Wednesday, February 4, 2009

ये कैसी ‘श्रीराम सेना

एक दिन भगवान श्रीरामचंद्र सीता जी के साथ फुर्सत के पलों में बैठे थे। अचानक उनके दिल में ख्याल आया कि जरा अपने पूर्व कर्मभूमि ‘मृत्युलोकज् की भी खोज-खबर ले ली जाए। बादलों का पर्दा हटाकर उन्होंने नीचे देखा। देखा तो कुछ अराजक तत्व महिलाओं के साथ मारपीट कर रहे थे। तभी वहां सीताजी आ गईं, उन्हें देखकर रामचंद्र जी ने नीचे देखना छोड़ दिया। वो सीताजी की ओर देखने लगे। सीताजी भगवान की मनोदशा समझ गईं, बोलीं ‘आप को पता है नीचे क्या हो रहा है?ज् रामजी बोले- नहीं, मुङो तो नहीं पता, कौन हैं ये लोग जो महिलाओं पर अत्याचार कर रहे हैं? सीताजी के चेहरे के भाव बदल गए, वो बोलीं- ये आपकी ही तो सेना है, श्रीराम सेना।

राम जी को जसे काटो तो खून नहीं, वो चौंककर बोले- मेरी सेना! मेरी सेना ऐसा नहीं कर सकती, सुग्रीव और हनुमान ऐसा नहीं कर सकते हैं! सीताजी भगवान की जिज्ञासा ताड़ गईं, वो बोलीं- हां भगवन, ये आपकी ही सेना है, लेकिन आप हनुमान और सुग्रीव को दोष न दें, उनका कोई कसूर नहीं है, ये कलयुग की श्रीराम सेना है, इन्हें महिलाओं की आजादी रास नहीं आ रही है। भगवान श्रीाम का चेहरा गंभीर हो गया। वो कहने लगे- सीते, मुङो पता होता कि मेरे एक अवतार पर लोग इतना बवाल मचाएंगे तो मैं धरती पर कभी अवतार नहीं लेता। सच कहूं तो मुङो धरती की ओर देखते हुए भी डर लगता है। इस देश में अधिकतर मेरे ही नाम पर विवाद होता है, कभी मेरे मंदिर के नाम पर, कभी सेतु के नाम पर तो कभी मेरी सेना के नाम पर। यकीन मानो वैदेही, मैंने इन लोगों से कभी नहीं कहा कि तुम महिलाओं पर अत्याचार करो, मैं कभी महिलाओं की आजादी का विरोधी तो नहीं रहा हूं। इतना कहते ही भगवान श्रीराम सकुचाते हुए बोले- मुङो पता है कि तुम्हारी अग्नि परीक्षा लेकर मैंने एक गलती कर दी थी, उस मर्यादा को निभाने का खामियाजा मुङो आज भी भुगतना पड़ रहा है। मेरा संदेश तो महिलाओं और पुरुषों के लिए बराबर है कि मदिरापान किसी को नहीं करना चाहिए, फिर भी लोग न जाने क्यों मुङो ढाल बनाकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं।

सच कहूं, तो अब कभी अवतार लेने का मन नहीं करता है। जब लोग मेरे नाम का सहारा लेकर ढोंग करते हैं तो बड़ी तकलीफ होती है। सीताजी चुप रहीं, उन्होंने बस इतना कहा- आप इतना परेशान न हों प्रभु, आधी आबादी अभी भी उपेक्षित है प्रभु, जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी,स्त्रियों पर ऐसे अत्याचार होते रहेंगे।

धर्मेद्र केशरी

एकता की खुशी

एकता कपूर देवी के चेहरे पर बड़े दिनों बाद मुस्कान लौटी है। एकता मैडम इस खुशी को छिपा नहीं पा रही थीं। मुझसे मुठभेड़ हो गई। खुश क्यों थी ये तो मैं जानता था लेकिन आदत से बाज नहीं आ सका। मैंने पूछा एकता जी इतने दिनों कहीं योग शिविर में चली गई थीं क्या? एकता का जवाब था- योग शिविर में जाने की जरूरत मेरे किरदारों को है, मैं कयों जाने लगी? हां, कुछ दिनों के लिए इस मुएं आइपीएल की वजह से मेरे सीरियलों की टीआरपी कम हो गई थी। टीआरपी कम तो कमाई पर असर पड़ता है।

कुछ दिनों बाद ही आइपीएल समाप्त होने वाला है। खुश होने वाली बात ही है अब मेरे रोने धोने वाले सीरियल फिर चल पड़ेंगे। आइपीएल लीग की वजह से सास-बहुएं, ननद-भौजाई,देवर-देवरानी मतलब पूरा परिवार मैच देखने में इतना वयस्त हो ताजा है कि मेरे सीरियलों को कोई देखता ही नहीं। एकता ने बताया- जो बंदा मुङो ग्लिसरीन बेचता है एक दिन मेरे पास आकर सच्ची के आंसु़ओं के साथ रोने लगा। कहने लगा मैडम जब से आइपीएल शुरू हुआ है आप मेरे ग्लिसरीन कम खरीदती हैं,मेरे धंधे पर असर पड़ रहा है। मैंने उसे समझाया- तू तो ग्लिसरीन की मंदी होने से रो रहा है, मेरा तो पूरा नुकसान करके रखा है इस आइपीएल ने। मैने पूछा- तो मैडम आपने क्यों नहीं दांव लगाया किसी एक टीम पर? एकता बड़ा गंभीर मुदा बनाकर बोली-क्रिकेट मेरे बस की बात नहीं।

असल में मुङो बॉस बनने की आदत पड़ चुकी है, अगर किसी ने मेरी बात नहीं मानी और बीच मैच में निकाल बाहर किया तो नया बखेड़ा खड़ा हो जाए। फिर रूलाने धुलाने की मुङो आदत पड़ चुकी है और यहां रोने धोने वाले कैरेक्टर नहीं मिलते हैं। एकता का इतना कहना था कि मैने तड़ से जवाब दिया- अरे मैडम अब क्रिकेट में सब कुछ है। एक्शन,डांस, रोमांस, क्लाईमेक्स सब कुछ। और किसने कहा कि आपकी बात नहीं मानी जाएगी। मैडम वैसे भी खिलाड़ी बिके होते आपकी सुनने को मजबूर, जो कहतीं सभी हुक्म बजाते नार आते। रही रोने धोने की बात तो श्रीसंत को अपने टीम में ले लेती। जब भज्जी मारता तो श्रासंत रोता जरूर, आपकी ये इच्छा भी पूरी हो जाती। सबसे बड़ी बात आइपीएल में आपकी कमाई भी होती।

सीरियल न सही, क्रिकेट सही। मुनाफा से मतलब। एकता मैडम मेरी बातों से सोच में पड़ गईं। सोच विचार कर बोलीं- कहते तो तुम ठीक हो लेकिन अब क्या हो सकता है, अगली बार ये चांस नहीं मिस करूंगी। फिलहाल आइपीएल लीग खतम होते ही राहत की सांस लूंगी। बड़ा दुख दिख है इस आइपीएल क्रिकेट लीग ने।

