पिछले दिनों अमेरिकन कांसेप्ट के हिंदी संस्करण ‘सच का सामनाज् का विरोध इसलिए हुआ, क्योंकि शो को रोचक बनाने के लिए ऐसे सवालों की बौछार की जा रही थी, जो दर्शकों के हित में नहीं था, समाज के हित में नहीं था। इन दिनों ‘बिग बॉसज् भी उसी ढर्रे पर चल रहा है। टीआरपी और कमाई के चक्कर में सामाजिकता और संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। कमाल खान के अलावा शो के अन्य प्रतियोगियों के कई क्रिया कलाप लोगों के गले नहीं उतर रहे हैं। आखिर कौन है देशद्रोही, क्यों दे रहे हैं लोग इन देशद्रोहियों को तवज्जो। नजर डालते हैं कुछ ऐसे ही किरदारों पर।

देशद्रोही नंबर 1-कमाल खान
सच ही कहते हैं लोग कि रुपहले पर्दे की दुनिया सच से कोसों दूर है। कमाल खान उन्हीं लोगों में हैं। पिछले साल इनकी एक फिल्म आई थी ‘देशद्रोहीज्। फिल्म में कमाल साहब ने देशप्रेम और प्यार का पाठ पढ़ाया था। पाठ कम पढ़ाया था, मराठी और गैर मराठी विवाद के सहारे लोकप्रियता के सही समय पर चोट की थी। गरम लोहे पर हथौड़ा मार रहे थे कमाल खान। लोगों की नजर में कमाल सच्चे देशभक्त बनते दिखाई पड़े थे, पर सच्चाई कुछ और ही है। दुनिया को प्यार और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले कमाल खान का असली रूप सभी ने देख लिया है। अड़ियल, बिगड़ैल, घमंडी और भी न जाने क्या-क्या। ये हमारी राय नहीं, बल्कि कमाल के करतूतों की सच्चाई है। ‘बिग बॉसज् में अपनी ब्रांडिंग के लिए कमाल खान ने मानवीयता को भी ताक पर रख दिया। सभी को पता है कि उन्हें गालियां आती हैं, लेकिन कमाल ने अपनी इस विशेषता को पूरे देश के सामने दिखाया है कि उन्हें कितनी गंदी-गंदी गालियां आती हैं। देशप्रेम का पाठ पढ़ाने वाला ये शख्स भूल गया कि उनके निंदनीय कारनामे देशद्रोह की श्रेणी में आते हैं। अब किस मुंह से ये देशप्रेम की कहानी सुनाएंगे और लोगों को इन पर क्यों यकीन करना चाहिए। कमाल ये भूल गए कि वो अप्रत्यक्ष रूप से सिर्फ अपने बारे में ही नहीं, कइयों की विश्वसनीयता और शख्सियत पर सवाल उठा रहे हैं।

देशद्रोही नंबर 2- कलर्स चैनल
इस चैनल को शुरू हुए एक साल का समय बीता है, लेकिन कम समय में ही ये दर्शकों का चहेता चैनल बन बैठा है। इसकी वजह भी है, इस चैनल पर कई ऐसे सीरियलों का प्रसारण होता है, जो सामाजिक दृष्टि से काबिलेतारीफ है। ‘उतरनज्,‘न आना इस देश लाडोज्,‘बालिका वधूज्,‘भाग्यविधाताज् कुछ ऐसे धारावाहिक हैं, जो आडंबरों और कुरीतियों पर चोट करते हैं। अपने इस प्रयास से चैनल ने लोगों का दिल जीता है, इसमें कोई शक नहीं, पर जिस तरह से ‘बिग बॉस 3ज् में कमाल के आपत्तिजनक बर्ताव का खुलेआम प्रसारण किया गया है, वो चैनल की विश्वसनीयता और इसकी नीयत को भी कठघरे में खड़ा करता है। जब ‘बालिका वधूज् या ‘न आना इस देश लाडोज् का प्रसारण होता है तो ये टीवी की पट्टी पर लिखते रहते हैं कि वो नारियों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों का पुरजोर विरोध करते हैं। यहां उनकी पीठ ठोंकनी होगी कि वो स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों का खुलासा कर रहे हैं, पर कमाल खान की गंदी गालियों के प्रसारण को क्या कहा जाए। क्या ये इनकी दोहरी नीति का प्रमाण नहीं है! महज टीआरपी के चक्कर में संस्कृति का खिलवाड़ नहीं हो रहा है। जसा कि सभी जानते हैं कि ये लाइव शो नहीं है, लिहाजा उन गालियों को बीप करने के बजाय हटाया जा सकता था, लेकिन नहीं टीआरपी की अंधी दौड़ में चैनल वालों ने इसे बेचने की पूरी कोशिश की है। चैनल वाले ये खुद देखें कि गालियों को बीप करने के बाद भी वो समझ में आती हैं या नहीं या गंदे इशारों को लोग समझ रहे हैं कि नहीं। चैनल के कर्ता-धर्ताओं को ये अच्छी तरह पता है कि ये गलत है, पर कमाई की पट्टी ने आंखें बंद कर रखीं हैं।

देशद्रोही नंबर 3- बख्तयार ईरानी
वैसे तो बख्तयार ईरानी घर के सदस्यों के लिए लड़ते दिखाई देते हैं। वो न्याय का साथ देना चाहते हैं, पर जब वो तनाज से बात कर रहे होते हैं तो वो क्या संदेश देना चाहते हैं। तब वो शायद ये भूल जाते हैं कि उनके परिवार के साथ-साथ पूरा देश उन्हें देख रहा है। उन गालियों को भी और भद्दे इशारों को भी। सभी को पता है कि गुस्से में हर कोई गालियां देता है, पर सरेआम गालियां देना मानवता और शिष्टता की श्रेणी में नही आता है।

द्रेशद्रोही नंबर 4- बिंदू दारा सिंह
ये भी पूरे उस्ताद हैं। गालियां देने में माहिर। पर एक बात समझ में नहीं आती कि बिंदू महाशय अपने घर में भी गंदी गालियों की बौछार करते हैं। अगर नहीं तो वो बिग बॉस में अपनी इस अदा का प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं। उन्हें तो ये समझना चाहिए कि बिग बॉस सिर्फ उनका घर नहीं है या खेल नहीं है, इसके जरिए करोड़ों लोग उन्हें देख रहे हैं। क्या असर पड़ेगा उन पर।

देशद्रोही नंबर -सरकार
सूचना प्रसारण भी ऐसे हालात के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार अगर चाहे तो ऐसे कार्यक्रमों पर लगाम कसी जा सकती है। पिछले काफी समय से मनोरंजन चैनलों के लिए निगरानी समिति बनाने की बात की जा रही है, पर सरकार यहां भी अपना स्वार्थ देख रही है। वो मनोरंजन चैनलों पर बह रही अश्लीलता को दरकिनार कर मीडिया को अपने हाथों में लेने के लिए ज्यादा प्रयासरत रहती है। सरकार को भी ऐसे कार्यक्रमों पर अंकुश लगाना चाहिए।


देशद्रोही नंबर 6- मीडिया
मीडिया भी संस्कृति पर चोट करने के लिए जिम्मेदार है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि लोगों को मीडिया पर विश्वास है। प्रेस पर यकीन है कि बिना डरे हम लोग सच्चाई लोगों तक पहुंचाएं, पर हो रहा है इसका उल्टा। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। टीआरपी की अंधी दौड़ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बेलगाम दौड़ता जा रहा है। जो दिखता है वो बिकता है के मिथक पर टीवी चैनल वाले भी देश की अखंडता पर कम वार नहीं कर रहे हैं। बिग बॉस में प्रसारण के बाद टीवी चैनलों को तो जसे जबरदस्त मसाला मिल गया। वो कमाल खान के बर्ताव को इस तरीके दिखाते रहे, जसे वो नेशनल हीरो हों। क्या ये कमाल को हाइप करना नहीं हुआ। कमाल तो बदनामी से नाम कमाने आए ही थे और वो अपने इस काम में सफल भी हुए।

देशद्रोही नंबर 7- दर्शक
कहते हैं कि अत्याचार करने वाले से अत्याचार सहने वाला ज्यादा दोषी होता है। आखिर दर्शक भी तो ऐसे कार्यक्रमों को मौन सहमति दे रहे हैं। अगर दर्शक एकजुट हो जाएं और विरोध के स्वर तेज करें तो चैनलों की क्या मजाल जो वो अश्लीलता परोसें। ये दर्शकों की सहमति से ही हो रहा है, जो उनके ड्राइंग रूम में उनके परिवार, उनके बच्चों के सामने अश्लील गालियां चल रही हैं।

हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और देश प्रगतिशील से विकसित की श्रेणी में आने को बेताब है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम इसकी संस्कृति को ही भुला बैठें। हिंदुस्तान को पूरी दुनिया इसलिए सलाम करती है, क्योंकि यहां की परंपरा अन्य देशों से बिलकुल अलग है। यहां के लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण भी भारतीय मूल्यों के हिसाब से ही करते हैं, इसलिए जब कोई यहां की विरासत को ठेस पहुंचाने का प्रयास करता है तो उसे देशद्रोह की संज्ञा दी जाती है।

दलित की झोपड़ी में

एक दिन मेरा भी मन हुआ कि नेता बनकर देखता हूं। नेता बनना कोई मुश्किल काम तो है नहीं। झूठ बोलने में महारत हासिल होनी चाहिए। झूठ तो मैं बचपन से ही बोलता आ रहा हूं। स्कूल,कॉलेज हर जगह कइयों बार झूठ बोलकर अपना काम साधा है। नेतागिरी के इस अर्हता को मैं अच्छे से पूरा कर सकता हूं।


लिहाजा सफेद खद्दर के कपड़ों को सिलवाकर दूसरे दिन ही निकल पड़ा अपने मुहल्ले में। चचा चूरन ने कभी मुङो इस भेष में देखा नहीं था। उन्हें लगा मैं किसी फैंसी ड्रेस कम्पटीशन में जा रहा हूं या ड्रामे में नेता-वेता का रोल कर रहा हूं, पर जब उन्होंन सच्चाई जानी तो दंग रह गए। मेरा पीठ ठोंकते हुए भ्गवान से और भी झूठ बुलवाने की दुआ की।


खर, चचा चूरन से फारिग होकर आगे ही बढ़ा था कि सूरन सिंह मिल गए। उन्होंने मेरे रंग-ढंग का प्रयोजन समझा तो समझाने बैठ गए। असल में वो एक हारे और दुत्कारे हुए नेता रह चुके थे। अक्सर असफल लोग ही सफलता का मूल मंत्र दिया करते हैं, जसे टीवी पर फ्लॉप क्रिकेटर, म्यूजिक रियलिटी शो में फ्लॉप सिंगर और भी न जाने क्या-क्या।


खर, मुङो गुरु के रूप में सूरन सिंह की अमृतवाणी सुनने को मिल रही थीं। वही घिसे-पिटे पुराने राग सुनकर बोर हो रहा था। घोटाला, दलाली, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, झूठ में तो मैं अर्जुन की तरह पारंग त हूं ही। चचा से कहा कुछ नया आइडिया तो। चचा ने पास के दलित बस्ती में रात बिताने चले जाओ। आजकल लोग यही करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। मुङो ये बात बड़ी मार्के की लगी। मैं भी पहुंच गया रात बिताने दलित की झोपड़ी में।


मैंने टीवी पर एक महाशय को देखा था कि उन्होंने दलित के घर के बाहर मेज पर बैठकर खाना तो खाया, पर वो खाना उसके चूल्हे से नहीं था, बल्कि बाहर से मंगवाया था। नेता बनना था, इसलिए मन मारकर चल पड़ा उसी राह। हां, अपने साथ एक खाना बनाने वाला और भाड़े के कुछ टट्ट भी ले लिए। पहुंच गया एक झोपड़ी के बाहर, बोला- रात बिताने आया हूं। दरवाजा खोलने वाली महिला ने ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा और बोली तुङो शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए। तेरा घर नहीं है, जो तू यहां अपनी रात काटेगा।


मैं सन्न, सोचा कुछ हो रहा कुछ और। काफी मनाने पर वो महिला मान गई। मैंने भी साथ गए खानसामे को खाना बनाने के लिए कह दिया। इतना सुनते ही उस महिला का पारा चढ़ गया और वो ढोंगी, राक्षस का उपाधि देते हुए बेलनों से पिल पड़ी। अजी दलित के घर में रात बिताने को कौन कहे, सिर पर पैर रखकर भागे कि कहीं नेता बनने से पहले ही जूतिया न दिए जाएं।
धर्मेद्र केशरी

Wednesday, October 7, 2009

..तुझको चलना होगा

कहते हैं कि दिल से और मेहनत से किया गया कोई भी काम जाया नहीं होता है। देर से ही सही, लेकिन मेहनत का फल जरूर मिलता है। मन्ना डे दशकों से लोगों को सुरीले गीतों का गुलदस्ता देते आए हैं, लेकिन अब जाकर उनकी कला का आंकलन हुआ है। सुरीले गायक मन्ना डे को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा जा रहा है।

वैसे इस कलाकार को सम्मान और पुरस्कारों का कोई मोह नहीं रहा है, पर ये भी सच है कि ये पुरस्कार उन्हें कहीं पहले मिल जाना चाहिए था। भारतीय फिल्म संगीत में दिए गए उनके योगदान को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये सम्मान देने में देरी हुई है।
1 मई 1919 को पूरण चंद्र और महामाया के यहां पश्चिम बंगाल में जन्में प्रबोध चंद्र डे संगीत की दुनिया में इतना बड़ा मुकाम हासिल करेंगे, ये किसी ने सोचा भी नहीं था। मन्ना डे इनके घर का नाम था और यही नाम बाद में मील का पत्थर बन गया।

मन्ना डे का नाम हिंदी और बंगाली गायकों में शान से लिया जाता है। अपने गायन करियर में करीब 3500 गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज से सजाया है। इनमें से कई गाने उन्होंने किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ भी गाया है।
मन्ना डे का जन्म कलकत्ता में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी उनकी वहीं हुई। स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दिनों में मन्ना डे अपने साथियों की फरमाइश पर अक्सर गाया करते थे। बचपन में उनकी रुचि बॉक्सिंग में थी। उनके चाचा के सी डे ने उन्हें संगीत की बारिकियों से परिचित कराया। इसके अलावा उन्हें छुटपन में ही उस्ताद दाबिर खां का संस्कार प्राप्त हुआ है। 1942 में उन्होंने मुंबई का रुख किया और कृष्णा चंद्र डे व सचिन बर्मन के साथ काम करना शुरू किया। यहीं से उनके करियर की शुरुआत हुई।

मन्ना डे के गानों की एक खास बात रही है, खास बात ये कि उन्होंने अपने गानों में शास्त्रीय गायन को हमेशा जिंदा रखा। शास्त्रीय गायन सीखने के लिए उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की दीक्षा भी ली है।
कम ही लोगों को पता है कि मन्ना डे ने फिल्म में अभिनय भी किया है। ‘रामराज्यज् फिल्म में मन्ना डे साहब ने गायन के साथ-साथ अभिनय भी किया। ‘रामराज्यज् इकलौती हिंदी फिल्म है, जो गांधी जी ने भी देखी। फिल्म ‘तमन्नाज् से उन्होंने पाश्र्व गायन में पूरी तन्मयता से कदम रखा। इसें बाद उन्होंने ‘महाकविज्,‘विक्रमादित्यज्,‘प्रभु का घरज्,‘बाल्मिकीज् और ‘गीत गोविंदज् जसी फिल्मों में अपनी आवाज दी।

उन दिनों वो साल भर में एक बार ही गाने का मौका पाते थे, क्योंकि उस दौर में फिल्में कम बना करती थीं। 50 के दशक में मन्ना डे का नाम इंडस्ट्री के बड़े गायकों में शुमार किया जाने लगा। उन दिनों राजकपूर की फिल्मों का बोलबाला था। राजकपूर के लिए अक्सर मुकेश ही गाया करते थे, पर मन्ना डे की गायन क्षमता से राज साहब भी प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने ‘श्री 420ज् और ‘मेरा नाम जोकरज् में उनसे गाना गवाया। ‘ए भाई जरा देख के चलोज् आज भी उसी शिद्दत से सुना जाता

के बैनर तले बनी फिल्म ‘बॉबीज् का ‘ना मांगूं सोना चांदीज् में भी मन्ना डे ने अपनी आवाज दी है।
मन्ना डे की सुरीली आवाज हर दौर के लोगों की पसंद बनी। उन्होंने ‘शोलेज्,‘लावारिसज्,‘सत्यम शिवम सुंदरमज्,‘क्रांतिज्,‘कर्जज्,‘सौदागरज्,‘हिंदुस्तान की कसमज्, जसी तमाम फिल्मों के गीतों को स्वर दिया। उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार पंडित भीमसेन जोशी के साथ केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूले गाकर अपनी अद्वितीय सुर साधना का परिचय दिया। मन्ना डे द्वारा गाए हिट गानों की लंबी फेहरिस्त है, जो उस जमाने में रिकार्ड तोड़ तो सुनी ही जाती थी आज के दौर में भी उतना ही हिट है। फिल्म ‘शोलेज् में किशोर कुमार के साथ गाया ‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगेज् इतना हिट हुआ कि आम लोग आज भी इस गाने को गाकर ही अपनी दोस्ती की मिसाल पेश किया करते हैं।


उन्होंने हर तरह के गानों से संगीत का गुलदस्ता सजाया है। रुमानी गीतों में मन्ना डे का अंदाज दिल की गहराइयों को छूने में कोई कसर नहीं छोड़ता। आ जा सनम मधुर चांदनी में हम, प्यार हुआ इकरार हुआ, हर तरफ अब यही अफसाने हैं, मेरे दिल में है इक बात, जहां मैं जाती हूं वहीं चले आते हो, ये रात भीगी-भीगी ये मस्त नजारे, चुनरी संभाल गोरी उड़ी-उड़ी जाए रे, ये हवा ये नदी का किनारा में वो रुमानियत महसूस की जा सकती है। क्लासिकल गीतों को गाने में तो जसे उन्हें महारथ हासिल है, रितु आए रितु जाए, छम-छम बाजे रे पायलिया, भोर आई गया अंधियारा,आयो रे कहां से घनश्याम, लागा चुनरी में दाग को याद करना सुहाता है, वहीं जानी-मानी मद्धिम लय में ऐ मेरी जोहरा जबीं, ये इश्क इश्क है, यारी है इमान मेरा, न तो कारवां की तलाश है जसी कव्वाली और महफिल के गीत भी खासे लोकप्रिय रहे हैं। कव्वाली के लिए तो उन्हें ही याद किया जाता रहा है।


फिलासफी से भरे गीत भी मन्ना डे ने खूब गाए हैं। उन गानों में जिंदगी कैसी ये पहेली हाय, चुनरिया कटती जाए रे उमरिया घटती जाए रे, क्या मार सकेगी मौत औरों के लिए जो जीता है, नदिया चले चले रे धारा, हंसने की चाह ने मुङो कितना रुलाया है, कसमें वादे प्यार वफा सब॥ प्रमुख हैं। संगीतकार आनंद जी ने जब कसमें वादे प्यार वफा गाने के लिए मन्ना डे को कहा तो उन्होंने समझा कि ये तेज गति से चलने वाला गीत होगा, लेकिन आनंद जी ने बताया कि इस गाने का टेम्पो ऐ मेरे प्यार वतन की तरह है तो वो खुश हो गए।

भक्ति गीत गाने की वजह से एक समय उनके ऊपर भक्ति गायक का ठप्पा भी लगाया गया। दादा साहब फाल्के पुरस्कार के अलावा भी उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
मन्ना डे को 1969 में फिल्म ‘मेरे हुजूरज् के लिए और 1971 में बांग्ला फिल्म ‘निशी पद्मज् के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। मध्य प्रदेश सरकार 1985 में उन्हें लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित कर चुकी है। जिंदगी के नब्बे साल पूरे कर चुके इस बेहतरीन गायक को किसी पुरस्कार से तोला नहीं जा सकता है। उनकी उपस्थिति ही हमारे लिए दो सदियों को जीवन्त और गौरवान्वित करने वाले दस्तावेज की तरह है।
धर्मेद्र केशरी

Friday, October 2, 2009

हमारी भी अरज सुनो

यही होना बाकी था। कुछ देर घर से बाहर सुकून से बिताने को मिलते थे, अब इंसाफ के तराजू में उसे भी तौल दिया गया। क्या बताऊं, पुरुष होना गुनाह हो गया है। हमारे दर्द, दुख को कोई भी सुनने वाला नहीं है। बताओ भला, ये कोई बात हुई। हर मोड़ पर धमकियां सुनने को मिलती ही हैं, मुंबई हाइकोर्ट ने एक और परेशानी बढ़ा दी। देर से घर लौटे तो कानूनी कार्यवाही होगी। हे राम, अब करें भी तो क्या। एक तो वैसे ही हर वक्त सेटेलाइट की तरह इनके संपर्क में रहते थे। क्यों,कैसे,कब,कहां,क्या कर रहे हैं, ये जानकारियां उपलब्ध करानी ही पड़ती थी, एक और बवाल।

घर में जितनी देर भी रहो मोहतरमा चैन की सांस के लेने के लिए भी ताने मारती थीं, भागकर ऑफिस आते थे, लेकिन अब तो यहां भी उनकी मर्जी चल रही है। घर से बाहर क्यों थे, बताओ। क्या बताऊं कि ये दुर्दशा ङोली नहीं जाती है। क्या बताऊं कि बाहर शेर बना रहता हूं, घर पहुंचने पर ही शक्ल बदल जाती है। घर से बाहर रहकर बीवी रूपी अटैक से बचा रहता हूं, लेकिन घर आते ही, इनके तीरों से घायल। और तो और अब बहाने भी नहीं बना सकते। बहाना बनाया कि अंदर। देर से आने का स्पष्टीकरण भी देना पड़ेगा। हे भगवान, अब पति-पत्नी का ये साथ आपसी कम कागजी ज्यादा होता जा रहा है। अभी कल को कहेंगी कि फलां त्योहार पर फलां जेवर चाहिए। बंदा काम करेगा, तभी कुछ और हासिल करके मैडम की इच्छाओं की पूर्ति करेगा। जाहिर है देर रात काम करना पड़ सकता है।

अब तो ये भी नहीं कर सकते, कोर्ट का डंडा जो चल गया है, लेकिन ये भी तय है कि उनकी मुरादों को पूरा करने के लिए आधी रात क्या, सारा दिन-पूरी रात काम करके भी आएं तो वो बुरा नहीं मानेंगी और शिकायत भी नहीं करेंगी। बातों ही बातों में तो ये जबरदस्त आइडिया निकल कर आ गया गुरु। पर ध्यान से कहीं ये प्लान भी घ्वस्त न हो जाए। अभी तक तो मोहतरमा दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की धमकियां दिया करती थीं, अब उनके हाथ एक और अस्त्र लग गया है।

भगवान ही जानते हैं शादी के बाद आवाज ही नहीं निकलती मांगूंगा क्या खाक! फिल्मों में देखा करता था कि मायके जाने की धमकियां दिया करती थीं, लेकिन अब तो मायके जाने का नाम भी नहीं लेतीं, धमकी तो दूर की बात है। उल्टा मुङो ही घर से निकालने की बात करती हैं। अब तो भगवान ही मालिक हैं हमारे चैन, अमन और सूकून का।
धर्मेद्र केशरी

Thursday, September 24, 2009

पेश है ताजा नौटंकी

कौन कहता है कि हिंदुस्तान की पुरानी परंपरा नौटंकी का पटाक्षेप हो रहा है। इस विधा का कभी समापन हो भी नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि अब नौटंकी अब दूर-दराज के गांवों में ही खेली जाती है, शहरों में भी नौटंकी खेली जा रही है और लोग जमकर लुत्फ भी उठा रहे हैं। हां, नौटंकी का स्वरूप और उसके किरदार थोड़े बदले हुए हैं।

आज हम राजनीति की नौटंकी की कतई बात नहीं करेंगे। वो इसलिए क्योंकि नेता रजिस्टर्ड नौटंकी बाज हैं और इनके नौटंकी का कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं। इस बार तो कुछ और नौटंकियों की बात की जाएगी। अगर आपसे पूछा जाए कि राजनीति में आप किसे सबसे ज्यादा नौटंकी बाज करार देंगे तो आपका जवाब क्या होगा! कौन बोला अमर सिंह! ये अमर सिंह का नाम किसने लिया। खर, मैं तो भूल ही गया था कि आज राजनीति की चर्चा नहीं। हां, कुछ स्वयंवर-वयंवर की बात करते हैं। देखा स्वयंवर के नाम से ही लगे खींसे बघारने।

राखी सावंत के नाम से ही लोग कितने खुश हो जाते हैं। अमर सिंह की तरह राखी की जुबान का भी कोई भरोसा नहीं, कब किससे पिल पड़ें और कब, क्या कर दें ये इन्हें भी नहीं पता होता है। अगर अमर सिंह राजनीति के राखी सावंत हैं तो मैडम फिल्म जगत की अमर सिंह हैं। फिर, राजनेता का नाम! हां, तो भाई बात नौटंकी की हो रही है। अब राखी सावंत से अच्छी नौटंकी कोई कर सकती है! नहीं ना। संस्कृति मंत्री को तो राखी सावंत को नौटंकी का ब्रांड अंबेसडर बनाना चाहिए।

अब उनके एक भाई भी स्वयंवर रचाने आ रहे हैं। भाई, कहने पर कहीं भड़क न जाएं। भाजपा के दिवंगत बड़े नेता के सुपुत्र हैं। अब ये नौटंकी पार्ट टू मेरा मतलब है स्वयंवर पार्ट टू में अपनी जीवन संगिनी को खोजने का काम करेंगे। हंसने वाली कौन सी बात है! शादी करना बुरी बात नहीं है और हिम्मत तो देखिए बंदा दुनिया के सामने डंके की चोट पर शादी की बात करता है। क्या हुआ, शादी नहीं सगाई होगी और बाद में टूट भी जाए, हिम्मत की तो कद्र कीजिए। अब दांत नहीं निकालना।

हां, तो बाबा स्वयंवर रचाएंगे, पर एक बात नहीं समझ में आई कि लड़कियां स्वयं-वर चुनती हैं, इसलिए इसका नाम स्वयंवर पड़ा, तो क्या ये भी स्वयं-वर चुनेंगे! इन्हें तो स्वयंवधू रचाना चाहिए। खर, हमें इससे क्या। मौका लगा तो टीआरपी बढ़ा देंगे। नौटंकी का नया मसाला लग चुका है, बस पकने भर की देर है। गुजारिश तो बस इतनी है कि इन देव और देवियों को नौटंकी का सरताज जरूर घोषित कर दिया जाए। अच्छा, नमस्ते।
धर्मेद्र केशरी

Friday, September 18, 2009

मुफ्त की सलाह सेवा

अक्सर लोगो को, महापुरुषों को कहते सुना है कि किसी को बिना मांगे मुफ्त की सलाह नहीं देनी चाहिए, पर ये दिल है कि मानता ही नहीं। दिन भर में जब तब दो-चार बंदों को पर उपदेश झाड़ न लो, चैन ही नहीं मिलता है। इतनी बार झिड़कियां खा चुका हूं, पर ये आदत भी नेताओं की तरह है, सुधरती ही नहीं।

एक बार एक बंदा बारिश में भीगता चला जा रहा था, मैंने मानवीयता के नाते बोल दिया, दोस्त भीगो मत तबीयत खराब हो जाएगी, नजला-जुकाम से परेशान होकर बिस्तर पर पड़ोगे और दवाइयों पर पैसे खर्च करोगे सो अलग। मेरा कहना ही था कि बंदा फट पड़ा- अबे, तुझसे कोई सलाह तो मांगी नहीं मैंने और तू ये सलाह दे रहा है कि बद्दुआ। तबीयत भी खराब होगी तो तुझसे या तेरे बाप से..। उसकी पूरी बात सुने बिना मैं वहां से नौ दो ग्यारह हो गया और खुद को फटकारते हुए कसम खाई कि कभी किसी के फटे में अपनी टांग नहीं अड़ाऊंगा, पर साहब फिर वही, आदत।

कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है, पर आदतें, भगवान ही मालिक हैं। घर पहुंचते वक्त रास्ते में एक भिखारी टकरा गया। उसने भगवान के नाम पर कुछ मांगा, मैंने सोचा इसे कुछ दूंगा तो जल्द ही इसकी बिरादरी में शामिल होने का नंबर मेरा भी होगा, पर कुछ न कुछ तो देना ही था। दे डाली वही, बिन मांगी सलाह। कहा- भाई कुछ काम-वाम करो, हट्टे-कट्टे होकर मांगने में शर्म नहीं आती। मेहनत की कमाई खाओगे तो नींद भी अच्छी आएगी। मेरा इतना कहना ही था कि बंदा मेरी ओर खिसियाई नजरों से देखा, जसे कह रहा हो, अबे जो मांगा वो दिया नहीं, फालतू की सलाह अपने पास ही रख।

ऐसे ही एक दिन मैं एक नेताजी के भाषण समारोह में पहुंचा। नेताजी अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में डींगे हांक रहे थे। आदत से मजबूर चुप कैसे रहता। नेताजी को नेकनीयत रखने और जनता के भलाई की सलाह दे डाली। फिलहाल तो नेताजी ने मुस्कुराकर मुङो अपने साथ वाली कुर्सी पर बिठा दिया और साथ भी चलने को कहा। सोचा था नेताजी मेरी सलाह से इतने प्रभावित हुए हैं कि उनका हृदय परिवार्तन हो गया है, पर भइए बात कुछ और थी। मेरी सलाह नेताजी को इतनी खल गई कि उन्होंने अपने मुस्तंडों से ऐसी-ऐसी जगह सिंकाई करवाई कि बयां करने के काबिल भी नहीं बचा। किसी तरह जान बचाकर वहां से भागा।

रास्ते में एक प्रेमी जोड़ा मिला। हंसते-खिलखिलाते। दिल पर चोट खाए बंदा ठहरा, लिहाजा रहा नहीं गया और उसे भी उसकी प्रेमिका से दूरी बनाकर रहने की सलाह दे डाली। उसने पिटाई तो नहीं की, पर मुंह से जितने विश्लेषण निकाल सकता था, उसमें कंजूसी नहीं बरती। फिलहाल तो मैंने ये मुफ्त की सलाह सेवा बंद करने की ठानी है, पर कब तक, मुङो खुद नहीं पता।
धर्मेद्र केशरी

Saturday, September 12, 2009

जिन्नों का चक्कर

जिन्न विन्न से बचकर ही रहना चाहिए। कब, कौन, क्या गुल खिला जाए कहा नहीं जा सकता है, पर लोग जिन्नों से बचना कहां चाहते हैं। दरअसल, बचपन में पीपल के पेड़ के पास से खासकर दोपहर को गुजरते वक्त हर बड़े हो चुके बच्चे ने ये कहानी सुनी होगी कि पीपल के पेड़ पर जिन्नों का वास होता है, जो नुकसान भी पहुंचा सकते हैं और फायदा भी। वैसे मेरे घरवाले फायदे की कहानी ज्यादा बताते रहे हैं। फिर अलादीन के जिन्न की कहानी भी तो देख रखी है। यकीन मानिए, सोते-जागते वैसे ही जिन्न की कामना करता हूं, ताकि बिगड़े काम आसानी से बन जाएं। ये तो रही मेरी बात, अब मुद्दे की बात।


जसवंत सिंह ने भी कुछ ऐसा ही सोचकर जिन्ना के जिन्न का आह्वान किया था। जिन्ना का जिन्न आया भी, लेकिन उन्हें पार्टी से बाहर कराकर ही दम लिया। जसवंत सिंह जिन्ना के जिन्न से बखूबी परिचित भी हैं। कई साल पहले जिन्ना के जिन्न ने बवाल मचवाया था। फिर भी वो जिन्ना के जिन्न को बुलाने से नहीं चूके। सिंह साहब ने सोचा जिन्ना का जिन्न उनकी मदद कर सकता है। मदद कौन सी चाहिए थी वो तो वो ही जानें, पर जसवंत सिंह अब जिन्ना के जिन्न को दोबारा नहीं बुलाना चाहेंगे।


बेचारे लौहपुरुष आज तक उस वार से बच नहीं पाए हैं। लौहपुरुष क्या, इतिहास पुरुष भी जिन्ना के जिन्न से नहीं बचे हैं। आजादी के इतने साल बाद भी जिसे भी जिन्ना के जिन्न को जगाने की कोशिश की है, वो विवादों में ही रहा है। सच-झूठ तो परे हो जाता है, विवाद की राख बचती है। वैसे जिन्नों की कमी नहीं है। राजनीति में तो अधिकतर जिन्नों ने नुकसान ही पहुंचाया है। राजीव गांधी जसे बेदाग छवि के राजनेता को बोफोर्स का जिन्न आज भी परेशान करता है। लालकृष्ण आडवाणी को जिन्ना के जिन्न ने तो पटका ही है, कंधार का जिन्न कभी पीछा ही नहीं छोड़ता।


लालू यादव कितनी भी सरपट रेल दौड़ा चुके हों, बिजनेस गुरु का खिताब हासिल कर लिया हो, पर भैंसों के चारे वाला जिन्न उनके साथ ही रहता है। तब से लेकर आज तक अंधेरे में लालू जी की परछाई ने साथ छोड़ दिया होगा, पर उस अजीब जिन्न ने उनका साथ नहीं छोड़ा है और आने वाले दिनों में छोड़ता दिख भी नहीं रहा। आडवाणी जी जब भी कुछ बोलने के लिए अपना मुंह खोलते हैं, कंधार का जिन्न पहले ही उनके सिर पर बैठा दिख जाता है। बोलने से पहले ही उनकी बात ठिठोली में ले ली जाती है। जसवंत सिंह की किताब ने ऐसा कबाड़ा किया है कि आने वाले दिनों में पार्टी के महाभारत जिन्न की भी चर्चा की जाती रहेगी।
धर्मेद्र केशरी

Friday, September 4, 2009

महाभारत का आधुनिक एपिसोड

महाभारत देखने वालों को आजकल नए महाभारत में बहुत मजा आ रहा है। बी आर चोपड़ा ने अपने धारावाहिक महाभारत को बंद कर दिया तो क्या हुआ, दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए रियल लाइफ में कई धृतराष्ट्र और दुर्योधन हैं। अब भाजपा को ही देख लीजिए। ऐसा लगता है, जसे महाभारत के आधुनिक एपिसोडों का प्रसारण हो रहा हो।