धर्मेद्र केशरी

आरक्षण की रेवड़ी

मुद्दा गरमाया है। जिसे जिसे बहती गंगा में हाथ धोना हो जल्दी करें। राजस्थान के गुर्जर समुदाय से सबक लें और फटाफट आन्दोलन शुरू कर दें। यही सही मौका है सरकार से अपनी बात मनवाने का। कहें कि हमारी जाति पिछड़ी है और केवल आरक्षण ही हमारा उद्धार कर सकती है। उन लोगों के लिए तो बड़ा ही मुफीद समय है जो लोगों के रहनुमा बनकर अपना भविष्य सुधारने की मंशा रखते हैं। हिम्मत दिखाइए और बैंसला साहब की तरह जाति के उद्धार आन्दोलन के नायक बन जाइए। बात मनवाने का तरीका बेहद आसान है। ट्रेन रोकिए, वाहनों को जलाइए, जगह-जगह तोड़ फोड़ तो बेहद जरूरी है। बस चक्काजाम ही कर दीजिए।

न इधर का बंदा उधर जा सके और उधर का इधर आने का साहस दिखाए। सरकार का पुतला वुतला जलाइए, सभाएं कीजिए। व्यवसाय अपना भी बंद कर दूसरों को भी न करने दें। उत्पात तो ऐसा मचाइएगा कि दस-बीस भगवान के द्वार जरूर पहुंचें। जब तक कफर्यू ना लगे, बवाल, बवाल नहीं लगता है इसलिए हिंसा की हद तक हिंसा करना जरूरी है। नाक में बिल्कुल दम करने की प्रतिज्ञा होनी चाहिए। फिर देखिए कौन ऐसा हिम्मती खादीधारी है जो आपकी बातों को नारअंदाा करने की हिराकत कर सके। सोचना सही है आपका। जातिवाद का मुद्दा ऐसा हैजब चाहेंगे कैश करवा लेंगे। और हां सरकार पर परफेक्ट दबाव बनाना है तो सरकार के विपक्षी दलों के महापुरूषों को पकड़ें। वो आग में घी डालने का काम तो करेंगे ही साथ ही साथ अपनी पापुलरिटी के लिए आप के साथ जरूर खड़े रहेंगे। वो अलग बात है कि आग लगाकर तमाशा देखने इनकी फितरत है।

किसी भी चीज़्ा का अनुभव ारूरी है। राजस्थान के गुर्जर समुदाय पर फोकस करें कि आखिर किस बारीकी से ये अपनी बात मनवाने की कला को अपना रहें हैं। प्रैकिटकल करना तो अति आवश्यक है तो हूाूर आरक्षण की चाह को मन में मत दबाइए। इस गुबार को निकलने दीजिए। अगर आपको लगता हैकि आरक्षण ही सफलता की सीढ़ी है तो इस सीढ़ी पर चढ़िए, क्योंकि अब आपका विश्वास पढ़ाई लिखाई या प्रतिभा पर नहीं आरक्षण पर आ टिका है। महानुभावों, राजस्थान के गुर्जरों का बवाल देखो, उठो और आरक्षण की मांग करो। डरो नहीं कि सरकार कितनी जातियों को आरक्षण देगी। बस पक्का इरादा करके उतरो। सरकार को अगर आपमें जबरदस्त फायदा नार आया तो मिल सकता है आरक्षण। वैसे अगर अभी नहीं आन्दोलन छेड़ सकते तो चाहे जब छेड़ देना। इस देश की उपज हो अपनी मर्जी के मालिक भी। आरक्षण की रेवड़ी बंटेगी ारूर। बस लगे रहो।

धर्मेद्र केशरी

क्या करें विजय माल्या

आजकल विजय माल्या बहुत उदास हैं। आइपीएल लीग उन्हे रास नहीं आ रही है। रास आएगी भी कैसे, उनकी टीम दनादन हार जो रही है। एक दिन मैं माल्या साहब का हाल जानने पहुंचा। माल्या साहब सिर पर हाथ धरे गंभीर मुद्रा में बैठे थे। मैनें पूछा क्या हुआ इतना परेशान क्यों दीख रहें हैं? विजय माल्या साहब थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले- यार कहां फंस गया मैं भी, इतना कहकर वो चुप हो गए। मैंने कुरेदा- अरे क्या हो गया जो आप जसा बंदा इतना परेशान है? माल्या साहब बोले- क्या बताउं, पहली बाार मुङो बिजनेस में नुकसान के आसार दिख रहे हैं। क्या सोच कर मैंने रूपए भिड़ाए थे, सारा प्लान गुड़-गोबर हो गया।

इज्जत का जो फालूदा बन रहा है सो अलग। बार-बार हार रहे हैं। मैंने दिलासा दिया- अरे हार जीत तो लगी रहती है। मेरा इतना कहना था कि वो उखड़ गए कहने लगे- मानता हूं कि हार जीत होती रहती है, लेकिन हार ही हार तो नहीं होती। बोली लगाने से पहले ही काली बिल्ली मेरा रास्ता काट गई थी। मैं समझ रहा था जिन जिन बूढ़े शेरों पर मैं रिस्क ले रहा हूं उनके बस की बात नहीं है ट्वंटी-ट्वंटी क्रिकेट खेलना। मैंने कहा भी था कि चुके हुए बंदो पर रूपए मत बर्बाद करो, लेकिन मेरी बात तो सुनी नहीं। घुसेड़ दिया कागजी शेरों को। जब टीम विदेश लेकर जाते थे तब जीते ही नहीं तो अब क्या खाक जीतेंगे। मेरी मति मारी गई थी जो मैने इन पर इतने रूपए बर्बाद कर दिए। अच्छी खासी दारू और हवाई जहाज में कमाई हो रही थी।

न जाने किस घड़ी में फंस गया क्रिकेट में जुआं खेलने के चक्कर में। काश ये गली क्रिके ट होती तो सबको रायल चैलेंज का एक-एक पैग पिलाता। फिर देखते क्या रिजल्ट होता। दनादन चौके छकके पड़ते, गिल्लियां उखड़तीं, लेकिन ये ठहरा इंटरनेशनल क्रिकेट ऐसा संभव ही नहीं है। इतना कहकर विजय साब चुप हो गए। मैंने पूछा- अब क्या करेंगे? उन्होने जवाब दिया- करेंगे क्या, फिर अपने ओरिजिनल बिजनेस में लौट आएंगे। समझ लेंगे एक जुआं खेला था हार गए, लेकिन दोस्त सही कह रहा हूं कि मुङो पता होता कि ये टेस्ट क्रिकेट खेलेंगे तो मैं आइपीएल में दांव ही नहीं खेलता। अगर खेलता भी तो बच्चों की टीम पर दांव लगाता इन पर नहीं। मैं विजय माल्या साब की खीझ समझ गया। लेकिन इसमें माल्या साब का दोष नहीं है, उन्होने तो बड़े खिलाड़ियों के नाम पर दांव खेला था।

धर्मेद्र केशरी

भूतों के लिए जगह कहां?