पार्टी में ऐसी घमासान मची है कि पूछिए ही मत। महाभारत में तो फिर भी ठीक था कि दुर्योधन के भाई बंधु उसका साथ देते दिख रहे थे, लेकिन इस आधुनिक महाभारत में अपने ही दर्द देते नजर आ रहे हैं। पार्टी उसूलों, सिद्धांतो से दूर निकल चुकी है। हालात ऐसे बन गए हैं कि न तो निगला जा रहा है और न ही उगला। जिन्ना का जिन्न एक बार आडवाणी के भी सिर पर आया था, खूब हाय तौबा भी मची, पर अबकी जसी हालत नहीं थी। जसवंत सिंह को तो अपनी बात कहने तक का मौका नहीं मिला।


वो बस बरबराते रहे कि हमें तो किनारे कर दिया, आडवाणी जी के सुरखाब के पर लगे थे। सच कहें तो महाभारत कम रामायण का सीन भाजपा में ज्यादा बन रहा है। ‘घर का भेदी लंका ढाएज्, विभीषण ने भले ही रामकाज को अच्छे तरीके से चलाने के लिए श्रीरामचंद्र जी से हाथ मिला लिया हो, लेकिन कहा तो उन्हें घर का भेदी ही जाता है। कुछ ऐसा ही हाल भाजपा के नेताओं का भी है।
अंदर की बातें बाहर करने में जरा भी नहीं हिचक रहे हैं लोग। भाजपा में एक नहीं, बल्कि कई विभीषण पैदा हो गए हैं, जो अदृश्य रूप से अपनी ही जड़ खोदने में लगे हैं। एक तो हर कोई सिंहासन झटकने के मूड में है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, इसलिए इसकी टोपी उसके सिर किया जा रहा है कि क्या पता इस बहती गंगा में हाथ ही धो लें।

ये भूलकर कि ये कोई मखमली सिंहासन नहीं, बल्कि कांटों की सेज पर सोने जसा होगा, पर किसी न किसी को तो आना ही है, मगर कोई एक ऐसा बंदा नहीं है, जो अपनी जिम्मेदारियों से नाता जोड़ ले। लोक सभा चुनावों ने वैसे भी पार्टी की हालत पतली कर दी है। आगे श्रीराम ही मालिक। वैसे भगवान राम भी तंग आ गए हैं, इनके रोज-रोज के दल बदलने से, इसलिए वो भी चुपचाप हैं, क्योंकि उनके इन्ही कथित बंदों ने उन्हें मानहानि पहुंचाया है।


कहते हैं दूसरे के घर में झगड़ा देखने में पड़ोसियों को बहुत मजा आता। कांग्रेस कुछ वैसे ही चटखारे लेकर चुपचाप जायके का मजा उठा रही है, ये भूलकर कि वक्त से किसकी यारी है, आज मेरी तो कल तेरी बारी है।
धर्मेद्र केशरी

Monday, August 31, 2009

यूं हुआ सच का सामना

इस सच का सामना ने तो घर की महिलाओं को भी बिगाड़ दिया है। महिलाएं ही क्या गर्लफ्रेंड्स पर भी इस शो का गहरा असर पड़ रहा है। मुएं कितने रिश्ते तोड़ चुका है ये शो, इसे खुद भी नहीं पता। एक बार मेरा भी सामना हो गया सच से। मेरी मैडम अर्थात मेरी गर्लफ्रेंड पर पता नहीं क्या फितूर सवार हो गया। उन्होंने बड़े प्यार से कहा, चलो कोई रियलिटी शो वाला गेम खेलते हैं। मैंने सोचा, आज ये गेम की बातें हो रही हैं, कहीं मैं किसी गेम में तो नहीं फंसने वाला! फिर सोचा कुछ-कुछ होता है फिल्म में नीलम शो टाइप वाला कोई गेम खेलेंगी, मैंने हां कर दिया।

मेरे हां भर की देर थी कि वो लेडी राजीव खंडेलवाल बन गईं। शुरू हो गया लाइव सच का सामना। एक गलत जवाब खेल खत्म। मैं हैरान, हक्का-बक्का, पर कुछ कर भी नहीं सकता था। डर भी सताने लगा कि आखिर ये हो क्या रहा है। गेम में फंस गया था, गेम तो खेलना ही पड़ता। अब मैडम पॉलिग्राफी टेस्ट तो कर नहीं सकती थीं, लिहाजा मुङो कसम दे दी कि जिससे सबसे ज्यादा प्यार करता हूं, उसकी कसम खाकर सच-सच जवाब दूं। मैंने कहा, मैं तो तुमसे सबसे ज्यादा प्यार करता हूं। इस पर उन्होंने भौंहें चढ़ा लीं और बोलीं- मेरी नहीं, अपनी मम्मी-वम्मी की कसम खाओ। मरता क्या न करता। खाना

शुरू हो गया सच का सामना। उनका पहला सवाल- मेरे अलावा तुम्हारी कितनी गर्लफ्रेंड हैं? मैंने कहा- सिर्फ तुम ही हो, इस पर वो बोलीं- कहा ना एक गलत जवाब और खेल खत्म। फिर भी मैंने वही जवाब दिया, क्योंकि फिलहाल तो वही हैं। इस जवाब में तो पास कर दिया गया। दूसरा सवाल आने से पहले- अब सवाल और भी निजी होते जाएंगे, इसलिए सोच-समझकर खेलिएगा। सच कहूं तो एकदम डर-सा गया, क्योंकि उनका रूप देखकर लग रहा था कि वो सवाल पूछने या गेम खेलने की नहीं, बल्कि कुछ और ही सोच कर आई हों। खर, मैंने तो जवाब देना ही था। उन्होंने पूछा-क्या आपने कभी मुझसे झूठ बोला है। भई, झूठ तो कई बार बोला है, लेकिन किसी ऐसे-वैसे मकसद से नहीं, साफ नीयत से, लिहाजा बोल दिया कि हां, झूठ बोला है। यहीं फंस गया, वो गेम तो भूल गईं, मुझ पर पिल पड़ीं। बड़ा मनाया, नहीं मानीं और आखिरकार पैर पटकते हुए घर की ओर रवाना हो गईं।

बाद में मैंने पूछा ये आइडिया तुम्हें आया कहां से, तो जवाब आया- वो कल रात मैं सच का सामना देख रही थी ना, इसलिए सोचा तुमसे खेल लेती हूं। भई, इस सच का सामना ने किसे-किसे दर्द दिया ये तो मुङो नहीं पता, पर मुङो बड़ा परेशान किया इस सच का सामना ने।
धर्मेद्र केशरी

हाय-हाय मंदी

मंदी, मंदी, मंदी॥तंग आ गया ये शब्द सुनते-सुनते। हर चीज में मंदी ने ऐसी सेंध मारी कि न रोत बनता है और न हंसते। नौकरी तो नौकरी खाने पर भी मंदी ने गाज गिरा दी है। मेरे एक दोस्त हैं, गुमसुम प्रसाद। हमेशा अपनी नौकरी के बारे में अंट-शंट बका करते थे। तेवर ऐसे कि अब छोड़ा, तब छोड़ा। तभी मंदी की महा राक्षसी ने अटैक कर दिया। घर जाता हूं तो घर पर ही नहीं मिलते। एक दिन मैंने उनका इंतजार किया।

आधी रात के बाद बेचारे थके-हारे आए। मैंने मजाकिया अंदाज में पूछा- क्या हाल बना रखा है, कुछ लेते क्यों नहीं। मेरा इतना कहना था कि साहब भड़क गए- बोले, यार कटे पर नमक न छिड़को। मैंने पूछा- क्या हुआ भाई, क्यों इतने परेशान लग रहे हो।
गुमसुम बोला- अरे यार नौकरी न हो गई, जी का जंजाल बन गई है। मंदी ने ऐसी मार लगाई है कि दस आदमियों का काम अकेले करना पड़ रहा है। मुआ इंसान नहीं, बैल बन गए हैं। मैंने छेड़ा- तो छोड़ क्यों नहीं देते, तुम्हारे लिए तो तमाम रास्ते हैं। वो बोला- कहां यार, डर लगता है अब गई कि तब गई। कहीं कुछ सूझता भी नहीं। इतना करने के बाद भी दिल के कोने में डर बैठा ही रहता है। यार कब जाएगी ये मंदी।

मैंने कहा- मंदी-वंदी का कोई चक्कर नहीं है यार, हालात ठीक हो चुके हैं, लेकिन कंपनियों को तो मौका मिल गया है। आप रास आए नहीं कि निकाल बाहर किया, कह दिया कि मंदी है, कंपनी घाटे में चल रही है। आप कुछ कर भी नहीं सकते, सरकार ने जब हाथ खड़े कर रखे हैं तो इनका कहना ही क्या। वैसे भी प्राइवेट सेक्टरों में मंदी का अटैक कुछ ज्यादा ही है। सच कहूं तो लोगों को बाहर निकालने का कंपनियों को अच्छा बहाना मिल गया है। यार, काश ये मंदी भट्राचार में आ जाती। खद्दरधारियों को मंदी का शिकार होना पड़ता, तो देश की कुछ स्थिति भी सुधरती। रिश्वत और सुविधा शुल्क पर मंदी की मार पड़ती तो बात कुछ हजम भी होती। ऐसे में तो लोग और भी बेरोजगार होंगे, बेरोजगारी से अपराध बढ़ने का भी तो खतरा रहता है।

कंपनियां मंदी के नाम पर छंटनी करने को आमादा रहती हैं, अपने नुकसान को पूरे स्टाफ के सामने बयां करते हैं, लेकिन फायदे पर कोई मीटिंग नहीं करते। ये नहीं कहते कि लो, बढ़ गई सैलरी, मुनाफा हुआ है। अब तो शुक्राचार्य के पास जाकर महा राक्षसी मंदी को मनाने का मंत्र पूछना पड़ेगा। चल प्यारे, जा के सो जा सुबह पांच बजे की शिफ्ट है तेरी।
धर्मेद्र केशरी

Friday, July 17, 2009

किया इश्क ने निकम्मा

किसी शायर की कलाम सुनते हैं तो बड़ा अच्छा लगता है। शायर बेचारा पूरा दर्द उड़ेल कर शायरी करता है। दरअसल, वो अपनी दर्दभरी कहानी को ही कागज पर उतारता है। अधिकतर प्यार में चोट खाए बंदे ही कवि या शायर बनते हैं। पहले ऐसे शायरों के बारे में हंसी-मजाक कर देता था, लेकिन सच है साहब इश्क निकम्मा कर ही देता है। मुआं प्यार शब्द ही ऐसा है कि बड़े-बड़ों को फांस लेता है। पहले तो आप सोचते हैं कि आप जिसे अपनी प्रेयसी बनाने जा रहे हैं, वो दुनिया की सबसे हसीन लड़की है, होती भी है, लेकिन जब वादों का एक दौर पूरा होता है तो इसे भी लू लगने लगती है, फिर इश्क का बुखार उतरता है। तब तक तो स्थिति न उगलने वाली और न निगलने वाली हो जाती है। जालिम इश्क बड़े-बड़ों को शायर बना ही देता है।

मोहतरमा के प्यार में पड़े तो भी शायरी करेंगे और खुदा न खास्ता रिश्तों में तल्खी आ गई तो शायरी गारंटीड है। प्यार की पगडंडी से उतरे बंदों से पूछिए, दाढ़ी-मूछें बढ़ाकर साधुबाबा तक बनने को तैयार हैं कि सिर्फ एक बार उनकी नजर पड़ जाए और वो बंदे का दर्द समझ लें। कइयों ने तो दर्दीले शायरी की किताब भी लिख रखी है कि वो बस एक बार नजरें इनायत कर लें, लेकिन वो हैं कि फोन सायलेंट मोड पर तकिए के नीचे रखकर सो जाती हैं। करो फोन कितना करोगे, पहले तो मम्मी-पापा पास खड़े मिलेंगे, हरदम, कभी नींद आती रहेगी, कभी मूड खराब होगा।

ज्यादा परेशान करोगे तो स्विच ऑफ करना भी आता है, जिद पर अड़े तो नंबर चेंज, बताओ क्या कर लोगे। आखिर प्यार में बलिदान का अपना ही महत्व है, उन्होंने आपका बलिदान किया है आप भी कुछ त्याग कीजिए। वैसे बंदे त्याग करना जानते हैं, कुछ खाना-पीना त्याग देते हैं तो कुछ सोना त्याग देते हैं। जो स्मार्ट टाइप के बंदे होते हैं और सिर्फ उन्हें जताने के लिए शायर बन जाते हैं, वो फिर अगेन ट्राई की राह पकड़ते हैं।

जिनकी मान जाती हैं, वो थोड़ा राहत की सांस लेते हैं, इस डर के साथ कि फिर वो रूठ न जाएं, लेकिन जिनकी नहीं मानतीं उनकी तो हालत मत ही पूछिए। किशोर कुमार और मुकेश के गानों को सुनने के अलावा गुलाम अली और जगजीत सिंह को भी घर ले आते हैं। चचा गालिब भी इन दुखियारों के हमसफर बन जाते हैं। अब तो चचा गालिब की वो शेर ही याद आता है इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।

धर्मेद्र केशरी

Friday, July 10, 2009

विश्वास के साथ विश्वासघात

एक कहावत है, ‘जहां विश्वास होता है, वहीं विश्वासघात होता है।ज् क्या करें भाई, विश्वास करते-करते विश्वासघात सहने की भी आदत पड़ गई है। सिर्फ मुङो ही नहीं, परे देश की बात है साब। विश्वास का बिकना बुरा तो लगता है, लेकिन कर भी क्या सकते हैं, सिवाय विश्वास को बाजार में बिकते हुए देखकर। कुछ दिन पहले ही मैंने एक नया मोबाइल खरीदा। लेने कुछ और गया था, लेकिन दुकानदार ने मेरा ऐसा हृदय परिवर्तन किया कि उसके कहे के मुताबिक किसी और कंपनी का मोबाइल मैंने खरीद लिया।

बंदे ने कहा, विश्वास कीजिए, बहुत अच्छा है और अगर अच्छा नहीं हुआ या कोई परेशानी हुई तो विश्वास करिए मैं आपकी सेवा में तो हाजिर हूं ही। मैंने भी नोट निकाले और दुकानदार के हवाले कर दिया। घर जाकर देखा तो मुएं नए मोबाइल में एक कमी थी। मध्य वर्ग वालों का हाल तो आप जानते ही हैं, कोई चीज लेने से पहले दस बार सोचते हैं, लेते भी हैं ठोक बजाकर। मजबूरी भी है कि एक सामान के लिए दस बार पैसे तो खर्च नहीं कर सकते। कुछ कम ज्यादा हुआ नहीं कि बिगड़ गया घर का बजट।

खर, मैंने सोचा दुकानदार ने विश्वास के साथ मोबाइल बेचा है, चलकर वापस कर देते हैं। पहुंच गया दुकानदार के पास। पहले तो उसे पहचाना नहीं, जब मैंने उसे बताया कि मैं वही ग्राहक हूं, जिसको आपने पूरे विश्वास से मोबाइल बेचा है। रसीद दिखाने पर तो वो माना। समस्या बताते ही वो मुझपर बरस पड़ा। बोला- पहले रसीद तो पढ़ लो, बिका माल वापस नहीं होता है और कोई भी गारंटी कंपनी की होती है, मेरी नहीं। मैं भौचक्का खड़ा उसका मुंह ताकने लगा। मैंने कहा- पर आपने तो इस मोबाइल को विश्वास के साथ बेचा था। दुकानदार झट से बोल पड़ा- ठीक है, फिर मोबाइल के साथ विश्वास भी वापस कीजिए। मैंने कहा- अरे भाई, विश्वास किया जाता है, वापस कैसे कर सकता हूं। मैं समझ गया कि दुकानदार नोट गिनने के बाद विश्वास भरी बातों को अर्थी पर बैठा चुका है। मुङो ज्यादा झटका नहीं लगा, क्योंकि विश्वास के साथ विश्वासघात वाली कहावत सुन-सुन के दिमाग ऐसे वार ङोलने के लिए तैयार हो चुका है।

महज ये एक दुकानदार की कहानी नहीं है, आज का इंसान ऐसा ही हो चुका है। विश्वास को बेचने में सबसे तेज होते हैं खद्दरधारी। व्यापारी तो कुछ न कुछ देते हुए विश्वास का सौदा करते हैं, लेकिन ये लोग विश्वास के नाम का ही खाते हैं। चुनाव के पहले विश्वास करने की बात करते हैं, बाद में विश्वास में प्रयोग अक्षरों को भी भूल जाते हैं।

धर्मेद्र केशरी

पोल खुलने लगा

सहीराम बाबा सिर पर हाथ धरे बैठे थे, जब वो इस मुद्रा में होते हें तो मेरी भी उनके पास फटकने की हिम्मत नहीं होती है, लेकिन उनकी परेशानी पूछे बिना भी काम नहीं चलने का। पूछ ही लिया। बाबा तो बमक गए। कहने लगे- आ गई ना सरकार अपनी औकात में। मैंने कहा- बाबा, क्या हो गया, क्यों अपना खून जला रहे हो। सहीराम बोले- नई सरकार बने महीन-दो महीने भर भी कायदे से नहीं बीते कि अपना रूप दिखाने लगे।