एक बार मेरे एक मित्र मेरे कमरे पर रात बिताने के लिए रूके। कमरा इसलिए कि एनसीआर में छोटे-मोटे लोग घरों में नहीं बल्कि तंग कमरों में ही रहते हैं। नींद नहीं आ रही थी तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। मेरे दोस्त ने अचानक मुझसे सवाल किया- भूत प्रेतों में यकीन करते हो कि नहीं? मैंने कहा- बिलकुल करता हूं, जब इस धरा पर इंसान हैं, भगवान हैं तो शैतान भी ारूर ही होंगे। उन्हे न जाने क्या सूझा कि कहने लगे कभी सच्ची के भूत को देखा है? मैं ठहरा डरपोक इंसान, मैंने कहा-यार भूत, चुड़ैलों की बात न करो तो बेहतर है। मैंने मना तो कर दिया फिर भी भूतों के बारे में जानने का इच्छुक भी था।

वो समझ गया कि मैं उसकी भूतिया कहानी में इंट्रेस्ट ले रहा हूं। मेरे मित्र ने अपनी आपबीती सुनाई कि- गांव में एक दिन जब वो खेत को पार कर रहा था तो कुछ लोग सफेद कपड़ों में जाते दिखे। पहले तो उसने वहम समझा। जब कुछ आगे बढ़ा तो फिर वही लोग सामने से टकरा गए। किसी तरह मन पक्का करके वह आगे बढ़ा तो फिर वही लोग दिख गए। अब तो उसका धर्य टूट गया और भागता हुआ घर पहुंच कर राहत की सांस ली। उसने बताया कि असल में वो भूत थे। मैंने पूछा- जब तुमने भूत देखा था तो टाइम कितना हो रहा था। उसने बताया कि यही कोई रात के एक से दो बजे के बीच का समय रहा होगा। मैंने घड़ी पर निगाह डाली पूरे डेढ़ बज रहे थे। थोड़ी देर बाद मेरे मित्र को नींद आने लगी उसने कहा कि बत्ती बुझा दो।

मैं डर रहा था मैंने कहा लाइट बंद कर दी तो नींद नहीं आएगी और क्या पता अंधेरे में कोई भूत-वूत आ गया तो? मेरा इतना कहना था कि वो हंसने लगा कहा- यार तुम भी कमाल की बात करते हो नोएडा में इंसानों के पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं है भूत यहां कहां से आ जाएंगे? नोएडा या दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में जब इंसानों के लिए जगह नहीं तो भूत बेचारे कहां विचरण करेंगे। दोस्त तुम्हे भूतों से डरने की कोई ारूरत भी नहीं क्योंकि यही हाल अब लगभग पूरे देश का हो गया है और जिस स्पीड से जनसंख्या बढ़ रही है भूतों के आने का कोई चांस ही नहीं बनता है। दोस्त की बात में दम था। लेकिन मैं कोई रिस्क नहीं ले सका और लाइट बुझाकर सोने का साहस मुझमें नहीं आया।

धर्मेद्र केशरी

एक युवक की जेलगाथा

कल मेरी मुलाकात कुछ दूसरे टाइप के बंदे से हो गई। दूसरा टाइप इसलिए कि वो कुछ दिन पहले ही जेल की हवा खाकर लौटा था। उन्नीस-बीस के करीब उम्र का बांका नौजवान था। जेल से आने के बाद वो बड़ा खुश था। मुहल्ले भर में उसकी धाक जो हो गई थी। कोई उससे ऊंची आवाज में बात करने का रिस्क नहीं उठाना चाहता था। इतनी कम उम्र में करोड़ों के महल का सुख भोग कर बड़ा गर्वान्वित था। खर, बात हो रही है मुलाकात की। मैने पूछा- कैसा रहा जेल का सफर? उसने सीना तानकर पुरुषार्थ गाना शुरू किया- वहां, वहां की तो बात ही अलग थी। सभी से मेरी जान-पहचान हो गई थी। जेलर के सामने ही कई लोग मुङो सलामी देने लगे थे।

जेल में इतने कम समय में मेरी तरक्की से जेलर भी बड़ा प्रभावित था। उसने कहना जारी रखा- एक बात है, जेल जाते ही कोई पूछे कि कया करके आए हो तो हमेशा मर्डर से कम बताना ही नहीं चाहिए। इज्जत कम हो जाती है फिर कोई भाव भी नहीं देता। मैं लूट के केस में गया था, लेकिन सबसे बताया था कि मर्डर करके आया हूं। बड़ा अपनापन सा जग गया था वहां। उसकी जेलगाथा सुनकर मुङो दिलचस्पी होने लगी, मैंने पूछा- और क्या-क्या अनुभव रहे वहां? उसने जवाब दिया- वहां कि तो बात ही मत पूछिए। बाहर से देखने पर बड़ा डरावना लगता है , लेकिन अंदर जाते ही खयालात बदल जाते हैं। ऐश करने की पूरी सुविधाएं मौजूद है वहां, जिसके जेब में पइसा है उसका मजा है। वहां मुङो एक साइकिल वाले नेताजी भी मिले। मुझसे इतने प्रभावित हुए कि कहा जेल से छूटते ही मिलना जरूर, तुम मेरे काम आ सकते हो और मैं तुम्हारे। पता है वो नाम भर के लिए जेल में थे।

नरम बिस्तर, कूलर, टी।वी।, चिलम, दारू सभी कुछ मिल जाता था उनके पास। और हां वो निठारी वाले पंधेर साहब भी वहीं थे, मैं तो उनके साथ ही रहता था। इन लोगों के साथ रहकर कुछ सीखने को ही मिल जाता था। सभी लोगों ने कहा है कि निकलने पर कांटेक्ट जरूर करूं। मैंने पूछा- तो तुम्हे जेल का खाना कैसा लगा? वो चिढ़कर बोला- जेल का खाना, धत् मैं नहीं खाता था जेल का खाना। जब घर से कोई मिलने जाता था तो पांच-दस हजार दे जाता था। कैंटीन का खाना मंगाकर खाता था। मैं सन्न होकर उसकी बातें सुन रहा था। मैंनू पूछा- अब तो ठीक लग रहा होगा बाहर आकर? बंदे ने लंबी सांस खींची और बोला- सच कहूं, तो मजा नहीं आ रहा है बाहर। अब जब कभी वापस जाऊंगा तो मुङो पूरा विश्वास है कि वो लोग मुङो वहीं प्यार देंगे। मैं इस नए टाइप के बंदे की जेलगाथा सुनकर सोचने लगा कि क्या यही भारत का भविष्य है?