सबसे पहले पेट्रोल और डीजल का मुंह ही पकड़ते हैं और बंद करने की बजाय सुरसा की तरह खोल देते हैं। मैंने समझाते हुए कहा- बाब, उनकी भी कुछ मजबूरियां होती हैं, जब उन्हें महंगा मिलता है तो हमें भी महंगा ही मिलेगा। इतना सुनते ही वो बिफर पड़े- तो तू इनकी वकालत कर रहा है। तेरी बात माल भी ली कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत के हिसाब से ही रेट तय करते हैं, लेकिन चुनाव के पहले ये उसूल, सिद्धांत और मजबूरियां कहां हवा हो गई थीं। जब तक वोट नहीं पउ़ा था तब पेट्रोल महंगा करने की बात जुबान क्या, दिमाग में भी नहीं आई होगी और जब जनता ने अपना भरोसा दिखा दिया तो मजबूरियां गिनाने लगे।

चुनाव के पहले दाम बढ़ाते तो इनकी हिम्मत का हम भी समर्थन करते, लेकिन इन्होंने किया क्या। गिरगिट की तरह रंग बदल दिया, अवसरवादियों की तरह काम कर रहे हैं। बेटा, महंगाई का कागजी ग्राफ ऊपर-नीचे होने से रोटी के आकार पर उतना फर्क नहीं पड़ता, जितना इन कदमों को उठाने से होता है। तू ही बता, इन बढ़े दामों का असर बाजार पर पड़ेगा या नहीं। टांसपोर्ट का भाड़ा बढ़ा नहीं कि हर चीजों के दाम बढ़ने लगेंगे और एक बार दाम बढ़े तो घटने का नाम नहीं लेने वाले। ऐसे आती है महंगाई उन कागजी ग्राफों से नहीं। यहां तो उल्टा फसाना है जग महंगाई दर बढ़ रही थी तो दाल,अनाज और सब्जियों के भाव आसमान छू रहे थे और जब शून्य के नीचे चली गई तो चीजें और भी महंगी हो गईं। अब तू ही बता इन आंकड़ों से गरीब की रोटी का कोई मतलब है! बस, सरकार बनते ही इन्हें पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने की आदत हो गई है।

बेटा, जिस दिन इन सफेदपोशों को जेब से पेट्रोल भरनी पड़ जाए तो आटे-दाल का भाव पता चल जाएगा। सहीराम के नथुने गुस्से में फड़क रहे थे। मैं भी उनकी बातों का कोई ठोस जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहा था। सच ही तो कह रहे थे वो कि ये सरकार भी कम अवसरवादी नहीं है।
धर्मेद्र केशरी

गिरेबान में तो झांकिए

जितने भी वाद हैं वो सबसे ज्यादा हमारे ही मुल्क में देखने को मिलेंगे। जनाब, हम धर्म निरपेक्ष देश हो सकते हैं तो ‘वादज् को पनाह नहीं दे सकते क्या! जरा नजर दौड़ाइए गली-मोहल्लों में क्या, हर घर में कोई न कोई ‘वादज् जरूर मिल जाएगा। आखिरकार हमारी सभ्यता प्राचीन है। हर खोज में आगे रह सकते हैं तो इनमें भला क्यों पीछे रहें। भले ही अपने बंदों ने इन ‘वादज् रूपी समस्याओं को जन्म न दिया हो, लेकिन पनाह देने में पीछे कौन रहना चाहेगा साहब।

आखिर ‘अतिथि देवो भव:ज् भी तो कोई चीज है उसे भी हमें ही चरितार्थ करना है। अब बताइए कौन सा ‘वादज् देखना है आपको। आतंकवाद, नक्सलवाद, पूंजीवाद या फिर नस्लवाद। ऐसा कोई भी वाद नहीं है, जिसकी हमने अपने घर में खातिरदारी न की हो। पड़ोसियों का सम्मान भी तो करना है, इसलिए वहां के हिंसक ‘वादज् को खाद-पानी दे रहे हैं। हम भी महान हैं। खुद नस्लवाद को घर में बिठाकर रखते हैं और बाहर के नस्लवाद के लिए झंडे बुलंद करते हैं। गलत है, कहीं भी नस्लवाद का होना। नस्लवाद ही क्या, कोई भी ‘वादज् देश के लिए खतरा ही है। वैसे हमारे भाई लोग भी कम नहीं है। बाहर कुछ हुआ नहीं कि प्रदर्शन शुरू, पर जब अपने विदेशी अतिथियों को ही अपनी हवस का शिकार बनाते हैं तो वो उसूल न जाने कहां चले जाते हैं। अगर कल को कोई गिरेबान में झांकने को कहे तो तो क्या जवाब देंगे! ‘वादज् ही किसी ‘वाद-विवादज् को जन्म देता है, लिहाजा वाद को खत्म करने की कोशिश करना चाहिए ताकि कोई वाद विवाद ही न हो।

स्वस्थ ‘वाद-विवाद हो तो समझ में भी आता है, लेकिन हमने तो कसम खा रखी है कि कोई भी चीज स्वस्थ नहीं रहने देंगे तो ‘वाद-विवाद की औकात ही क्या। दिक्कत ये है कि हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां उपदेश देने वाले तमाम लोग मिलेंगे, लेकिन खुद अमल करने की बारी आए तो सारे सिद्धांत ताक पर। देखिए, मैं भी उपदेश देने लगा। जब अपने मन का ही करना है तो बाद में रोना-पीटना कैसा। ‘वादज् से ही बना है ‘वादाज्, इस विद्या में हमारे खद्दरधारी पारंगत हैं। उन्हें और कुछ आए या ना आए ‘वादों की जमीनज् पर झूठ की फसल खड़ी करन खूब आता है। इनके वादों के चक्कर में बड़े-बड़े फंस जाते हैं। ये भी हमारे देश की जमीन की ही उपज है। वादा चीज ही ऐसा है कि जब तक इसे तोड़ा न जाए, चकनाचूर न कर दिया जाए चैन नहीं मिलता है। बंदा वादा तोड़ने में एक्सपर्ट होता है। सामने वाला भी वादों पर ऐतबार नहीं करता, बल्कि इंतजार करता है कि कब टूटे। खर, ये तो पिछले साठ साल से नहीं सुधरे हैं तो आगे भी गुंजाइश कम ही दिखती है, पर हम सभी को सुधरना तो पड़ेगा, नहीं सुधरे तो॥

धर्मेद्र केशरी

Wednesday, June 17, 2009

भूली-बिसरी एक कहानी..

एक कहानी पढ़ी थी बचपन में। कहानी कुछ यूं है कि एक लड़का पढ़ने में बहुत तेज था। हमेशा क्लास में अव्वल आता था। सभी उसकी तारीफ किया करते थे और उसे पलकों पर बिठाकर रखते थे। नतीजा ये हुआ कि वो घमंडी, लापरवाह और चिड़चिड़ा हो गया। सफलता का घमंड उस पर कुछ इस तरह हावी हुआ कि उसने पढ़ाई करना छोड़ दिया, क्योंकि उसे भरोसा था कि वो ही अव्वल आएगा। नतीजा ये हुआ कि वो क्लास में टॉप टेन की पोजिशन पर भी नहीं पहुंचा और किसी और मेहनती बच्चे ने प्रथम स्थान हासिल किया।

ये कहानी सिर्फ मैंने ही नहीं, पूरे हिंदस्तान ने जरूर सुनी होगी, सिवाय भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को छोड़कर। अगर धोनी ने ये कहानी सुनी भी होगी तो शर्तिया तौर पर वो भूल गए होंगे और अब जरूर उन्हें ये कहानी याद आ रही होगी। आइपीएल में पैसों की बारिश में इतना भीग गए कि देश के लिए खेलते वक्त नजले ने धर लिया। सिर्फ धोनी ही नहीं, पूरी टीम बीमार हो गई और नतीजा, एक अरब जनता निराशा में डूब गई।

क्रिकेटरों को लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया, उनकी पूजा तक की, लेकिन वो क्रिकेट के भगवान नहीं बन सके। भाई लोग ऐसे खेले, जसे कोई अपनी प्रेमिका के पास जल्दी पहुंचने के चक्कर में जरूरी कामों को भी ताक पर रख दे। जसे स्वदेश लौटने की कोई जल्दी रही हो। कूल-कूल माही थे तो ठंडी जगह पर, लेकिन इस बार उन्हें गुस्सा आ गया। गुस्सा इसलिए आया, क्योंकि लोगों ने उनसे ऐसे सवाल दागे, जिसका जवाब उनके पास था ही नहीं, लिहाजा वो खूब भड़के। बिलकुल उस नवाब की तरह, जिसके हुक्म की तामील हो तो बल्ले-बल्ले और अगर किसी ने वाजिब बात कर दी तो ठीक नहीं।

धोनी ने टीम को आसमान पर पहुंचाया, कोई दो राय नहीं, सफलता का क्रेडिट मिला भी, लेकिन टीम को नाकामी की ओर धकेलने के लिए भी वो ही जिम्मेदार हैं। कहते हैं अति आत्मविश्वास भी बुरी होती है। धोनी एंड कंपनी इन फलसफों को भी दरकिनार कर चुके थे। इंग्लैंड पहुंचकर प्रैक्टिस करना भी जरूरी नहीं समझा। करते भी कैसे आइपीएल में इतनी ज्यादा कर ली थी कि और करते तो थकान लग जाती। वैसे भी साहब बिपाशा बसु के साथ शूटिंग में व्यस्त रहे। हांगकांग जाकर शूटिंग करना और चेहरे पर कलाकारों की तरह एक्सप्रेशन देना मामूली बात थोड़े ही है। घर आइए, स्वागत है, कई कंपनी वाले आपका इंतजार कर रहे होंगे, उनकी भी शूटिंग जो निपटानी है। विश्व कप का क्या, फिर आएगा, अगेन ट्राई।
धर्मेद्र केशरी

नेकी कर जूते खा

जमाना कितना बदल गया है। जमाने और लोगों तक तो ठीक था, इस बदलाव ने मुहावरों तक को बदल दिया है। सुबह जब मैं ऑफिस के लिए रवाना हो रहा था तभी मेरी नजर एक बस के पीछे लिखे शब्दों पर पड़ी। वहां लिखा था ‘नेकी कर जूते खा, मैंने खाए तू भी खा। पढ़कर हंसी आ गई, लेकिन इस वाक्य ने मौजूदा हालात का फलसफा बयां कर दिया। पहले कहा जाता था ‘नेकी कर दरिया में डाल यानी कोई भला काम करके भूल जाओ, लेकिन अब तो मामला उल्टा है।

‘नेकी कर जूते खा सुनकर ही पता चल जाता है कि लोग कितने बदल चुके हैं। अवसरवादियों से मार खाए लोग कोई नेकी भरा काम करना ही नहीं करना चाहता है। आज के जमाने में नेकी का जवाब भी धोखे से मिलता है, वैसे भी विकास के नाम पर दरिया सूख रहे हैं। नेकी कर डालें भी तो कहां! इसलिए बेचारे दर्द भरे कवि ने इस मुहावरे का सृजन कर डाला। सुबह की शुरुआत ही अनोखे मुहावरे से हुई तो शाम कैसे खाली जाती। मैं अपने दोस्त के साथ दिल्ली की सड़कों पर गुजर रहा था।

रेडलाइट पर गाड़ी रुकी तो एक भिखारी महोदय हमारी ओर आए। तब तक ठक-ठक करते रहे, जब तक कार का शीशा नहीं खुला। शीशा सरकते ही उसकी आवाज कानों में आई ‘तुम पांच रुपए दोगे वो एक लाख देगा। भिखारी के मांगने के अंदाज को देखकर मैं मुस्कुराने लगा। मैंने पूछा- एक बात बताओ जिस गाने पर तुमने मांगा वो कुछ इस तरह है कि ‘तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा, फिर तुम पांच रुपए क्यों मांग रहे हो और एक ही लाख मिलने की बात कर रहे हो। भिखारी मुङो ऊपर से नीचे तक देखने लगा। बोला- साब, किस दुनिया में जी रहे हो। एक पैसा चलना कब का बंद हो गया, अब एक रुपए में कुछ होता नहीं है इसलिए पांच रुपए मांग रहा हूं।

पहले मैं सीधे दस रुपए मांगता था, लेकिन जब से मंदी शुरू हुई है मेरी भीख में भी कटौती हो गई है। मैं सरकार नहीं हूं, लेकिन आप लोगों का हाल समझता हूं इसलिए पांच रुपए ही मांग रहा हूं। एक बात और बताऊं आपको, मैं प्रोफेशनल और प्रैक्टिकल भिखारी हूं। मुङो पता है कि भगवान भी घाटे में चल रहे हैं, ऐसे में ज्यादा फेंकना नहीं चाहिए, दस लाख क्या एक रुपए भी वापसी की कोई श्योर गारंटी तो होती नहीं है, इसलिए एक लाख रुपए मिलने की ही बात करता हूं। अब तुम्हें पांच रुपए देने हैं या॥। मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा दोस्त बोल पड़ा- गुरु, जिससे तुम एक लाख दिलाने की बात कर रहे हो, उसी से ही मांग लो और कार का शीशा चढ़ाकर गाड़ी आगे बढ़ा दी।
धर्मेद्र केशरी

पी आर की महिमा

आजकल एक शब्द ने सबको हैरान कर दिया है। वो है पी आर यानी ‘पब्लिक रिलेशनज्। भइया पी आर का जमाना है। जिसका पूरा फायदा कांग्रेस उठा रही है। कांग्रेस की नई पीढ़ी जानती है कि काम के साथ नाम बहुत जरूरी है। इस शब्द ने कई नेताओं के होश उड़ा दिए कि आखिर ये मुंआ पी आर है क्या बला। जब राहुल गांधी दलित की झोपड़ी में रात बिता रहे थे और कलावती के दर्द को सार्वजनिक कर रहे थे तो दंतहीन नेता खींसे चिंघाड़कर गा रहे थे कि ऐसा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला, लेकिन परिणामों की चोट से वो समझ गए हैं कि राहुल क्या कर रहे थे।

हर पार्टी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की जीत हासिल करने की, लेकिन जिनका पी आर मजबूत था, उन्हें ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। कांग्रेस भी वही कर रही है, काम तो करना ही साथ नाम करना भी। राहुल ने युवाओं के बीच ‘पी आर बनायाज् और मैडम महिलाओं के बीच अपनी पैठ और भी गहरी कर रही हैं। मनमोहन सिंह देश के पहले सिख प्रधानमंत्री, प्रतिभा पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति और अब पहली महिला स्पीकर।

अगर सब कुछ ठीक रहा तो मीरा कुमार भी इतिहास रचेंगी। ये सब कुछ इसी ‘पी आरज् के तहत हो रहा है। दरअसल, मैडम को पता है कि भारतीय जनता समझदार से ज्यादा भावुक है। भावुकता को कैश कराने के लिए ऐसे कदम उठाने जरूरी होते हैं। वैसे कांग्रेस जो भी कदम उठा रही है, उसमें जनता का भला और जागरूकता साफ दिख रही है, जो बेहद अहम है। ‘पी आरज् करने में कांग्रेस अन्य पार्टियों से कहीं आगे है। विपक्ष के नेता का मान सम्मान कर वो लोगों की नजर में अपनी मृदुभाषी पहचान कायम रखना चाहते हैं।

भगवा पार्टी व्यावहारिकता पर अमल करने के बजाय सपनों में तैरती रही। लोगों के बीच अपनी जो पहचान बनाई, उसी का परिणाम देखने को मिल रहा है। पी आर की माया आरएसएस को समझ में आने लगी है। यही वजह है कि कांग्रेस की सरकार बनने के बाद उनका नरम बयान सुनने को मिला। उनका कहना था कि फिलहाल देश को ऐसी ही सरकार की जरूरत है। ये भी एक तरह का पी आर है, जो भगवा पार्टी अब समझ गई है। लालू प्रसाद को तो पी आरकी जबरदस्त याद सता रही है। रेल मंत्रालय को फायदे में लाकर तो उन्होंने पी आर बनाया, लेकिन जनता को सरेआम गालियां देकर सब गुड़-गोबर कर लिया। बस, अमर सिंह थोड़े अलग हैं। वो पहले भी फिल्मी कलाकारों से पी आर बनाते थे और आज भी।
धर्मेद्र केशरी

अब क्या करें हम

पांच साल तक के लिए खाली होने वालों लोगों की लिस्ट लंबी हो गई है। उन लोगों के पास महज दूर से ‘तमाशाज् देखने के अलावा कोई काम भी नहीं है। ये वो लाग हैं जो नाटक के मुख्य किरदार हुआ करते थे, पर वक्त ने ऐसी पलटी खाई कि नाटक देखने के भी काबिल नहीं रह गए। खर अब पछताए होत क्या जब ‘जनता दे गई वोटज्। खाली बैठने वाले लोगों में सबसे पहले नाम आता है लालू प्रसाद यादव का। ट्रेन क्या छूटी तांगे तक की सवारी से डर रहे हैं लालू जी। चुनाव हारने के बाद जनता जनार्दन के पास भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे, क्योंकि उन्हें उनका जमीर इसकी इजाजत नहीं दे रहा।

जमीन से जुड़े होने का दावा भी जमींदोज हो गया है। अब करें भी तो क्या करें। लालू जी सोच रहे होंगे कि कोई व्यापार ही शुरू कर दिया होता तो अच्छा था। उनके व्यापार करने की संभावनाएं तेज हो गई हैं। रेलवे की नई मुखिया ममता बनर्जी लालूजी के काम से संतुष्ट नजर आकर उनके फलसफे पर ही काम करने का संकेत दे चुकी हैं लिहाजा अगर वो सत्तू सप्लाई का बिजनेस करेंगे तो सफल रहेंगे। वैसे भी रेलवे में सत्तू को पेटेंट करने का कारनामा उन्होंने ही किया है। चारा तो खत्म हो गया होगा और अब किसी नए चारे को खाने का सवाल ही नहीं पैदा होता।

लालू जी के गढ़ में नीतीश कुमार ने ऐसी सेंध लगाई है कि उनका घर भी मजबूत नहीं रह गया है। कुछ दिन तो उन्हें अपने घर की मरम्मत करने में ही बीत जाएगी। रामविलास पासवान का नंबर भी तमाशबीनों में शामिल हो गया है। एक भी सीट नहीं पाने का गम कोई राम विलास जी से पूछे। उनसे भले तो निर्दलीय हैं, जो अपने व्यक्तित्व के दम पर संसद में पहुंच गए। हां, अब वो आराम से अपने बेटे को फिल्मों के लिए एप्रोच कर सकते हैं। समय ही समय है उनके पास, पर बेटा कहीं फिल्मों में फेल हो गया तो! लेफ्ट भी कुछ दिनों के लिए अपनी लेफ्ट-राइट बंद कर आराम फरमाने के मूड में है। वैसे भी पांच साल तक तो उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं है।

इन्हें बुद्धिजीवी समझा जाता है, आने वाले दिनों में ‘हार के thikare के बारे में एक्स्ट्रा क्लास जरूर ले सकते हैं। मुलायम सिंह भी खाली हैं, क्योंकि छोटा चुनाव करीब तीन साल और बड़ा चुनाव तो पूरे पांच साल बाद आएगा, तब तक सैफई में आराम फरमाएंगे। रही बात अमर सिंह की, चुनाव के नतीजों से बेघबर अपने फिल्मी दोस्तों के साथ उनका वक्त मजे में कटने वाला है।
धर्मेद्र केशरी

बड़े बे-आबरू होकर..