धर्मेद्र केशरी

नाम बड़े और दर्शन छेाटे

तेज आवाजें बार-बार गूंज रही थीं। कृष्णा पर है कत्ल का आरोप, कृष्णा है कातिल। मैंने सोचा अपने कृष्ण जी तो माखन-दूध चुराते थे , गोकुल में दूध-दही की छोटी मोटी चोरियां किया करते थे। कत्ल की कोई बात तो धर्मग्रंथों में नहीं है, हां कंस कंस का वध जरूर किया था। कहीं मानवाधिकार उल्लंघन के चक्करों में तो नहीं उलझ गए। मुझसे रहा नहीं गया और आवाज की दिशा में घूम गया। देखा तो एक खबरिया चैनल से ये आवाजें आ रहीं थीं और चैनल में ख़्ाबर पढ़ रहे सज्जन यही वाक्य बार-बार दोहरा रहे थे कृष्णा है कातिल वगैरह, वगैरह। अब समझ में आया अपने किशन कन्हैया पर कत्ल का आरोप नहीं है बल्कि ये कलयुगी कृष्णा है।

मेरा दिल मुङो ही धिक्कारने लगा कि ये बात पहले क्यों नहीं समझ में आईं। अगर भगवान कृष्ण को दुराचारी कंस के वध का आरोपी बनाया गया होता तो देश में बवाल मच जाता। इल्जाम संगीन था वो भी भगवान पर, जो उनके भकतों सहित राजनेताओं को तो कत्तई हजम नहीं होती। जान में जान आई ये कलयुग वाले भाईसाहब हैं जिनका नाम भी कृष्णा ही है। कलयुग में ही पहले कहा जाता था कि नाम का असर व्यक्तित्व पर भी होता है। इसलिए लोग अमूमन भगवान के नाम पर नामकरण कर देते थे कि शायद नाम का कुछ तो असर हो जाए। लेकिन अब मामला बिल्कुल उल्टा है। आदमी का जसा नाम होता है होता है ठीक उसके विपरीत।

हमारे पड़ोस में एक रामचंद्र नामक महाशय हैं। चौबीस घंटों में ऐसी कोई घड़ी नहीं बीतती होगी जब उनके मुख से गालीवाणी न निकलती हो। नाम भर के रामचंद्र हैं मर्यादा तो बेचकर खा गए हैं। उनसे बीवी-बच्चे ही नहीं उनके मां-बाप भी उबियाएं हैं। मां-बाप तो यहां तक कह देते हैं कि कम्बक्ष्त का नाम रामचंद्र की बजाय रावणचंद्र रख देता तो इतना दुख तो नहीं होता। निगोड़ा भगवान के नाम को भी बदनाम कर रहा है। हां एक बात में वो भगवान रामचंद्र की तरह हैं, बेचारी नौकरीपेशा बीवी, जिसके सहारे घर का खर्च चलता है, उसे शक के घेरे में रखकर गृहत्याग करा रखा है। खर,इसमें भगवान का क्या दोष। कलयुग में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जो अपने नाम के विपरीत अर्थ को सिद्ध करने पर तुले होते हैं। जसे नाम है धर्मदास और हैं पकके अधर्मी।

एक बार मैं थाने गया था। दरोगा जी का नाम देखा, ईमानदार सिंह। जब मैंने उनके बारे में जानना चाहा तो मालूम हुआ कि भाईसाहब ने मेरा विश्वास तोड़ा नहीं है बल्कि नाम के उल्टे स्वभाव के ही हैं। पूरे महकमें में चर्चा आम है कि ईमानदार साहब बिना रुपए डकारे कलम नहीं चलाते हैं। जो भी है संतोष इस बात की है कि अपने अराध्य श्रीकृष्ण जी पर कोई इल्जाम नहीं है।

धर्मेद्र केशरी

महंगाई रोकने का प्रयास

महंगाई है कि घटने का नाम ही ले रही है। ये तो अमेरिका के दुस्साहस की तरह बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है महंगाई ने भी अमेरिका से ही प्रेरणा ली है। जिस तरह अमेरिका किसी की बात नहीं मानता है उसी तरह महंगाई की भी नीयत है। खुले आम चुनौती देती महंगाई, बढ़ जाऊंगी, बताओं क्या कर लोगे? दम है तो रोक के दिखाओ। किसी में दम है जो अमेरिका को रोके फिर महंगाई कैसे रूक सकती है। जिसने भी अमेरिका को रोकने का जोखिम उठाया है उसका हाल इराक की तरह हुआ है। बुश साहब ने वहां ऐसी भुखमरी फैला दी कि लोग अपने से ही नहीं फुर्सत हैं महंगाई के लिए कौन रोए? यूपीए सरकार भी महंगाई से बहुत परेशान है।

निगोड़ी सौतन की तरह पीछे पड़ गई है इस सरकार के। सरकार भी करे तो क्या करे। इधर जनता हाय महंगाई, हाय महंगाई का रोना रो रही है उधर लेफट वालों ने करार के नाम पर धमकिया-धमकिया के जीना हराम कर रखा है। आनन-फानन में मीटिंगें बुलाई जा रही हैं। एक मीटिंग पर सरकार लाखों खर्च कर देती है, लेकिन ये महंगाई है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही। एक नेताजी ने मीटिंग में चिंता व्यक्त की- महंगाई पर इतना ध्यान देने की क्या जरूरत है। कहां हैं महंगाई? हमें तो नहीं दिखती? आलाकमान को नेक सलाह देते हुए कहा- करार की ओर ध्यान दीजिए। अमेरिका से रिश्ते अच्छे रहे तो हमारी पार्टी पर उनकी कृपा हमेशा बनी रहेगी। बस लेफट वालों को चाय-बिस्किट खिलाकर एक बार फिर संभाल लीजिए।

जनता का तो काम है, चीखना-चिल्लाना। रोने दीजिए उन्हें। हमारे पांच साल पूरे होने में कुछ ही महीने बाकी हैं, बीत जाएंगे। रही बात अगले चुनावों की तो जनता चुनाव के समय जाति-पाति के खुमारी में इतनी डूबी होती है कि उन्हें महंगाई-सहंगाई कुछ नहीं दीखती। जीतेंगे जरूर, और मान लो नहीं जीते तो करार का प्यार काम आएगा। अमेरिका हमारा साथ देगा तो किसी की क्या हिम्मत? पड़ोसी देश से सीख लो। अमेरिका को खुश रखो बुरे वक्त में काम आएगा। आलाकमान को भी बात पसंद आ गई, कहने लगी तब तक लोगों को कुछ सांत्वना तो देना ही पड़ेगा। नेताजी बोले- इसका भी एक उपाय है, एक बयान दे दीजिए कि महंगाई को काबू में करने की कोशिश कर रहें हैं और सारा किया धरा राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ दीजिए। साल तमाम आसानी से कट जाएगा। इतना सुनकर आलाकमान ने अपने सचिव को मीडिया को बुलाने की जिम्मेदारी सौंप कर सभा बर्खास्त की।

धर्मेद्र केशरी

राम के नाम पर

भगवान की याद बंदे को तभी आती है जब वो मुश्किल दौर में हो। फंसा-फुसा हो या दूर-दूर तक बस फंसने की उम्मीद ही बाकी बची हो। ऐसे में नास्तिक भी मंदिरों या धार्मिक स्थलों की ओर रूख करता है। क्या पता भगवान की कृपा उस पर हो ही जाए। दो लोगों को भगवान की बहुत याद आती है। एक उन छात्रों को, जो परीक्षा के समय भगवान भरोसे ही रहते हैं दूसरा नेताओं को। नेताओं में कमल वाले तो भगवान के मुरीद हैं। मौका देखते ही चौका मार देते हैं। कमल का फूल लेकर भगवान राम को अर्पित करने को हमेशा तैयार।

छात्र तो फिर भी ठीक हैं, पास होने के बाद कम से कम भगवान की ड्योढ़ी पर माथा झुकाकर आशीर्वाद तो लेने आते हैं। भले ही वो हमेशा मंदिर न आएं, लेकिन भगवान को दिल से याद करते हैं। इन्हें कौन कहे? पहले तो राम का नाम लेकर खूब हो-हल्ला मचाया। कहा ये हमारे हिंदुत्व का एक्जाम है। भगवान हमारी मद्द करेंगे। देश में ऐसी आपाधापी मचा दी कि लगा कि लोग समङों यही सच्चे भक्त हैं बाकी सब ढोंगी, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही भगवान को भूल गए। हवाला दिया सिद्धांत और व्यावहारिक समझ का। कहां गई थी वो समझ, जिसने लोगों को नासमझ बना रखा था। परीक्षा में पास तो हुए, लेकिन महज अपनी स्वार्थ सिद्धि से प्रेरित होकर। उनके लिए भगवान तो कभी थे ही नहीं। कुर्सी असली भगवान।

हां, लोगों को भक्तिभावना में अंधा कर अपना उल्लू सीधा किया। वकत बीता, पंजे की जकड़ में कमल मुरझा गया। अब एक बार फिर बिल्ली की भाग्य से छींका टूटा है। महंगाई ने आम जनता की कमर तोड़ रखी है। अब ये दोबारा जनता के कमर दर्द को दूर करने के लिए आयोडेक्स लेकर घूम रहे हैं। मुरझाए कमल के फूल पर पानी का छींटा डालकर, जबरदस्ती इत्र-फुलेल घुसाकर बांटना शुरू कर दिया है। इसमें सुगन्ध तो नहीं राजनीति की बू जरूर याद आ रही है। कुर्सी का अदृश्य दीदार होते ही भगवान राम की सुध हो आईहै।

मंदिर की याद ताजा हो गई है इसलिए पुराने बने मंदिरों में प्रार्थना करने के बजाय फिर से नया मंदिर बनवाने का शिगूफा छेड़ रखा है। शंकर जी को भी आधार बनाने की पूरी तैयारी है। इस बार राम जी के साथ भोलेनाथ भी नहीं बचने के। नेताओं के चहेते संत-महात्मा प्रवचन की तैयारियां कर रहे हैं। प्रवचन की ऐसी पटकथा तैयार हो रही है ताकि भक्त के साथ भगवान भी लपेटे में आ जाएं। देखो, कितना लपेट पाते हैं। फंसे को फिर फंसाएंगे या फंसा बचकर निकल जाएगा। इन्हें तो अब राम का सहारा है।
धर्मेद्र केशरी

अमर कहानी

कहते हैं राजनीति बच्चों का खेल नहीं। इसमें कब, कौन, किसको फंसा ले कहा नहीं जा सकता और कब उसी से नाता जोड़ना पड़ जाए जिससे कभी सिर फुटौव्वल की नौबत आन पड़ी थी, यह भी नहीं कहा जा सकता। अब अमर सिंह को ही ले लें। राजनीति के राखी सावंत हैं, कब क्या बोल दें खुद उनको ही नहीं पता होता है। विरोधी कैसा भी हो अमर सिंह अपने बातों के बाण किसी पर भी छोड़ सकते हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि जसे ही उन्हें फायदा नजर आता है बंदे से गिले शिकवे फट्ट से दूर। अब कांग्रेस से सपा के पुराने रिश्तों को ही ले लीजिए।

एक साल भी नहीं बीते होंगे जब अमर सिंह ने उसी विदेशी महिला से दूर रहने की हिदायत दी थी। तब तो सोनिया मैडम पर इल्जाम तक लगा दिया कि अमर सिंह जी की हत्या तक की जा सकती है। हाय रे वक्त, क्या-क्या दिन दिखाता है। सोचा था कभी कांग्रेस से गलबहियां नहीं करेंगे, लेकिन करतूतों ने उत्तर प्रदेश में ऐसी पटखनी दी कि अब माया के डंडे से बचने के लिए कुछ भी करने को तैयार। माया मैडम ने केंद्र से मुंह मोड़ा तो दांत चिंघााड़ कर खड़े हो गए कि हम साथ-साथ हैं। न्यूक्लियर डील से मतलब नहीं, मतलब मौके से है। मौके की दरकार यही कहती है कि अमर एंड पार्टी कांग्रेस के गुण गाने शुरू कर दे और अपना प्यार जताने का मौका न गवाएं। अमर सिंह ने किया भी यही, क्योंकि उनकी राजनीति यही कहती है।

सच तो यह है कि उन्हें डील के नफा-नुकसान से कोई मतलब ही नहीं, खुद का फायदा हो यही काफी है। फिर इतने दिनों से कोई समाजवादी पार्टी का नाम लेवा भी नहीं था। दूर भविष्य तक सूबे में पार्टी के आने की नाउम्म्ीदी से कई सांसादों, विधायकों ने भी नमस्ते करने का मन बना लिया था, ऐसे में अचानक ही खबरों में छा गए। उललू-जूलूल ही सही पब्लिसिटी तो पब्लिसिटी होती है। कुछ तो जड़ों में पानी गया, पानी कहां का था उससे फर्क क्या पड़ता है। खर, राजनीति की इस बेशर्म खेल में अकेले अमर सिंह नहीं हैं जो कभी भी, कुछ भी बोलते रहते हैं, और भी हैं, लेकिन इतना जरूर है कि कोई अमर सिंह के आसपास नहीं फटक सकता।

अब भला राखी सावंत से कोई पार पा सकता है जो अमर सिंह से पाया जा सके। वैसे भी बॉलीवुड से प्रेरित रहते हैं सिंह साहब। अब सपा मतलब, अमर सिंह ही रह गया है, उनकी मर्जी जो होगी करेंगे। यही लोग अब नए राजनीति के कौटिल्य हैं। राजनीति को खेल समझने वाले माहिर खिलाड़ी।

धर्मेद्र केशरी

चालूराम की मुकिल

चालूराम बहुत परेशान हैं। वो उस दिन को कोस रहे हैं जिस दिन उन्होंने पार्टी ज्वाइन कर ली थी। चालूराम सोच रहे हैं कि काश किसी दल विशेष में न घुसा होता तो कुबेर बाबा उसके अकाउंट में घुस गए होते। चालूराम कहीं भी जाते हैं, लेकिन चेहरे पर बारह बजा रहता है। एक दिन उनका एक साथी पूछ बैठा- क्या बात है चालूराम मैं कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम ऐसी रोनी सूरत लेकर आते हो जसे मनमोहन सिंह सरकार गिरने की प्रबल आशंकाओं से दुखी रहते हैं। बताओ क्या बात है? चालूराम का मित्र थोड़ा उसके करीब था।