धारावाहिक का एपिसोड जब शुरू होता है तो क्या होता है?पहले रीकैप फिर उस दिन का एपिसोड और खत्म होने के बाद आगे की झलक। सियासत के इस एपिसोड में भी हम पहले रीकैप देखते हैं। चुनाव के तीन महीने पहले। लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव का चेहरा। तमतमाया हुआ, कि हम ही तो रगड़ देंगे सारी साटें।

इसीलिए एकजुट भी हो गए कि सौदेबाजी में आसानी होगी। यूपीए का साथ छोड़कर चौथा मोर्चा बनाया और काम शुरू। लालू यादव कभी जनता को गरियाते तो कभी धकियाते दिखे। मायावती तो जसे यूपी का ठेका ही लेकर बैठी रहीं। मुलायम भी कठोर बन गए। रामविलास पासवान की तो पूछिए ही मत। रहस्यमयी मुस्कान के साथ कि मैदान मार के दोबारा मंत्री पद के लिए दांत चिंघाड़ देंगे। लेफ्ट की लेफ्ट-राइट भी बरकरार रही।


हमलों का दौर चलता रहा। मोलभाव पार्टियां खड़ूस सासों की तरह बर्ताव करती रहीं और कांग्रेस सदाचार बहू की तरह जनता के फैसले का इंतजार करती रही। रीकैप खत्म। असली एपिसोड शुरू। मतगणना के बाद नजारा बदल गया। गेंद मैडम के पाले में। मोलभाव पार्टियों का रुख ऐसे बदला, जसे कोई बच्चा लॉलीपॉप देखकर लार टपकाने लगे। लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को जनता ने जता दिया कि उनकी हैसियत जनता तय करती है।


कांग्रेस को भी इन टूटे बैसाखियों की कोई जरूरत समझ में नहीं आती है, लेकिन फिर भी ये अपना समर्थन थाल में सजाकर मैडम के पास ले जाने को तैयार हैं। ये वही लोग हैं, जो चुनाव के पहले जमकर निशाना साध रहे थे, पर अब लाइन लगाकर समर्थन देने का जुगाड़ सेट कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि किस मुंह से पहुंच गए समर्थन देने। एक बार ये भी नहीं सोचा कि कल वो क्या राग अलाप रहे थे। सबसे ज्यादा तो दुर्गति राम विलास पासवान की हुई है। उनके पास तो एक सीट भी नहीं है, जिसके दम पर वो सत्ता के दरवाजे तक जाने की हिम्मत भी जुआ पाएं। लेफ्ट को भी समझ में आ गया कि हर पल अपनी नीयत बदलने का क्या दुष्परिणाम हो सकता है। अब राजनीति के राखी सावंत अमर सिंह की अमर वाणी पर भी लगाम लग गई है। माया मेमसाब और साइकिल मुखिया इसलिए समर्थन देने को आतुर हैं कि कहीं सीबीआई का डंडा न पड़ जाए।


बेचारे लालू की रेल तो जाएगी ही तांगे तक के मंत्रालय की भी उम्मीद नहीं है। अब तो सब यही कह रहे हैं, मारो, लेकिन पर्दे के पीछे, इतनी बेइज्जती बर्दाश्त नहीं। आगे का हाल भी मोलभाव पार्टियों के पक्ष में नहीं दिखता। अब तो यही मिसाल याद आता है कि बड़े बे-आबरू तेरे कूचे से कम निकले॥
धर्मेद्र केशरी

Wednesday, April 29, 2009

लादेन का पुर्नजन्म

एकता कपूर के करिश्माई सास-बहू धारावाहिक भले ही बंद हो गए हों, लेकिन उन धारावाहिकों का असर चारों ओर देखने को मिल रहा है। आप soch रहे होंगे कि करिश्माई किस लिहाज से, तो भइया, जो कई बार मर कर फिर जिंदा हो जाए तो उसे करिश्माई ही तो कहा जाएगा ना। उनके किरदारों की खास बात ही यही होती है कि वो कई बार मर कर भी जिंदा हो जाते हैं और जीते जी मार भी दिए जाते हैं।

अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भले ही इनके सीरियलों को बंद कराया जा चुका है, पर एकता की विचारधारा को वहां के लोगों ने चुरा लिया है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को तो एकता का कांसेप्ट बहुत पसंद आया है। अमेरिका को लादेन चाहिए, इसलिए वो पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल कर रहा है। पाक पर दबाव भी बनाया जा रहा है कि लादेन पाकिस्तान में ही छिपा बैठा है और वहां के हुक्मरान उल्टा उसकी मदद कर रहे हैं। कई बार अमेरिका चच्चा ने लादेन का तगादा उनसे किया है, पर पाक भाई कोई जवाब ही नहीं दे पाता। अब जरदारी करें भी तो क्या, कूछ सूझ नहीं रहा था कि तभी उन्हें एकता कपूर के सीरियल की याद आ गई, जब मिहिर को अचानक मार दिया जाता है।

फिर क्या था, जरदारी साहब फट से बोल पड़े कि लादेन मर गया है। वैसे लादेन पहली बार नहीं मरा है। पिछले आठ साल में वो कई बार मरा और जिंदा हुआ। जब उसे खोजने के लिए अमेरिका ने चांप चढ़ाई, तब-तब ये बयान सुनने को मिला कि उसकी मौत हो चुकी है। ऐसा लगता है कि लादेन का पुर्नजन्म होता रहता है, क्योंकि जब-जब उसके मरने की बात होती है, तब-तब कोई न कोई वीडियो संदेश जारी हो जाता है और अमेरिका की घिग्घी बंध जाती है। हो सकता है कि ओसामा का भूत ऐसे वीडियो जारी करता हो और बाद में गायब हो जाता हो, पर परी किस्सों की मानें तो भूतों का अक्स दिखता ही नहीं है, फिर ये कौन है जो ओसामा बनकर लोगों को डरा रहा है।

हो सकता है मॉडर्न जमाना है, ओसामा का भूत भी हाइटेक हो। अबकी जरदारी साहब ने उसे मारने का प्रयास किया है, लेकिन लगता नहीं कि बिना सबूतों के अमेरिका उनकी बात मानेगा भी। खर, ड्रामा की पटकथा देखकर तो ऐसा ही लगता है कि एकता कपूर का आइडिया चुराया गया है। अभी तक तो एकता ही अपने किरदारों को अपनी मर्जी से मौत की नींद सुला सकती थीं और जब मन चाहे जिंदा कर देती थीं, पर अब पाक नेताओं के साथ जरदारी साहब ने भी एकता के कहानी की नकल करनी शुरू कर दी है।
धर्मेद्र केशरी

कौन बना पप्पू?

अभी मेरा वोट बचा हुआ है। बचा इसलिए है मतदान कुछ दिनों बाद है। टीवी पर विज्ञापन, रेडियो पर विज्ञापन, अखबार में विज्ञापन देख-देखकर इस बार ये तय कर ही लिया है कि वोट डाल कर रहूंगा। पप्पू नहीं बनना है, सिर्फ इसलिए। सोचा, सोच लूं कि किसे वोट देना है। सबसे पहले मेरे विचार में वो पार्टी आई, जो देश पर एक अरसे से राज कर रही है, महंगाई जिसकी करीबी रिश्तेदार है और इस पार्टी के बाद उसे भी यहां जयर आना है। अब तो व्यक्तिगत उसका राज भी नहीं कह सकते, क्योंकि उनके पीछे ‘दलाल पार्टियोंज् की लंबी कतार है, जो चुनाव के बाद सौदेबाजी करेंगे।

कभी इधर तो कभी उधर पाला बदलने के मूड में अभी से हैं। पेंडुलम की तरह लटक रहे हैं, जिधर फायदा दिखेगा, निकल लेंगे। फिर मेरा ख्याल भगवा पार्टी की ओर गया। उन्हें देखते ही पुरानी बात याद आ गई, हिंदू, राम, कंधार विमान अपहरण, संसद हमला और भी न जाने क्या-क्या। इस पार्टी का विचार आते अजीब-सा एहसास होने लगा। फिर मैंने सोचा हाथी की ही सवारी कर लेते हैं, लेकिन अब हाथी की सवार महंगी हो गई है। खासकर तब से जब से उसके दिमाग में हाथी राजा बनने का फितूर सवार हुआ। अपने बाड़े की अनदेखी कर वो पूरे हिस्से पर कब्जा चाहता है। मैंने भी ‘बहुधन समाज पार्टीज् से हाथ जोड़ लिए।

अब करूं तो क्या करूं। साइकिल पर बैठ नहीं सकता, तीर कमान से दूरी ही अच्छी, हंसिया हथौड़ा कब रुठे कब चाय पर बैठ जाएं, कोई भरोसा नहीं। खर, हमारे देश में इतनी पार्टियां हैं कि विकल्प हमेशा खुला ही रहता है। तीन दिन तक मैं सभी पार्टियों के बारे में देखता, सुनता और समझता रहा, लेकिन कोई भी ऐसी पार्टी नहीं लगी, जिससे अपना वोट दे दूं। सच बताऊं इनके कारनामे देखकर वोट देने का मन ही नहीं करता, क्योंकि ये हमें हमेशा पप्पू बनाते आए हैं। बड़ी उधेड़बुन में हूं, वोट नहीं देता फिर भी पप्पू, दे दूं तो पप्पू बनना तय है। तभी मुङो बेचार सिंह दिखाई पड़े। मुङो देखते ही मेरी परेशानी पूछ बैठे।

मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई तो चाचा बेचार सिंह ने कहा- बेटा आज तो सभी नता और पार्टियां भ्रष्ट हैं, हमें चुनना उसी को है, जो कम भ्रष्ट हो। मैं तो दशकों से आजमाता आ रहा हूं, कोई उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है, पर हिम्मत नहीं हारा हूं और आज भी इसी उम्मीद के साथ वोट देने जा रहा हूं कि शायद इन खद्दरधारियों का मन बदल जाए और ये जनता की वोट को सार्थक कर सकें। मैंने भी आखिरकार यही किया और फिलहाल तो पप्पू बनने से बच गया पर आगे..?
धर्मेद्र केशरी

Thursday, April 16, 2009

क्या-क्या sahenge लौहपुरुष

कुर्सी जो करवा दे, वो कम। इस उम्र में भी इतना कुछ ङोलना पड़ रहा है। एक साथ कितने बवाल ङोलेंगे, लौहपुरुष आडवाणी जी। सभाओं ने हैरान तो कर ही रखा है अब श्रोता और जनता भी परेशानी की वजह बन गए हैं। पता नहीं वोटिंग के दिन वोट देंगे या नहीं, लेकिन अपना ‘चप्पलाशीर्वादज् जरूर दे रहे हैं। एक रैली में उन्हें ये दिन देखना पड़ा जो उन्होंने भरी जवानी में कभी नहीं देखा होगा। खर, अब आडवाणी जी भले ही खिसिया रहे हों, लेकिन चुनावी मौसम में पक्का उसे माफ कर देंगे। जनता भी कम नहीं, उन्हें पता है कि पांच साल तक बंदा शक्ल नहीं दिखाने वाला, कोर-कसर अभी निकाल लो।

सारा कसूर बुश पर चले जूते का ही है। वही अपनी बिरादरी को उकसा रहा है। इराक में चले जूते ने इतनी आवाज की कि दुनिया भर के जूते-चप्पलों का स्वाभिमान जाग गया है। अब वो पैरों में ही नहीं पड़ना चाहते, सिर पर भी पड़ने को आतुर हैं। कभी पूंजीवादी जूते पड़ते थे, अभी भी पड़ रहे हैं, लेकिन कहते हैं ना कि हर किसी का दिन बदलता है। चुनावी मौसम में लोकतांत्रिक जूता पड़ रहा है और लोग खुशी-खुशी इसे खाने को तैयार भी हैं। वोट की खातिर जूता महात्म्य की पूजा होने लगी है। लौहपुरुष जी, वो चप्पल इस दुर्घटना का जिम्मेदार नहीं है, बल्कि बुश पर पड़ा जूता इन सब का अगुआ है।

प्रधानमंत्री बनने पर इन्हें छोड़िएगा नहीं। खर, बात अपने नेताजी के तकलीफ की हो रही है। इधर सोनिया गांधी उन पर कंधार बम फोड़ रही हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें बयान बहादुर करार देते हैं। राहुल और प्रियंका भी कम नहीं, जसे आडवाणी जी को ही निशाने पर ले लिया हो। बाबरी मस्जिद का अतीत भी उनका गला पकड़े हुए है। तल्खी का आलम तो ये है कि पी एम और पी एम इन वेटिंग की बोलचाल फिलहाल बच्चों की तरह बंद हो गई है। जिन्ना की समाधि से निकला भूत भी अभी उनके पीछे ही है और लगता नहीं कि हाल-फिलहाल पीछा भी छोड़ेगा।

वो भी सेाच रहें होंगे, कहां जिन्ना के चक्कर में फंस गए। था छत्तीस का आंकड़ा, मिसाल महानता की दे दी। एक अकेले नेता पर चारों ओर से गोले दागे जा रहे हैं। ऊपर से ये चप्पल कांड। लौहपुरुष होने का एक फायदा तो है, इसीलिए इतना बवाल भी ङोल पा रहे हैं आडवाणी जी। अब तो राम ही इनकी कुछ मदद कर सकते हैं, पर इस बार भगवान राम भी नाराज चल रहे हैं। वजह, राम का नाम बार-बार बदनाम जो हो रहा है।
धर्मेद्र केशरी

pappu पर भारी है

पहले के जमाने में ‘पप्पूज् और मुन्नाज बहुत देखने को मिलते थे। कहने का मतलब ये कि पहले ये नाम बहुत रखे जाते थे, लेकिन जबसे अमिताभ बच्चन ने पप्पू का नाम खराब किया है, बेचारा पप्पू तो पप्पू, मुन्ना के दिन भी खराब रहने लगे हैं। क्यों भई, पहले बिग बी ही ने तो कहा था ‘पप्पू पास हो गया फिर तो भइया ‘पप्पुओं की जान पर बन आई। लोग कहने लगे ‘पप्पू कांट डांस साला। अदालत भी पापपुओंज को ढील देने की फिराक में नहीं है।

अपने एक पप्पू भाई भी चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी कर चुके थे, लेकिन कोर्ट का ऐसा डंडा पड़ा है कि उनसे कुछ कहते ही नहीं बन रहा है। पप्पू यादव को कोर्ट ने लाल बत्ती दिखा दी है अब वो चुनाव नहीं लड़ सकते। अब आप ही बताइए, पप्पू के साथ नाइंसाफी हुई कि नहीं। हत्यारोपी है तो क्या हुआ, जनता की सेवा तो कर ही सकता है। सेवा का नमूना बंदा दिखा ही चुका है।

अब ‘पप्पुओंज् की दुर्दशा न होती तो शायद ये ‘पप्पूज् भी बच जाता, लेकिन जब ‘पप्पू खुद ही अपनी दुर्दशा के जिम्मेदार हों तो कहा भी क्या जा सकता है। मुन्ना के साथ भी वही परेशानी है। वही, अपने मुन्नाभाई, जो पर्दे से निकलकर सियासत में आने की योजना बना रहे थे। कोर्ट ने उन्हें याद दिला दिया कि वो सजायाफ्ता कैदी हैं, जो एक संगीन जुर्म की सजा काट रहा है। कोर्ट की छड़ी संजय सह नहीं पा रहे हैं और अमर सिंह इस मौके को खोना नहीं चाहते हैं। वो संजय के कंधे पर बंदूक रखकर दाग रहे हैं और संजय हैं कि अमराघिन्नी में फंसते चले जा रहे हैं।