मित्र के बार-बार पूछने से वो टूट गया और अपनी व्यथा सुनाने लगा- यार अच्छा भला मैं चुनाव अपने दम पर जीत सकता था, लेकिन न जाने क्या सूझी कि पार्टी के बैनर तले कूद गया। मित्र ने पूछा तो इसमें परेशानी की क्या बात है, अच्छा ही तो है। मित्र की बात सुनते ही चालूराम बिफर गए, बोले- क्या खाक अच्छा किया, अगर मुङो पता होता कि इस बार लेफ्ट वाले गीदड़भभकी नहीं देकर बल्कि सरकार को लंगड़ी मारने का काम करेंगे तो कब का पार्टी को नमस्ते कर दिया होता। निर्दलीय होता तो मेरी भी बोली लगती, पचासएक करोड़ तो कहीं नहीं गए थे। एक झटके में जिंदगी भर का काम हो जाता। फिर न सीबीआई बैठती न कोई जांच, इससे सुरक्षित डील तो कुछ होती नहीं, ,सरकार खुद पैसे देकर जांच तो बिठाती नहीं।

पूरा पैसा नंबर एक का होता। कोई बेईमानी नहीं। जनता भी कुछ नहीं कहती, बल्कि एहसान जो होता वो अलग। चालूराम का मित्र थोड़ा हैरान होकर बोला- तो इसलिए तुम परेशान हो? खर दल बदलने की तो तुम लोगों की पुरानी आदत है सुना है इस समय दूसरे दल वाले अपनी पार्टी में मिलाने के लिए भी मुंह भर कर पैसा दे रहे हैं, घुस जाओ कहीं और। चालूराम सोचने लगा- नहीं भाई कहीं हमारे दल का नेता प्रधानमंत्री बन गया तो फिर मेरी खर नहीं, पता नहीं कैसे दिन देखने पड़ जाएं। चालूराम दुखी मन से बोले- दोस्त इतना मोटा पैसा हाथ से जाने का दुख मैं ही समझ सकता हूं। इतना कहकर उन्होंने सीने पर हाथ रख लिया। उनके मित्र ने ढांढस बंधाते हुए कहा- तो तुम एक काम करो पैसे अंदर कर लो और कह कह दो कि मैं हूं तो पार्टी का बंदा, लेकिन डील देश के हित में है इसलिए यूपीए को समर्थन देता हूं।

कई लोगों ने ऐसा किया भी है अब बीजेपी के बृजभूषण को ही देख लो, सैद्धांतिक रूप से पार्टी के साथ और व्यावहारिक रूप से यूपीए का हाथ पकड़ा। कौन जानता है सच्चाई? और कोई जानेगा भी नहीं। चालूराम दोस्त की बात सुनते ही मुस्कुराते हुए किसी को फोन करने में जुट गया।

धर्मेद्र केशरी

भारत का बना मशहूर अमेरिकन..

एक दिन मैं बस में सफर कर रहा था। तभी मेरी निगाह एक ठेले पर पड़ी। ठेले पर लगे बोर्ड में लिखा था ‘पंजाब की मशहूर अमेरिकन छल्लीज्। छल्ली भुट्टे को कहते हैं। मैं सोचने लगा कमाल का आदमी है। जब ये पंजाब की मशहूर छल्ली है तो अमेरिकन कैसे हो सकती है। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैं बस से उतर कर ठेले वाले के पास पहुंचा। मैंने पूछा- क्यों भैया यह पंजाब की अमेरिकन छल्ली का राज क्या है, इसका अमेरिका से क्या नाता? ठेले वाला था पूरा होशियार, बड़ शोध के बाद उसने ऐसा लिखा रखा था।

उसने बताया- बाबूजी आगे चलकर जब देश की सभी मशहूर चीजें अमेरिकन होने वाली हैं तो मेरे बोर्ड में लिखाने से क्या फर्क पड़ता है। मैं घोर अचरज में पड़ गया, कहा- जरा खुलकर समझाओगे? ठेले वाला बोला- लो, इसमें समझने वाली क्या बात है। अब अपने यूपीए सरकार को ही देख लो। परमाणु कार्यक्रमों के लिए अमेरिका से समझौता करने जा रहे हैं, आगे चलकर अमेरिका अपने देश पर नजर रखेगा ही। फिर हम जो कुछ भी बनाएंगे, बिजली हो या परमाणु बम, सभी पर लिखा होगा ‘भारत का बना मशहूर अमेरिकन परमाणु बम या मशहूर अमेरिकन परमाणु बिजलीज्। बाबूजी ये देश अमेरिका से बुरी तरह प्रभावित है।

जहां नजर डालोगे वहां उनकी बानगी मिल जाएगी। नेता तो नेता अपने राजदूतों को भी अमेरिका का हर चीज पसंद है। आपको रोनेन सेन याद हैं ना! अमेरिका में भारत के राजदूत, उन लोगों से इतने प्रभावित कि यहां के सांसद हेडलेस चिकेन लगे। खर, अब तो उन्होंने साफ कर दिया कि ऐसा-वैसा कुछ नहीं कहा था, लेकिन अमेरिका से प्रभावित हैं कुछ तो बात कही ही होगी। उनका कसूर भी नहीं, वातावरण का प्रभाव तो पड़ ही जाता है। नेता की तो बात छोड़ो भैया, हमारे यहां के अभिनेता भी वहां से बेहद प्रभावित हैं। आपको न जाने कितने हीरो-हीरोइन मिल जाएंगे जो जताते हैं कि ‘भारत का बना मशहूर अमेरिकन हीरो या हीरोइनज्। अब मल्लिका और ऐश्वर्या जी को ही देख लीजिए, प्योर ‘भारत की बनी मशहूर हॉलीवुड हीरोइनज् बनने की राह पर हैं। मल्लिका के कपड़े तो वैसे ही अमेरिका की झलक पेश करते हैं। मल्लिका ही क्यों, अब तो न जाने कितनी हैं। ऐश के ससुर जी तो भारत का बना मशहूर टूर लेकर अमेरिका में टहल रहे हैं।

ग्लोबलाजेशन का युग है बाबूजी और इस युग में अमेरिका सब पर हावी भी है। कल जब सब कुछ भारत का होने के बावजूद अमेरिका का बना दर्शाना ही है तो आज से ही आदत डाल लेनी चाहिए। इसी देश का अन्न खाता हूं, इसलिए मैंने भी अमेरिका से प्रभावित होकर ‘पंजाब का मशहूर अमेरिकन छल्ली लिखवा दियाज्, कुछ गलत किया क्या बाबूजी! मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।

धर्मेद्र केशरी

कदम दर कदम उपाय

सरकार का एक बयान आया है। केंद्र सरकार ने कहा है कि वो अमरनाथ मुद्दे पर कदम दर कदम बातचीत करेगी। केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल सहित पूरी सरकार जम्मू के हालात पर चिंतित तो हैं, लेकिन कदम दर कदम उसका समाधान भी ढूंढेंगे। सही बात भी है, कोई भी काम तुरंत तो कर नहीं देना चाहिए खासकर राजनीति में तो कतई नहीं। अगर सरकार ने श्राइन बोर्ड भूमि मुद्दे को तुरंत ही सुलझा दिया तो इतना हो हल्ला कैसे मचेगा। जब हो हल्ला नहीं मचेगा तो पॉपुलरिटी उतनी मिलेगी नहीं। इसलिए सरकार हर कदम फंक-फूंक कर रख रही है।

इस मामले में ही नहीं सरकार लगभग सभी ज्वलंत और विवादित मामलों में कदम दर कदम उपायों को ढ़ूंढती है। सरकार को पता है कि जब कोई विवाद होता है तो पच्चीस-पचास तो मरते कटते ही रहते हैं। इसमें नई बात क्या है। और लड़ाई जब दो संप्रदायों में हो तो हल ढूंढने से ज्यादा वक्त आग में किस तरीके से सियासी राटियां सेंकी जाए, इस तरफ ज्यादा रहता है। सरकार कर भी वही रही है। इस मुद्दे पर मेरे एक मित्र सरकार की इस विचारधारा से सहमत दिखे। उनका कहना है कि अगर हर कोई अपने बारे में सोचता है तो इसमें बुरा क्या है! सरकार भी कोई अनोखी चीज तो है नहीं। जिससे फायदा नजर आ रहा है, वही काम तो कर रही है।

मैंने पूछा, कैसे, तो भाईसाहब बोले- देखो सारा खेल वोटों का है। अमरनाथ मुद्दा सिर्फ जम्मू की बात नहीं है। इससे पूरा देश जुड़ा हुआ है। अब सरकार यह देखेगी कि किधर पलड़ा भारी रखा जाए। अभी तो आजमाइश हो रही है। जसे ही सरकार को लगेगा कि उनका वोट बैंक थोड़ा बढ़ गया है, वैसे ही कोई फैसला सुना देगी। वो बोले- देखो, हड़ताल-वड़ताल सरकार के लिए मायने नहीं रखती। कर्फ्यू तो वैसे भी हमेशा कहीं न कहीं लगते ही रहते हैं, जम्मू में ही सही। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के वक्त नहीं देखा, इस मामले में तो केंद्र सरकार ने कदम दर कदम उपाय खोजने की जहमत तक नहीं उठाई, क्योंकि वहां वोटों की गणित में आगे कोई और था। जम्मू-कश्मीर इतने वर्षो से आतंकवाद का दंश ङोल रहा है, लेकिन आज भी उपाय बस कदम दर कदम ही हो रहे हैं। चाहे 1992 हो या फिर 2008, सरकार तो बस उपायों को ढूंढने में लगी है। वो तब भी मूकदर्शक थी और आज भी उसी हालात में है।

फैसले लेने का दम होना चाहिए और जब सरकार की कुर्सी के चारों टांग गठबंधन के हैं, ऐसे में तो बस कदम दर कदम उपाय ही तो ढूंढे जा सकते हैं। इसलिए जम्मू विवाद में भी सरकार धीरे-धीरे समाधान की ओर बढ़ रही है।


धर्मेद्र केशरी

कहीं वो सीडी तो नहीं!

कॉलबेल बजी। नेताजी ने रामू को आवाज दी कि देख दरवाजे पर कौन है। रामू ने लौटकर एक पैकेट नेताजी को थमा दिया। पैकेट खोलते ही नेताजी को सांस ऊपर-नीचे होने लगी। पैकेट में कुछ और नहीं सीडी था। सीडी देखकर ही नेताजी के माथे पर बल पड़ गया। नेताजी को पसीना-पसीना देखकर घरवाले परेशान हो गए। वो दौड़कर नेताजी के पास पहुंचे और परेशानी का कारण पूछा। नेताजी ने दिल पर हाथ रखकर बिना कुछ कहे सीडी वाले पैकेट की ओर इशारा कर दिया।

नेताजी की बीवी ने सीडी को ओर देखकर कहा- ये तो मात्र सीडी है इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? नेताजी ने कराहते हुए कहा यही तो परेशानी की बात है। आजकल की सीडीयों का कुछ भरोसा नहीं है। कब, कौन सी सीडी सारी पोल पट्टी खोल कर रख दे। बीवी को समझाते हुए उन्होंने कहा- तुमने देखा नहीं सीडी का जिन्न जब-जब बाहर आया है कोई न कोई परेशानी जरूर खड़ी कर दी है। दुश्मनी निकालने का तरीका बन गया है सीडी। बचपन में सांप-सीढ़ी का खेल खेलते थे, अब लोग सीडी-सीडी खेला करते हैं। राजनीति के गलियारों में तो सीडी का भूत कब्जा जमाए बैठा है। किसी से नाराजगी हुईनहीं कि सीडी निकाल के पटक दो। तुमने उमा भारती को नहीं देखा, अपने पूर्व पार्टी को कटघरे में खड़ा करने के लिए उन्होंने सीडी को ही सीढ़ी बनाया।

बीवी समझ गई कि इनकी परेशानी का सबब सीडी का भूत है। बीवी ने कहा- ओफ्फो बस इतनी सी बात, उमा भारती की बात तो आपने की, लेकिन यह भी तो लगभग साबित हो गया कि उन लोगों पर सीडी के जरिए जो भी आरोप लगाए गए थे वो सब सुनियोजित थे। पोल खुलते देख उमा भारती से भी कुछ कहते नहीं बन रहा था। नेताजी आह भरते हुए बोले- हर बार ऐसा थोड़ ही होता है। अगर किसी ने यह सीडी असली बना ली होगी तो फिर मेरी खर नहीं। न जाने क्या-क्या ङोलना पड़ेगा। पहले तो ब्लैकमेल किया जाएगा, पैसे मांगे जाएंगे यहां तक तो ठीक, लेकिन कहीं टीवी वालों के हाथ सीडी लग गई तो ये लोग बिना समङो-बूङो ही पोस्टमार्टम कर डालेंगे।

सच्चाई कुछ भी हो खबर मसालेदार और सनसनीखेज बन ही जाएगी। अरे कोई मुङो अस्पताल भी ले चलो। इतना कहकर नेताजी औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़े। तभी उनका बेटा दौड़ा हुआ आया और पैकेट खोलकर बोला- यह ‘गरम मसालाज् की सीडी है और आप अपने पास लेकर बैठे हैं। इतना कहकर वो सीडी लेकर चला गया। नेताजी ने चैन की सांस ली कि यह ‘गरम मसालाज् की सीडी है उनके कारनामों की नहीं।


धर्मेद्र केशरी

कब मिलेगा शुभ समाचार?