राजनीति के ‘राखी सावंत अमर सिंह मुन्ना भाई को लें-देन raajnitee का पाठ सिखा रहे हैं। वैसे आपको बता दें कि संजय को अमर सिंह ने नया काम भी दे दिया है। अगर आपको किसी के कारनामों को खुफिया कैमरे में कैद करवाना हो तो अपने ‘मुन्नाभाई से संपर्क किया जा सकता है। संजय दत्त सिर्फ केंद्रीय मंत्रियों का ही स्टिंग ऑपरेशन करते हैं, इसके अलावा वो छोटे-मोटे लोगों पर रिस्क नहीं लेंगे। सर्किट भी मुन्ना के कारनामे देख कर दंग है। वो तो यही सोच रहा है कि सारे ‘जुगाd तो वही मुन्ना भाई के लिए सेट करता आया है। अमर सिंह सर्किट की नौकरी खाने के मूड में हैं। जो भी हो, एक बात तो तय है कि चाहे कोई भी ‘मुन्नाज् और ‘पप्पूज् कितना भी जतन कर ले, अगर वो कानून की फाइलों में है तो कोर्ट ऐसे सभी ‘पप्पुओंज् और ‘मुन्नाओंज् पर भारी है।
धर्मेद्र केशरी

Monday, March 30, 2009

पाक ढूढ़े इस दर्द की दवा

बाघा से महज 6 किलोमीटर दूर दहशतगर्दो ने पाकिस्तान की एक पुलिस छावनी को निशाना बनाया। हालांकि आठ घंटे में ही पाकिस्तान की सरकार ऑपरेशन पूरा होने की बात कर रही है, लेकिन आतंकियों ने अपना काम कर ही दिया। तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की जान चली गई इस हमले में। सैकड़ों परिवार इस वारदात से प्रभावित हुए हैं। सच तो ये है कि पाकिस्तान में जो कुछ भी चल रहा है वो पूरी दुनिया के लिए अच्छा संदेश नहीं है।

पाक हमारा पड़ोसी देश है, ऐसे में वहां जो कुछ भी होता है उसका असर हमारे देश में भी देखने को मिलता है। जरा सोचिए, भारत से चंद किलोमीटर की दूरी पर एक ट्रेनिंग सेंटर को दहशतगर्दो ने अपना निशाना बनाया है, ये देश के लिए भी चिंताजनक बात है।
पाकिस्तान को न जाने ये बातें क्यों समझ में नहीं आ रही है कि जिस फसल को वो तैयार कर रहा है वही एक दिन उसका भी सर्वनाश कर देगा। आतंकवाद के कैंसर से ग्रस्त देश को अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आएगा भी कैसे, वहां लोकतंत्र का नामोंनिशां भी नहीं है।

राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे ही हिंसक तत्वों को बढ़ावा देने में लगी हुई हैं। खुद तो आतंवाद की भयंर चपेट में हैं और भारत को भी आए दिन इसका शिकार बनाते रहते हैं। श्रीलंका के खिलाड़ियों पर हुए जानलेवा हमले के बाद खबर में हुआ धमाका और अब मुनावां ट्रेनिंग सेंटर पर बड़ा हमला, पाकिस्तान घाव पर घाव ङोलने के बाद भी सही राह पर नहीं आ रहा है।

खुद को खुदा का जेहादी बंदा कहने वाले लोगों को अब भी नहीं समझ में आ रहा है कि खुदा कभी किसी का खून बहाने के लिए नहीं कहता है। खुदा तो पाक है, पर उनके बंदों के इरादे क्यों नापाक हैं। तालिबान अलग आंखें तरेर रहा है, ओसामा का खौफ भी पाक को सता रहा है, तमाम आतंकी संगठन, जिन्हें पाक अपनी रीढ़ समझता था अब वही पाकिस्तान की रीढ़ तोड़ने में लगे हुए हैं। अब भी पाकिस्तान को समझने की जरूरत है। भारत पर हुए आतंकी हमलों को लेकर नानुकुर करने वालों को अब ये दर्द समझ में आ रहा होगा कि मासूमों की जिंदगी की क्या कीमत होती है।

अगर ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान का नाम एक नाकाम राष्ट्र के रूप में लिया जाएगा, जिसकी शुरुआत तो फिलहाल हो ही चुकी है। भारत को सचेत रहने की जरूरत है, क्योंकि यहां भी आतंकी हमले होते रहते हैं। आईपीएल को देश से बाहर ले जाने की जरूरत इसीलिए पड़ी, क्योंकि यहां खिलाड़ियों की सुरक्षा नहीं दी जा सकती थी। अगर भारत प्रभावित न होता तो मैच यहीं पर होते। भारत सरकार को अपने नागरिकों के साथ ही विदेशी नागरिकों की सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान देना होगा, नहीं तो पाकिस्तान के साथ भारत की भी किरकिरी होगी। पाकिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है वो पाक की ही देन है। भारत को और भी सचेत हो जाने की जरूरत है।
धर्मेद्र केशरी

आजाद देश के गुलाम

देश की आजादी को कितने साल हो गए होंगे। गुस्सा मत होइए। आपको पता है, लेकिन कसम खा के कहता हूं कई लोगों को ये भी नहीं याद होगा कि हम कब आजाद हुए थे। रोजी-रोटी का चक्कर ही ऐसा है बाबू। आजादी मिले साठ साल पार हो चुके हैं। अब हम गुलाम नहीं है। ऐसा ही कुछ भाषणबाजी मैं अपने दोस्तों में कर रहा था। मैं ठहरा पत्रकार, तो मेरे दोस्त भी मेरी बात पर कान धर के सुन रहे थे। तभी मेरा पुराना दोस्त चिरकुट प्रसाद जोर से बोला- किसने कहा गुलाम नहीं है हम? मैं सिटपिटा कर उसकी ओर देखने लगा, फिर बोला- बेटा, अपने देशवासियों की बात कर रहा हूं।

मेरी बात सुनकर उसकी भौंहे चढ़ गई, बोला- मैं कहां का रहने वाला हूं, इसी देश का ना! फिर भी बाप-दादा का कर्ज उतारने के लिए मुफ्त में कब से खप रहा हूं। बता, गुलाम हुआ कि नहीं! खर, मेरी छोड़ तू जिस भारतीय क्रिकेट पर नाज करता है, उनके खिलाड़ियों के बारे में बता, क्या उनका हाल भी सालों पुराने गुलामी प्रथा की तरह नहीं है। देश के लिए खेलते हैं तो गर्व होता है, लेकिन आईपीएल के लिए अपने मालिकों की बात नहीं मान रहे हैं क्या। मालिक जो कहेंगे, ये वही करेंगे। कहेंगे दक्षिण अफ्रीका चलना है, वहां मैच खेलना है। भले ही देश के भविष्य की बात क्यों न हो, लेकिन इन्हें वोट से ज्यादा क्रिकेट से मिलने वाले पैसे पर ध्यान देना होगा।

वैसे भी बीसीसीआई को पैसों की खनक से मतलब है, वोट, सरकार, देश के भविष्य से उसका क्या लेना-देना। पैसे होंगे तो किसी की भी सरकार हो, रहेगी इनके पीछे ही। बेचारे खिलाड़ी खुलकर अपना दर्द भी बयां नहीं कर सकते। बता, ये गुलामी है कि नहीं। बीसीसीआई पूंजीवादी मालिकों की तरह व्यवहार नहीं करती! करती है और ये बात सभी को पता है। हां, थोड़ा हाइक्लास गुलामी कह सकता है। अंतर सिर्फ इतना है कि कभी गोरों ने हमसे गुलामी करवाई, अब भारतीय ही हमसे वही काम करने को कह रहे हैं।

सच्चाई तो यही है कि यहां हर कोई किसी न किसी का गुलाम है। इस पूंजीवादी दौर में हर कोई गुलाम बनने को मजबूर है। सदियों पुराना नियम है, जिसके हाथ में पैसा है, ताकत है, वही मालिक है। अपने नेताओं को भी देख ले। इतना कहकर वो हाथ में झोला लटकाए निकल गया। मैं सोच में पड़ गया कि आखिर हम सच में आजाद हैं या आजाद देश के गुलाम!
धर्मेद्र केशरी

Friday, March 20, 2009

यू टर्न में माहिर

यू टर्न आधुनिक समय में बहुत काम का शब्द है। आपने अभी तक सड़कों पर ही यू टर्न देखा होगा, लेकिन इस एक शब्द की महत्ता इतनी बढ़ गई है कि हर जगह इसे शिरोधार्य किया जाने लगा है। सियासत में इस शब्द के अपने अलग मायने हैं। मायने क्या, ये एक प्रकार की योगयता है, जो लगभग सभी नेताओं में पाई जाती है। राजनीति की दुकान मंदी चल रही हो, किसी को कुछ कह दिया हो या कोई उल्टा-सीधा काम करके विवाद खड़ा कर लिया हो तो कायदे से यू टर्न लिया जाता है। विश्वास न हो तो उमा भारती को देख लीजिए।

ये यू टर्न की माहिर और अभ्यस्त खिलाड़ी हैं। भगवा चोला ओढ़ कर तो वो कायदे से यू टर्न लेती हैं। पहले तो उन्होंने भाजपा पर इल्जाम लगाते हुए पार्टी से यू टर्न ले लिया। अपनी नई पार्टी बनाई। विधानसभा चुनावों में अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को थपड़ियाया, फिर यू टर्न लेते हुए उसे चूमा भी। फिलहाल कुछ नए तरीके का यू टर्न ले रही हैं, यू टर्न का रूप वही है बस मुद्दा बदल गया है। भाजश की दुकान न चलते देख उन्होंने अपनी पुरानी पार्टी की ओर यू टर्न ले लिया है। उमा ‘राग विद्रोहज् छोड़कर ‘राग आडवाणीज् के सुर अलापने लगी हैं। ये उनका नया यू टर्न है।

यू टर्न मारने में और भी धुरंधर हैं, जो उनसे कहीं आगे हैं। साधु यादव तो और भी कमाल हैं। जीजा की सरकार में बहुत मजे काटे, पर जब जीजा लालू ने लोजपा से हाथ मिलाया तो वो गुस्सा गए और कांग्रेस की ओर यू टर्न ले लिया। अमर सिंह कभी पार्टी को कोसते हैं तो कभी अपनी नाराजगी जताते हैं, पर यू टर्न लेने में सिद्धहस्त हैं।

मुलायम सिंह यादव तो उनकी यू टर्नी कला पर मंत्रमुग्ध हैं। इस आम चुनाव के आगाज ने कई यू टर्न दिखाए हैं। अरसे से एनडीए के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वालीं ममता बनर्जी को कांग्रेस में फायदा नजर आया तो उन्होंने भी उधर ही यू टर्न ले लिया। वाम दल यू टर्न लेते-लेते घनचक्कर हो गए हैं कि जाएं तो जाएं कहां। मायावती तो उत्तर प्रदेश की गद्दी से सीधे प्रधानमंत्री पद पर यू टर्न लेने की सोच रही हैं। बस, बेचारी जनता का ही हाल बुरा है। वो जितनी बार यू टर्न लेती हैं, उतनी बार दुगुना धोखा खाती है। उसे क्या पता यहां तो हर शाख पर यू टर्न लेने वाले उल्लू बैठे हुए हैं।

धर्मेद्र केशरी

अनोखा इंटरव्यू

अखबार के विज्ञापन पर मेरी नजर चली गई। मजमून कुछ ऐसा था- आवश्यकता है, ऐसे बंदों की जो कुछ भी आसानी से कैच कर सकते हों, उतनी ही ताकत से वापस फेंक सकते हों। शिक्षा अनिवार्य नहीं, कद का भी पंगा नहीं, तेवर जुझारू हों, वेतनमान- पांच अंकों में। विज्ञापन देखते ही मेरी बांछें खिल गईं। मैं ठहरा नाकामयाब क्रिकेटर, क्रिकेट में मैंने अपनी जवानी गंवा दी थी। एक खेल के चक्कर में दीन दुनिया से बेघबर मेरे जसे बंदे के लिए ये विज्ञापन किसी रामबाण से कम नहीं था। जो भी अर्हताएं थीं, में उनमें फिट बैठ रहा था। निकल लिया इंटरव्यू देने।

बढ़ी दाढ़ी और हाथ में तमाम खेल प्रशंसाओं का पुलिंदा लिए मैं साक्षात्कारकर्ता के सामने था। इंटरव्यू लेने वाले को देखकर मैं सोच में पड़ गया। मैंने सोचा था कि इंटरव्यू लेने वाला सूट-बूट-टाई में राजा बाबू बनकर बैठा होगा, पर ये महाशय तो सफेद खद्दर कपड़ों में पान चबाए कुर्सी पर लात धरे बैठे थे। वो एक नेता जी थे। मेरे पहुंचते ही पीकदान में पान थूकते हुए पूछा- क्या-क्या कर सकते हो? कैच-वैच करना जानते हो कि नहीं।

मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा- सर, मैं अपनी गली का नामी क्रिकेटर हूं, मैं कैच पकड़ने में माहिर हूं। आपकी ओर से अच्छा क्रिकेट खेलूंगा। यकीन मानिए, आपकी टीम कभी हारेगी नहीं। इतना सुनते ही नेताजी बोले- वो सब तो ठीक है। लेकिन यहां कोई मैच-वैच नहीं खेलना है। मैं चकरा गया- मैच नहीं खेलना है तो फिर क्या करना है। नेताजी ने कहा- तुम माइक-वाइक कैच करने में माहिर हो या नहीं?

मैंने कहा- सर, मैंने आजतक सिर्फ गेंदें कैच की हैं, माइक तो नहीं। अब नेताजी खिसिया गए- लगता है तुमने विज्ञापन ठीक से नहीं देखा। मुङो ऐसा बंदा चाहिए, जो माइक, कुर्सी, कागज का गोला और पेपरवेट पकड़ने में माहिर हो। सिर्फ पकड़ने में ही नहीं, बल्कि पलट के वार करने में भी सक्षम हो और अगर कोई आंखें तरेरे तो पटकी-पटका करने में भी सक्षम हो। तुमने देखा नहीं हमारे यहां संसद हो या विधानसभाएं जमकर फेंकाफेंकी होती है। ऐसे में अकेल तो मैं सब कुछ कर नहीं सकता, इसीलिए विज्ञापन दिया था ताकि कोई मुस्तंडा मेरी ओर से लोहा ले सके। तुम इस पद के लायक नहीं हो, अगर ये सब कर सकते हो तो बोलो, कल से ही काम पर आ जाना। मेरा सिर घूम रहा था, मैंने तो सोचा था कि क्रिकेट की प्रैक्टिस भी हो जाएगी और कुछ रुपए भी आ जाएंगे, पर वहां तो कुछ और ही गड़बड़ घोटाला था। मैं सिर पकड़ते हुए ऑफिस से बाहर निकल आया।

धर्मेद्र केशरी

स्लमडॉग की दहाड़

एक जुमला हमेशा सुनने को मिलता है कि ‘हर कुत्ते का दिन बदलता है।अभी तक तो ये सुन रखा था, अब साक्षात देख भी रहा हूं। सच में कुत्ते का दिन बदलता है, वो भी गली के खुजलीवाले कुत्ते का। अब तो आप से भी नहीं कह सकते कि फेंक रहा है। जमाना ही स्लमडॉग का है। स्लमडॉग ने गली के कुत्तों में नया जोश भर दिया है। गाड़ी में घूम रहे, ऐशो आराम में रह रहे कुत्तों को जब गली के कुत्ते देखते हैं तो भौंककर ये जताने की कोशिश करते हैं कि ‘लो हम तो ऑस्कर तक पहुंच गए, तुमने कोई तीर मारा है।

मैं ठहरा कुत्तों से डरने वाला। रात को अपनी गली से गुजरते हुए घर को जा रहा था। मुङो देखते ही एक कुत्ता जोर से भौंका। एहतियातन मैंने एक पत्थर उठा लिया। सोचा कि कुत्ता डरकर भाग जाएगा। मेरे हाथ में पत्थर देखकर कुत्ता बोला-ओए, मारना मत, अब हम वो वाले कुत्ते नहीं रह गए हैं। हमें सम्मान की नजर से देखा जाने लगा है, देखा नहीं ऑस्कर जीतकर आए हैं। मैंने कहा- कहां सम्मान की नजर से देखा जाने लगा? अपने यहां या वहां, जिन्होंने ऑस्कर दिया है? कुत्ता चुप रहने वाला नहीं था, बोला- सभी जगह, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि अब पूरी दुनिया में स्लमडॉग का सिक्का चल गया है।

लोग हमें नए नाम से जानने लगे हैं। मैंने समझाने की गरज से कहा- ठीक है, नाम कमा लिया, लेकिन इतना जरूर सोच लो कि कहा तो तुम्हें कुत्ता ही जा रहा है। मेरा इतना कहना था कि कुत्ता मरे ऊपर झपटने के लिए तैयार, मैं जान बचाकर वहां से भागा। मेरी छोड़िए, अपने धर्मेद्र पाजी का हाल तो और भी बुरा है। अब उनके लोकप्रिय डायलॉग ‘कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊंगाज् पर उंगलिया उठने लगी हैं। सालों से कुत्तों का खून पीने की बात हो रही है इससे कुत्तों की एशोसिएशन सरकार से मदद मांगने वाली है कि वो ‘स्लमडॉगज् की मदद करें। कुत्ते तो एक शिकायत मेनका गांधी के ऑफिस में भी देने वाले हैं ताकि उनकी फरियाद सुनी जा सके।