पाकिस्तान के नए-नवेले राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने उम्मीद जताई है कि कश्मीर पर जल्दी ही कोई शुभ समाचार सुनने को मिल सकता है। आखिर कब तक? जब भी वहां कोई नया राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री चुना जाता है, वह कश्मीर पर शुभ समाचार सुनाने की बात तो ऐसे करता है, जसे दाई बच्चा पैदा होने की खबर सुनाती है। पाकिस्तान को कोई नेता शायद इस मुद्दे पर कोई बात नहीं करना चाहता है। पूर्व राष्ट्रपति मियां परवेज मुशर्रफ भी भारत कई मुद्दों पर बात करने आए थे।

पहले तो यहां की खातिरदारी का जमकर लुत्फ उठाया, लेकिन जब कश्मीर की बात आई तो भाग खड़े हुए। बस, अपनी बेगम से बोले- बेगम बैग पैक करो हमें तुरंत निकलना है। पलटकर कोई जवाब भी नहीं दिया। बेचारे बाजपेयी साहब यही सोचते रह गए कि आखिर मुर्शरफ साहब को अचानक हो क्या गया, जो पिछवाड़े पर पेट्रोल लगे घोड़े की तरह भाग खड़े हुए। यहां पर लोग अटल जी के बारे में तरह-तरह की बातें करते रहे। बेगम सहबा भी साथ आई थीं, आज तक यह राज ही है कि मुशर्रफ मियां अचानक भागे क्यों? शायद मुशर्रफ साहब ने सपने में कश्मीर का कोई भूत देखा था, जो सिर पर पैर रखकर भाग खेड़े हुए। भारत में थे तो पैदाइशी हवेली और दिल्ली का गान गाया, इस्लामाबाद पहुंचते ही सुर बदल लिए।

मियां 9 साल तक पाकिस्तान के सव्रेसर्वा रहे, लेकिन कश्मीर मुद्दे पर ऐसी चुप्पी साधी, जसे हमारे नेताओं को बम ब्लास्ट या आतंकी घटनाओं के बाद खामोशी घेर लेती है। मियां मुशर्रफ क्या पाकिस्तान का कोई भी शासक कश्मीर के मुद्दे पर बोलने से रहा। कोई क्यों भला सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को हाथ से जाने देगा। अब जरदारी साहब ने इस आग में हाथ डालने की बात कही है। उनका कहना है कि मंत्रिमंडल से मशवरे के बाद वो कोई ठोस हल निकालेंगे। जो मियां मुशर्रफ नहीं कर पाए, वो जरदारी साहब करेंगे। भारत आएंगे, घूमेंगे, टहलेंगे, दो-चार बात करेंगे और वापस लौट जाएंगे। दशकों से यही तो होता आ रहा है। भारत सैर करने का मन हुआ, कश्मीर का झोला लेकर चले आए, लेकिन झोले से निकाला कुछ भी नहीं। उन्हें पता है कि जब उनके ‘चच्चाज् इस मामले में इंट्रेस्ट ले रहे हैं तो आसानी से हल कैसे निकाल लेंगे, फिर पाकिस्तान में लोकतंत्र होता तो शायद कोई हल निकल भी जाता, मनमानी तंत्र में तो किसी की नहीं चलने वाली।

जरदारी साहब हमारे देश की जनता और नेताओं ने बर्दाश्त, संयम की घुट्टी पी है। आइए आप भी आइए। हल चलाकर शुभ समाचार की घास ही पैदा कर दीजिए, फसल की उम्मीद भी कर लेंगे। पर आप भी मुशर्रफ की तरह ही ‘मतलबी यार किसके, खाए-पिए खिसकेज् कह कर मत निकल लीजिएगा।
धर्मेद्र केशरी

एक हजार करोड़ का फायदा

पूरे एक हजार करोड़ का फायदा होने वाला है। किसे! ये तो उन्हीं को पता है जो इन रुपयों पर आंख जमाए बैठे हैं। बिहार में बाढ़ पीड़ितों के लिए सरकार ने एक हजार करोड़ का पैकेज देने का एलान किया है। ‘बाढ़ पीड़ितोंज् की बड़ी लंबी लिस्ट है। इसे इतने लोगों में बांटा जाएगा कि पता नहीं यह ज्ज्सच में बाढ़ पीड़ितों में पहुंच पाएगा भी या नहीं। डर है कहीं कोसी की लहर में यह राहत पैकेज न बह जाए। जसा कि अन्य राहत पैकेजों के साथ होता है। मंत्री से लेकर संतरी तक के पॉकेट इन राहत पैकेजों से राहत की सांस लेते हैं।

मैं भी बिहार के बाढ़ का जायजा लेने पहुंचा। किनारे खड़ा होकर दूर तक फैले पानी के चादर को देख ही रहा था कि एक व्यक्ति तिनके के सहारे पार लगता हुआ दिखाई दिया। मैंने कहा- ओ महानुभाव किसी तरह किनारे आ जाओ, ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है, हजार करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा हुई है। अब तुम्हें परेशानी नहीं ङोलनी पड़ेगी। वो व्यक्ति कुछ बोला नहीं, बस व्यंग भरी मुस्कान लिए तिनके के सहारे तैरता रहा। मुङो बड़ा बुरा लगा कि एक डूबता व्यक्ति मेरी बातों की अवहेलना कर रहा है। मैंने उसे दोबारा टोंका तो महाशय बोल उठे- बहुत राहत पैकेज की घोषणा हो तो गई, पर हमें क्या मिलने वाला है। हम चाहें डूबे या उतराएं, किसी को फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह हमारे लिए नहीं है, इस पैकेज से नेताओं और अफसरों की मौज होने वाली है।

बाढ़ पीड़ितों का तो नहीं पता हां,उनके घरों में पैसों की बाढ़ जरूर आ जाएगी। हमारे झोपड़ियों की परवाह न उन्हें कभी थी और न आगे भी कभी होगी। अगर होती तो हर साल आने वाली इस विकराल बाढ़ का कोई न कोई हल जरूर ही निकाल लेते। प्राकृतिक आपदा बताकर पल्ला थोड़े न झाड़ते। और तो और ये सफेदपोश तुम्हारी तरह ही किनारे बैठकर इस भयंकर स्थिति में भी सियासी रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे। एक भाई साहब तो पिछले 15 साल से बिहार के मुख्यमंत्री थे और तब भी कोसी में बाढ़ आती थी, लेकिन उन्हें तब समस्या नहीं लगी और आज कह रहे हैं कि सरकार चाहती तो हम बच सकते थे। सच तो यह है कि न इस सरकार ने चाहा और न उस सरकार ने चाहा था। मौतों पर राजनीति ही इनकी पुरानी आदत है। रही पैकेज की बात, तो लुटेरों की जमात है, जो जितना लूट सकेगा उतना लूटेगा। उनकी जूठन से कुछ बचा तो खानापूर्ति हो जाएगी। इतना कहकर उसने तिनके को जोर से पकड़ कर पार लगने की कोशिश करने लगा।

धर्मेद्र केशरी