उन्हें विश्वास है कि भले ही मेनका जी ने अभी तक उनकी दुर्दशा पर ध्यान न दिया हो, लेकिन अब जरूर देंगी। मुंबई के कुत्तों को अपनी बात रखने का मौका मिल गया है, उनकी एक टीम बीमएसी से फरियाद कर रही है कि उन्हें न मारा जाए, क्योंकि वो ‘स्लमडॉगज् हैं। जब वो इस देश से स्लम नहीं खत्म कर पा रहे हैं तो ‘स्लमडॉगज् खत्म करने का भी हक नहीं है। बहाना कोई भी है, ‘स्लमडॉगज् के दिन तो बहुरे।

धर्मेद्र केशरी

रियासत की सियासत में वसीयत

कहते हैं कि आज तक हुई किसी भी लड़ाई के पीछे तीन ही कारण हुए हैं ‘जर, जोरू और जमीनज्। इनके चक्कर में भाई, भाई का दुश्मन हो जाता है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी जीती जिंदगी में कभी नहीं चाहा कि उनका परिवार भी जायदाद के फेर में पड़े, पर ऐसा हो नहीं पाया। बीते साल 27 नवंबर को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में वी पी सिंह का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया।


वो 17 सालों से गुर्दे की बीमारी से पीड़ित थे और तभी से डायलिसिस पर चल रहे थे। उनकी राजनीतिक उपलब्ध्यिों की चर्चा करने के बजाय यहां पारिवारिक स्थितियों का जायजा लिया जा रहा है। उनके परिवार में जिस तरह से मतभेद चल रहे थे उससे यह तय हो गया था कि राजा मांडा की मौत के बाद जमीन-जायदाद को लेकर संघर्ष होना ही है, लेकिन यह नहीं पता था कि उनकी मौत के ठीक एक महीने बाद ही रियासत पर सियासत तेज हो जाएगी। 28 दिसंबर की रात देश के पूर्व प्रधानमंत्री के पारिवारिक कलह की कलई भी खुल गई, जब वी पी सिंह के पौत्र अक्षय सिंह को कंपकंपाती सर्दी में मांडा कोठी से बेइज्जत करके बाहर निकाल दिया गया।


इलाहाबाद के मांडा क्षेत्र में वी पी सिंह की पुश्तैनी जमीन है। मांडा में ही उनका एक कोठी (मोतीमहल) भी है। सिर्फ कोठी ही नहीं आज भी अरबों से ज्यादा की संपत्ति उनके नाम है। अक्षय को वी पी सिंह के बड़े बेटे अजेय प्रताप सिंह के कहने पर वहां के रखवालों ने खदेड़ दिया। अक्षय ने मांडा थाने में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन कोई एक्शन नहीं लिया गया। दरअसल, विश्वनाथ प्रताप के मृत्यु के पहले ही उनके परिवार में घमासान मच चुका था। राजा मांडा के दो बेटे हैं, बड़े हैं अजेय प्रताप सिंह और छोटे डॉक्टर अभय प्रताप सिंह।


अजेय प्रताप की दो बेटियां हैं, जबकि अभय को एक बेटी और एक बेटा है। अक्षय अभय प्रताप की ही संतान हैं। पहले वी पी सिंह का पूरा परिवार मांडा और इलाहाबाद की कोठियों में ही रहा करता था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद अजेय सिंह और उनकी पत्नी श्रुति सिंह भी उनके साथ दिल्ली आ गए। अभय की शादी मनकापुर रियासत के राजा आनंद सिंह की बेटी निहारिका सिंह से हुई। शादी के बाद वो अमेरिका चले गए।


सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन पता नहीं किन कारणों से निहारिका बच्चों को लेकर हिंदुस्तान वापस आ गईं। उधर अभय प्रताप सिंह ने अमेरिका की नागरिकता भी हासिल कर ली और निहारिका को तलाक दे दिया। खर, संबंध विच्छेद क्यों हुआ ये कोई बताने को तैयार नहीं, लेकिन तलाक के बाद भी निहारिका और अभय में बातचीत होती थी।


इकलौता पौत्र होने के वजह से वी पी सिंह अक्षय को बहुत प्यार करते थे। यही वजह था कि अक्षय वी पी सिंह के साथ कई राजनीतिक दौरों पर भी जा चुके थे। अक्षय को विरासत का दावेदार माना जा रहा था, पर असलियत कुछ और थी। वी पी सिंह की मौत के कुछ महीने पहले बने वसीयत के आधार पर 6 गांव मांडा, नेहरू प्लेस नई दिल्ली का बेसमेंट, ऐश महल इलाहाबाद, खानदानी सिंहासन और समस्त चांदी अपने बड़े बेटे अजेय प्रताप सिंह के नाम कर दिया गया। दिल्ली की जायदाद जसे,बाराखंभा रोड, नेताजी सुभाष पैलेस, कैलाश कॉलोनी मार्केट और उत्तरांचल स्थित मांडा कोठी की मिल्कियत उन्होंने अपनी पत्नी सीता कुमारी के नाम किया है।


वसीयत के मुताबिक सीता कुमारी की मृत्यु के बाद ही अभय प्रताप उस संपत्ति के वारिस होंगे। दरअसल, अजेय प्रताप सिंह अपने पिता की राजनीतिक विरासत के अलावा संपत्ति का मालिकाना हक लेने के भी फिराक में हैं। खबर है कि अजेय मायावती की पार्टी से हाथ मिलाने वाले हैं और हो सकता है मायावती फतेहपुर लोकसभा सीट पर उन्हें मौका भी दे दें। बसपा से संबंध मधुर होने के वजह से ही अक्षय की शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया गया। अजेय के मुकाबले अभय सज्जन किस्म के हैं। वो अपने ‘दादाभाईज् से बगावत करने से रहे, लिहाजा अक्षय की मां निहारिका अपने हक के लिए आगे आ गई हैं। अब लड़ाई मांडा स्टेट बनाम मनकापुर स्टेट हो गया है। आने वाले दिनों में मांडा से निकला ये संघर्ष और भी बड़ा हो सकता है।


अक्षय की मां निहारिका सिंह की चिंता भी जायज है। वो कहती हैं कि ‘अक्षय अगर वकील, डॉक्टर, टीचर या किसी प्रोफेशन में होते तो मैं चुपचाप बैठ जाती, लेकिन अक्षय के सामने जीविका का कोई साधन नहीं है ऐसे में पुश्तैनी जायदादा ही काम आती है।ज् उन्हें वी पी सिंह की मौत से पहले ही यह अंदेशा हो गया था कि अक्षय को प्रॉपर्टी से बेदखल किया जा सकता है, क्योंकि उनकी तरफ से (वीपी सिंह, अजेय सिंह, अभय सिंह और सीता देवी) अदालत में एक चेतावनी नोटिस दी गई थी कि अगर कोई प्रॉपर्टी पर हक का दावा करे तो उनका पक्ष भी सुना जाए।

निहारिका को लगता है कि असली वसीयत से छेड़छाड़ की गई है। उनको अपने पति से कोई शिकवा नहीं है। निहारिका ये भी कहती हैं कि उनके परिवार की ये परंपरा नहीं है कि वो कोर्ट-कचहरी में खड़े हों, अगर घर के लोग नाइंसाफी न करते तो ऐसी नौबत ही नहीं आती।

धर्मेद्र केशरी, नई दिल्ली

Wednesday, February 4, 2009

ये कैसी ‘श्रीराम सेना

एक दिन भगवान श्रीरामचंद्र सीता जी के साथ फुर्सत के पलों में बैठे थे। अचानक उनके दिल में ख्याल आया कि जरा अपने पूर्व कर्मभूमि ‘मृत्युलोकज् की भी खोज-खबर ले ली जाए। बादलों का पर्दा हटाकर उन्होंने नीचे देखा। देखा तो कुछ अराजक तत्व महिलाओं के साथ मारपीट कर रहे थे। तभी वहां सीताजी आ गईं, उन्हें देखकर रामचंद्र जी ने नीचे देखना छोड़ दिया। वो सीताजी की ओर देखने लगे। सीताजी भगवान की मनोदशा समझ गईं, बोलीं ‘आप को पता है नीचे क्या हो रहा है?ज् रामजी बोले- नहीं, मुङो तो नहीं पता, कौन हैं ये लोग जो महिलाओं पर अत्याचार कर रहे हैं? सीताजी के चेहरे के भाव बदल गए, वो बोलीं- ये आपकी ही तो सेना है, श्रीराम सेना।

राम जी को जसे काटो तो खून नहीं, वो चौंककर बोले- मेरी सेना! मेरी सेना ऐसा नहीं कर सकती, सुग्रीव और हनुमान ऐसा नहीं कर सकते हैं! सीताजी भगवान की जिज्ञासा ताड़ गईं, वो बोलीं- हां भगवन, ये आपकी ही सेना है, लेकिन आप हनुमान और सुग्रीव को दोष न दें, उनका कोई कसूर नहीं है, ये कलयुग की श्रीराम सेना है, इन्हें महिलाओं की आजादी रास नहीं आ रही है। भगवान श्रीाम का चेहरा गंभीर हो गया। वो कहने लगे- सीते, मुङो पता होता कि मेरे एक अवतार पर लोग इतना बवाल मचाएंगे तो मैं धरती पर कभी अवतार नहीं लेता। सच कहूं तो मुङो धरती की ओर देखते हुए भी डर लगता है। इस देश में अधिकतर मेरे ही नाम पर विवाद होता है, कभी मेरे मंदिर के नाम पर, कभी सेतु के नाम पर तो कभी मेरी सेना के नाम पर। यकीन मानो वैदेही, मैंने इन लोगों से कभी नहीं कहा कि तुम महिलाओं पर अत्याचार करो, मैं कभी महिलाओं की आजादी का विरोधी तो नहीं रहा हूं। इतना कहते ही भगवान श्रीराम सकुचाते हुए बोले- मुङो पता है कि तुम्हारी अग्नि परीक्षा लेकर मैंने एक गलती कर दी थी, उस मर्यादा को निभाने का खामियाजा मुङो आज भी भुगतना पड़ रहा है। मेरा संदेश तो महिलाओं और पुरुषों के लिए बराबर है कि मदिरापान किसी को नहीं करना चाहिए, फिर भी लोग न जाने क्यों मुङो ढाल बनाकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं।

सच कहूं, तो अब कभी अवतार लेने का मन नहीं करता है। जब लोग मेरे नाम का सहारा लेकर ढोंग करते हैं तो बड़ी तकलीफ होती है। सीताजी चुप रहीं, उन्होंने बस इतना कहा- आप इतना परेशान न हों प्रभु, आधी आबादी अभी भी उपेक्षित है प्रभु, जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी,स्त्रियों पर ऐसे अत्याचार होते रहेंगे।

धर्मेद्र केशरी

एकता की खुशी

एकता कपूर देवी के चेहरे पर बड़े दिनों बाद मुस्कान लौटी है। एकता मैडम इस खुशी को छिपा नहीं पा रही थीं। मुझसे मुठभेड़ हो गई। खुश क्यों थी ये तो मैं जानता था लेकिन आदत से बाज नहीं आ सका। मैंने पूछा एकता जी इतने दिनों कहीं योग शिविर में चली गई थीं क्या? एकता का जवाब था- योग शिविर में जाने की जरूरत मेरे किरदारों को है, मैं कयों जाने लगी? हां, कुछ दिनों के लिए इस मुएं आइपीएल की वजह से मेरे सीरियलों की टीआरपी कम हो गई थी। टीआरपी कम तो कमाई पर असर पड़ता है।

कुछ दिनों बाद ही आइपीएल समाप्त होने वाला है। खुश होने वाली बात ही है अब मेरे रोने धोने वाले सीरियल फिर चल पड़ेंगे। आइपीएल लीग की वजह से सास-बहुएं, ननद-भौजाई,देवर-देवरानी मतलब पूरा परिवार मैच देखने में इतना वयस्त हो ताजा है कि मेरे सीरियलों को कोई देखता ही नहीं। एकता ने बताया- जो बंदा मुङो ग्लिसरीन बेचता है एक दिन मेरे पास आकर सच्ची के आंसु़ओं के साथ रोने लगा। कहने लगा मैडम जब से आइपीएल शुरू हुआ है आप मेरे ग्लिसरीन कम खरीदती हैं,मेरे धंधे पर असर पड़ रहा है। मैंने उसे समझाया- तू तो ग्लिसरीन की मंदी होने से रो रहा है, मेरा तो पूरा नुकसान करके रखा है इस आइपीएल ने। मैने पूछा- तो मैडम आपने क्यों नहीं दांव लगाया किसी एक टीम पर? एकता बड़ा गंभीर मुदा बनाकर बोली-क्रिकेट मेरे बस की बात नहीं।

असल में मुङो बॉस बनने की आदत पड़ चुकी है, अगर किसी ने मेरी बात नहीं मानी और बीच मैच में निकाल बाहर किया तो नया बखेड़ा खड़ा हो जाए। फिर रूलाने धुलाने की मुङो आदत पड़ चुकी है और यहां रोने धोने वाले कैरेक्टर नहीं मिलते हैं। एकता का इतना कहना था कि मैने तड़ से जवाब दिया- अरे मैडम अब क्रिकेट में सब कुछ है। एक्शन,डांस, रोमांस, क्लाईमेक्स सब कुछ। और किसने कहा कि आपकी बात नहीं मानी जाएगी। मैडम वैसे भी खिलाड़ी बिके होते आपकी सुनने को मजबूर, जो कहतीं सभी हुक्म बजाते नार आते। रही रोने धोने की बात तो श्रीसंत को अपने टीम में ले लेती। जब भज्जी मारता तो श्रासंत रोता जरूर, आपकी ये इच्छा भी पूरी हो जाती। सबसे बड़ी बात आइपीएल में आपकी कमाई भी होती।

सीरियल न सही, क्रिकेट सही। मुनाफा से मतलब। एकता मैडम मेरी बातों से सोच में पड़ गईं। सोच विचार कर बोलीं- कहते तो तुम ठीक हो लेकिन अब क्या हो सकता है, अगली बार ये चांस नहीं मिस करूंगी। फिलहाल आइपीएल लीग खतम होते ही राहत की सांस लूंगी। बड़ा दुख दिख है इस आइपीएल क्रिकेट लीग ने।

धर्मेद्र केशरी

आरक्षण की रेवड़ी

मुद्दा गरमाया है। जिसे जिसे बहती गंगा में हाथ धोना हो जल्दी करें। राजस्थान के गुर्जर समुदाय से सबक लें और फटाफट आन्दोलन शुरू कर दें। यही सही मौका है सरकार से अपनी बात मनवाने का। कहें कि हमारी जाति पिछड़ी है और केवल आरक्षण ही हमारा उद्धार कर सकती है। उन लोगों के लिए तो बड़ा ही मुफीद समय है जो लोगों के रहनुमा बनकर अपना भविष्य सुधारने की मंशा रखते हैं। हिम्मत दिखाइए और बैंसला साहब की तरह जाति के उद्धार आन्दोलन के नायक बन जाइए। बात मनवाने का तरीका बेहद आसान है। ट्रेन रोकिए, वाहनों को जलाइए, जगह-जगह तोड़ फोड़ तो बेहद जरूरी है। बस चक्काजाम ही कर दीजिए।

न इधर का बंदा उधर जा सके और उधर का इधर आने का साहस दिखाए। सरकार का पुतला वुतला जलाइए, सभाएं कीजिए। व्यवसाय अपना भी बंद कर दूसरों को भी न करने दें। उत्पात तो ऐसा मचाइएगा कि दस-बीस भगवान के द्वार जरूर पहुंचें। जब तक कफर्यू ना लगे, बवाल, बवाल नहीं लगता है इसलिए हिंसा की हद तक हिंसा करना जरूरी है। नाक में बिल्कुल दम करने की प्रतिज्ञा होनी चाहिए। फिर देखिए कौन ऐसा हिम्मती खादीधारी है जो आपकी बातों को नारअंदाा करने की हिराकत कर सके। सोचना सही है आपका। जातिवाद का मुद्दा ऐसा हैजब चाहेंगे कैश करवा लेंगे। और हां सरकार पर परफेक्ट दबाव बनाना है तो सरकार के विपक्षी दलों के महापुरूषों को पकड़ें। वो आग में घी डालने का काम तो करेंगे ही साथ ही साथ अपनी पापुलरिटी के लिए आप के साथ जरूर खड़े रहेंगे। वो अलग बात है कि आग लगाकर तमाशा देखने इनकी फितरत है।

किसी भी चीज़्ा का अनुभव ारूरी है। राजस्थान के गुर्जर समुदाय पर फोकस करें कि आखिर किस बारीकी से ये अपनी बात मनवाने की कला को अपना रहें हैं। प्रैकिटकल करना तो अति आवश्यक है तो हूाूर आरक्षण की चाह को मन में मत दबाइए। इस गुबार को निकलने दीजिए। अगर आपको लगता हैकि आरक्षण ही सफलता की सीढ़ी है तो इस सीढ़ी पर चढ़िए, क्योंकि अब आपका विश्वास पढ़ाई लिखाई या प्रतिभा पर नहीं आरक्षण पर आ टिका है। महानुभावों, राजस्थान के गुर्जरों का बवाल देखो, उठो और आरक्षण की मांग करो। डरो नहीं कि सरकार कितनी जातियों को आरक्षण देगी। बस पक्का इरादा करके उतरो। सरकार को अगर आपमें जबरदस्त फायदा नार आया तो मिल सकता है आरक्षण। वैसे अगर अभी नहीं आन्दोलन छेड़ सकते तो चाहे जब छेड़ देना। इस देश की उपज हो अपनी मर्जी के मालिक भी। आरक्षण की रेवड़ी बंटेगी ारूर। बस लगे रहो।

धर्मेद्र केशरी

क्या करें विजय माल्या

आजकल विजय माल्या बहुत उदास हैं। आइपीएल लीग उन्हे रास नहीं आ रही है। रास आएगी भी कैसे, उनकी टीम दनादन हार जो रही है। एक दिन मैं माल्या साहब का हाल जानने पहुंचा। माल्या साहब सिर पर हाथ धरे गंभीर मुद्रा में बैठे थे। मैनें पूछा क्या हुआ इतना परेशान क्यों दीख रहें हैं? विजय माल्या साहब थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले- यार कहां फंस गया मैं भी, इतना कहकर वो चुप हो गए। मैंने कुरेदा- अरे क्या हो गया जो आप जसा बंदा इतना परेशान है? माल्या साहब बोले- क्या बताउं, पहली बाार मुङो बिजनेस में नुकसान के आसार दिख रहे हैं। क्या सोच कर मैंने रूपए भिड़ाए थे, सारा प्लान गुड़-गोबर हो गया।

इज्जत का जो फालूदा बन रहा है सो अलग। बार-बार हार रहे हैं। मैंने दिलासा दिया- अरे हार जीत तो लगी रहती है। मेरा इतना कहना था कि वो उखड़ गए कहने लगे- मानता हूं कि हार जीत होती रहती है, लेकिन हार ही हार तो नहीं होती। बोली लगाने से पहले ही काली बिल्ली मेरा रास्ता काट गई थी। मैं समझ रहा था जिन जिन बूढ़े शेरों पर मैं रिस्क ले रहा हूं उनके बस की बात नहीं है ट्वंटी-ट्वंटी क्रिकेट खेलना। मैंने कहा भी था कि चुके हुए बंदो पर रूपए मत बर्बाद करो, लेकिन मेरी बात तो सुनी नहीं। घुसेड़ दिया कागजी शेरों को। जब टीम विदेश लेकर जाते थे तब जीते ही नहीं तो अब क्या खाक जीतेंगे। मेरी मति मारी गई थी जो मैने इन पर इतने रूपए बर्बाद कर दिए। अच्छी खासी दारू और हवाई जहाज में कमाई हो रही थी।

न जाने किस घड़ी में फंस गया क्रिकेट में जुआं खेलने के चक्कर में। काश ये गली क्रिके ट होती तो सबको रायल चैलेंज का एक-एक पैग पिलाता। फिर देखते क्या रिजल्ट होता। दनादन चौके छकके पड़ते, गिल्लियां उखड़तीं, लेकिन ये ठहरा इंटरनेशनल क्रिकेट ऐसा संभव ही नहीं है। इतना कहकर विजय साब चुप हो गए। मैंने पूछा- अब क्या करेंगे? उन्होने जवाब दिया- करेंगे क्या, फिर अपने ओरिजिनल बिजनेस में लौट आएंगे। समझ लेंगे एक जुआं खेला था हार गए, लेकिन दोस्त सही कह रहा हूं कि मुङो पता होता कि ये टेस्ट क्रिकेट खेलेंगे तो मैं आइपीएल में दांव ही नहीं खेलता। अगर खेलता भी तो बच्चों की टीम पर दांव लगाता इन पर नहीं। मैं विजय माल्या साब की खीझ समझ गया। लेकिन इसमें माल्या साब का दोष नहीं है, उन्होने तो बड़े खिलाड़ियों के नाम पर दांव खेला था।

धर्मेद्र केशरी

भूतों के लिए जगह कहां?

एक बार मेरे एक मित्र मेरे कमरे पर रात बिताने के लिए रूके। कमरा इसलिए कि एनसीआर में छोटे-मोटे लोग घरों में नहीं बल्कि तंग कमरों में ही रहते हैं। नींद नहीं आ रही थी तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। मेरे दोस्त ने अचानक मुझसे सवाल किया- भूत प्रेतों में यकीन करते हो कि नहीं? मैंने कहा- बिलकुल करता हूं, जब इस धरा पर इंसान हैं, भगवान हैं तो शैतान भी ारूर ही होंगे। उन्हे न जाने क्या सूझा कि कहने लगे कभी सच्ची के भूत को देखा है? मैं ठहरा डरपोक इंसान, मैंने कहा-यार भूत, चुड़ैलों की बात न करो तो बेहतर है। मैंने मना तो कर दिया फिर भी भूतों के बारे में जानने का इच्छुक भी था।

वो समझ गया कि मैं उसकी भूतिया कहानी में इंट्रेस्ट ले रहा हूं। मेरे मित्र ने अपनी आपबीती सुनाई कि- गांव में एक दिन जब वो खेत को पार कर रहा था तो कुछ लोग सफेद कपड़ों में जाते दिखे। पहले तो उसने वहम समझा। जब कुछ आगे बढ़ा तो फिर वही लोग सामने से टकरा गए। किसी तरह मन पक्का करके वह आगे बढ़ा तो फिर वही लोग दिख गए। अब तो उसका धर्य टूट गया और भागता हुआ घर पहुंच कर राहत की सांस ली। उसने बताया कि असल में वो भूत थे। मैंने पूछा- जब तुमने भूत देखा था तो टाइम कितना हो रहा था। उसने बताया कि यही कोई रात के एक से दो बजे के बीच का समय रहा होगा। मैंने घड़ी पर निगाह डाली पूरे डेढ़ बज रहे थे। थोड़ी देर बाद मेरे मित्र को नींद आने लगी उसने कहा कि बत्ती बुझा दो।

मैं डर रहा था मैंने कहा लाइट बंद कर दी तो नींद नहीं आएगी और क्या पता अंधेरे में कोई भूत-वूत आ गया तो? मेरा इतना कहना था कि वो हंसने लगा कहा- यार तुम भी कमाल की बात करते हो नोएडा में इंसानों के पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं है भूत यहां कहां से आ जाएंगे? नोएडा या दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में जब इंसानों के लिए जगह नहीं तो भूत बेचारे कहां विचरण करेंगे। दोस्त तुम्हे भूतों से डरने की कोई ारूरत भी नहीं क्योंकि यही हाल अब लगभग पूरे देश का हो गया है और जिस स्पीड से जनसंख्या बढ़ रही है भूतों के आने का कोई चांस ही नहीं बनता है। दोस्त की बात में दम था। लेकिन मैं कोई रिस्क नहीं ले सका और लाइट बुझाकर सोने का साहस मुझमें नहीं आया।

धर्मेद्र केशरी

एक युवक की जेलगाथा

कल मेरी मुलाकात कुछ दूसरे टाइप के बंदे से हो गई। दूसरा टाइप इसलिए कि वो कुछ दिन पहले ही जेल की हवा खाकर लौटा था। उन्नीस-बीस के करीब उम्र का बांका नौजवान था। जेल से आने के बाद वो बड़ा खुश था। मुहल्ले भर में उसकी धाक जो हो गई थी। कोई उससे ऊंची आवाज में बात करने का रिस्क नहीं उठाना चाहता था। इतनी कम उम्र में करोड़ों के महल का सुख भोग कर बड़ा गर्वान्वित था। खर, बात हो रही है मुलाकात की। मैने पूछा- कैसा रहा जेल का सफर? उसने सीना तानकर पुरुषार्थ गाना शुरू किया- वहां, वहां की तो बात ही अलग थी। सभी से मेरी जान-पहचान हो गई थी। जेलर के सामने ही कई लोग मुङो सलामी देने लगे थे।

जेल में इतने कम समय में मेरी तरक्की से जेलर भी बड़ा प्रभावित था। उसने कहना जारी रखा- एक बात है, जेल जाते ही कोई पूछे कि कया करके आए हो तो हमेशा मर्डर से कम बताना ही नहीं चाहिए। इज्जत कम हो जाती है फिर कोई भाव भी नहीं देता। मैं लूट के केस में गया था, लेकिन सबसे बताया था कि मर्डर करके आया हूं। बड़ा अपनापन सा जग गया था वहां। उसकी जेलगाथा सुनकर मुङो दिलचस्पी होने लगी, मैंने पूछा- और क्या-क्या अनुभव रहे वहां? उसने जवाब दिया- वहां कि तो बात ही मत पूछिए। बाहर से देखने पर बड़ा डरावना लगता है , लेकिन अंदर जाते ही खयालात बदल जाते हैं। ऐश करने की पूरी सुविधाएं मौजूद है वहां, जिसके जेब में पइसा है उसका मजा है। वहां मुङो एक साइकिल वाले नेताजी भी मिले। मुझसे इतने प्रभावित हुए कि कहा जेल से छूटते ही मिलना जरूर, तुम मेरे काम आ सकते हो और मैं तुम्हारे। पता है वो नाम भर के लिए जेल में थे।

नरम बिस्तर, कूलर, टी।वी।, चिलम, दारू सभी कुछ मिल जाता था उनके पास। और हां वो निठारी वाले पंधेर साहब भी वहीं थे, मैं तो उनके साथ ही रहता था। इन लोगों के साथ रहकर कुछ सीखने को ही मिल जाता था। सभी लोगों ने कहा है कि निकलने पर कांटेक्ट जरूर करूं। मैंने पूछा- तो तुम्हे जेल का खाना कैसा लगा? वो चिढ़कर बोला- जेल का खाना, धत् मैं नहीं खाता था जेल का खाना। जब घर से कोई मिलने जाता था तो पांच-दस हजार दे जाता था। कैंटीन का खाना मंगाकर खाता था। मैं सन्न होकर उसकी बातें सुन रहा था। मैंनू पूछा- अब तो ठीक लग रहा होगा बाहर आकर? बंदे ने लंबी सांस खींची और बोला- सच कहूं, तो मजा नहीं आ रहा है बाहर। अब जब कभी वापस जाऊंगा तो मुङो पूरा विश्वास है कि वो लोग मुङो वहीं प्यार देंगे। मैं इस नए टाइप के बंदे की जेलगाथा सुनकर सोचने लगा कि क्या यही भारत का भविष्य है?


धर्मेद्र केशरी

नाम बड़े और दर्शन छेाटे

तेज आवाजें बार-बार गूंज रही थीं। कृष्णा पर है कत्ल का आरोप, कृष्णा है कातिल। मैंने सोचा अपने कृष्ण जी तो माखन-दूध चुराते थे , गोकुल में दूध-दही की छोटी मोटी चोरियां किया करते थे। कत्ल की कोई बात तो धर्मग्रंथों में नहीं है, हां कंस कंस का वध जरूर किया था। कहीं मानवाधिकार उल्लंघन के चक्करों में तो नहीं उलझ गए। मुझसे रहा नहीं गया और आवाज की दिशा में घूम गया। देखा तो एक खबरिया चैनल से ये आवाजें आ रहीं थीं और चैनल में ख़्ाबर पढ़ रहे सज्जन यही वाक्य बार-बार दोहरा रहे थे कृष्णा है कातिल वगैरह, वगैरह। अब समझ में आया अपने किशन कन्हैया पर कत्ल का आरोप नहीं है बल्कि ये कलयुगी कृष्णा है।

मेरा दिल मुङो ही धिक्कारने लगा कि ये बात पहले क्यों नहीं समझ में आईं। अगर भगवान कृष्ण को दुराचारी कंस के वध का आरोपी बनाया गया होता तो देश में बवाल मच जाता। इल्जाम संगीन था वो भी भगवान पर, जो उनके भकतों सहित राजनेताओं को तो कत्तई हजम नहीं होती। जान में जान आई ये कलयुग वाले भाईसाहब हैं जिनका नाम भी कृष्णा ही है। कलयुग में ही पहले कहा जाता था कि नाम का असर व्यक्तित्व पर भी होता है। इसलिए लोग अमूमन भगवान के नाम पर नामकरण कर देते थे कि शायद नाम का कुछ तो असर हो जाए। लेकिन अब मामला बिल्कुल उल्टा है। आदमी का जसा नाम होता है होता है ठीक उसके विपरीत।

हमारे पड़ोस में एक रामचंद्र नामक महाशय हैं। चौबीस घंटों में ऐसी कोई घड़ी नहीं बीतती होगी जब उनके मुख से गालीवाणी न निकलती हो। नाम भर के रामचंद्र हैं मर्यादा तो बेचकर खा गए हैं। उनसे बीवी-बच्चे ही नहीं उनके मां-बाप भी उबियाएं हैं। मां-बाप तो यहां तक कह देते हैं कि कम्बक्ष्त का नाम रामचंद्र की बजाय रावणचंद्र रख देता तो इतना दुख तो नहीं होता। निगोड़ा भगवान के नाम को भी बदनाम कर रहा है। हां एक बात में वो भगवान रामचंद्र की तरह हैं, बेचारी नौकरीपेशा बीवी, जिसके सहारे घर का खर्च चलता है, उसे शक के घेरे में रखकर गृहत्याग करा रखा है। खर,इसमें भगवान का क्या दोष। कलयुग में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जो अपने नाम के विपरीत अर्थ को सिद्ध करने पर तुले होते हैं। जसे नाम है धर्मदास और हैं पकके अधर्मी।

एक बार मैं थाने गया था। दरोगा जी का नाम देखा, ईमानदार सिंह। जब मैंने उनके बारे में जानना चाहा तो मालूम हुआ कि भाईसाहब ने मेरा विश्वास तोड़ा नहीं है बल्कि नाम के उल्टे स्वभाव के ही हैं। पूरे महकमें में चर्चा आम है कि ईमानदार साहब बिना रुपए डकारे कलम नहीं चलाते हैं। जो भी है संतोष इस बात की है कि अपने अराध्य श्रीकृष्ण जी पर कोई इल्जाम नहीं है।

धर्मेद्र केशरी

महंगाई रोकने का प्रयास

महंगाई है कि घटने का नाम ही ले रही है। ये तो अमेरिका के दुस्साहस की तरह बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है महंगाई ने भी अमेरिका से ही प्रेरणा ली है। जिस तरह अमेरिका किसी की बात नहीं मानता है उसी तरह महंगाई की भी नीयत है। खुले आम चुनौती देती महंगाई, बढ़ जाऊंगी, बताओं क्या कर लोगे? दम है तो रोक के दिखाओ। किसी में दम है जो अमेरिका को रोके फिर महंगाई कैसे रूक सकती है। जिसने भी अमेरिका को रोकने का जोखिम उठाया है उसका हाल इराक की तरह हुआ है। बुश साहब ने वहां ऐसी भुखमरी फैला दी कि लोग अपने से ही नहीं फुर्सत हैं महंगाई के लिए कौन रोए? यूपीए सरकार भी महंगाई से बहुत परेशान है।

निगोड़ी सौतन की तरह पीछे पड़ गई है इस सरकार के। सरकार भी करे तो क्या करे। इधर जनता हाय महंगाई, हाय महंगाई का रोना रो रही है उधर लेफट वालों ने करार के नाम पर धमकिया-धमकिया के जीना हराम कर रखा है। आनन-फानन में मीटिंगें बुलाई जा रही हैं। एक मीटिंग पर सरकार लाखों खर्च कर देती है, लेकिन ये महंगाई है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही। एक नेताजी ने मीटिंग में चिंता व्यक्त की- महंगाई पर इतना ध्यान देने की क्या जरूरत है। कहां हैं महंगाई? हमें तो नहीं दिखती? आलाकमान को नेक सलाह देते हुए कहा- करार की ओर ध्यान दीजिए। अमेरिका से रिश्ते अच्छे रहे तो हमारी पार्टी पर उनकी कृपा हमेशा बनी रहेगी। बस लेफट वालों को चाय-बिस्किट खिलाकर एक बार फिर संभाल लीजिए।

जनता का तो काम है, चीखना-चिल्लाना। रोने दीजिए उन्हें। हमारे पांच साल पूरे होने में कुछ ही महीने बाकी हैं, बीत जाएंगे। रही बात अगले चुनावों की तो जनता चुनाव के समय जाति-पाति के खुमारी में इतनी डूबी होती है कि उन्हें महंगाई-सहंगाई कुछ नहीं दीखती। जीतेंगे जरूर, और मान लो नहीं जीते तो करार का प्यार काम आएगा। अमेरिका हमारा साथ देगा तो किसी की क्या हिम्मत? पड़ोसी देश से सीख लो। अमेरिका को खुश रखो बुरे वक्त में काम आएगा। आलाकमान को भी बात पसंद आ गई, कहने लगी तब तक लोगों को कुछ सांत्वना तो देना ही पड़ेगा। नेताजी बोले- इसका भी एक उपाय है, एक बयान दे दीजिए कि महंगाई को काबू में करने की कोशिश कर रहें हैं और सारा किया धरा राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ दीजिए। साल तमाम आसानी से कट जाएगा। इतना सुनकर आलाकमान ने अपने सचिव को मीडिया को बुलाने की जिम्मेदारी सौंप कर सभा बर्खास्त की।

धर्मेद्र केशरी