Saturday, October 24, 2009

देशद्रोही

देशद्रोही की परिभाषा क्या होती है। जो देश के हित के खिलाफ हो। जो देशवासियों के दिलोदिगमाग पर विपरीत असर डाले और जिसकी वजह से देश की संस्कृति और अस्मिता पर खतरा पैदा हो। जरूरी नहीं कि सिर्फ आतंकवाद फैलाकर या हिंसा का सहारा लेने वालों को देशद्रोही समझा जाए। वो लोग भी देशद्राहियों की श्रेणी में आते हैं, जो कानून की आड़ में, मनोरंजन के नाम पर देश की अस्मिता को ठेस पहुंचाते हैं। मनोरंजन के नाम पर परोसे जाने वाले कार्यक्रम, जिनमें अश्लीलता कूट-कूट कर भरी हो, भारतीय सभ्यता के हिसाब से वो भी देशद्रोह ही है।

इन दिनों रियलिटी कार्यक्रमों का बोलबाला है। बदलाव की इस बयार का खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए, पर चैनल मनोरंजन के नाम पर अपना विश्वास खोते जा रहे हैं। पिछले दिनों अमेरिकन कांसेप्ट के हिंदी संस्करण ‘सच का सामनाज् का विरोध इसलिए हुआ, क्योंकि शो को रोचक बनाने के लिए ऐसे सवालों की बौछार की जा रही थी, जो दर्शकों के हित में नहीं था, समाज के हित में नहीं था। इन दिनों ‘बिग बॉसज् भी उसी ढर्रे पर चल रहा है। टीआरपी और कमाई के चक्कर में सामाजिकता और संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। कमाल खान के अलावा शो के अन्य प्रतियोगियों के कई क्रिया कलाप लोगों के गले नहीं उतर रहे हैं। आखिर कौन है देशद्रोही, क्यों दे रहे हैं लोग इन देशद्रोहियों को तवज्जो। नजर डालते हैं कुछ ऐसे ही किरदारों पर।

देशद्रोही नंबर 1-कमाल खान
सच ही कहते हैं लोग कि रुपहले पर्दे की दुनिया सच से कोसों दूर है। कमाल खान उन्हीं लोगों में हैं। पिछले साल इनकी एक फिल्म आई थी ‘देशद्रोहीज्। फिल्म में कमाल साहब ने देशप्रेम और प्यार का पाठ पढ़ाया था। पाठ कम पढ़ाया था, मराठी और गैर मराठी विवाद के सहारे लोकप्रियता के सही समय पर चोट की थी। गरम लोहे पर हथौड़ा मार रहे थे कमाल खान। लोगों की नजर में कमाल सच्चे देशभक्त बनते दिखाई पड़े थे, पर सच्चाई कुछ और ही है। दुनिया को प्यार और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले कमाल खान का असली रूप सभी ने देख लिया है। अड़ियल, बिगड़ैल, घमंडी और भी न जाने क्या-क्या। ये हमारी राय नहीं, बल्कि कमाल के करतूतों की सच्चाई है। ‘बिग बॉसज् में अपनी ब्रांडिंग के लिए कमाल खान ने मानवीयता को भी ताक पर रख दिया। सभी को पता है कि उन्हें गालियां आती हैं, लेकिन कमाल ने अपनी इस विशेषता को पूरे देश के सामने दिखाया है कि उन्हें कितनी गंदी-गंदी गालियां आती हैं। देशप्रेम का पाठ पढ़ाने वाला ये शख्स भूल गया कि उनके निंदनीय कारनामे देशद्रोह की श्रेणी में आते हैं। अब किस मुंह से ये देशप्रेम की कहानी सुनाएंगे और लोगों को इन पर क्यों यकीन करना चाहिए। कमाल ये भूल गए कि वो अप्रत्यक्ष रूप से सिर्फ अपने बारे में ही नहीं, कइयों की विश्वसनीयता और शख्सियत पर सवाल उठा रहे हैं।

देशद्रोही नंबर 2- कलर्स चैनल
इस चैनल को शुरू हुए एक साल का समय बीता है, लेकिन कम समय में ही ये दर्शकों का चहेता चैनल बन बैठा है। इसकी वजह भी है, इस चैनल पर कई ऐसे सीरियलों का प्रसारण होता है, जो सामाजिक दृष्टि से काबिलेतारीफ है। ‘उतरनज्,‘न आना इस देश लाडोज्,‘बालिका वधूज्,‘भाग्यविधाताज् कुछ ऐसे धारावाहिक हैं, जो आडंबरों और कुरीतियों पर चोट करते हैं। अपने इस प्रयास से चैनल ने लोगों का दिल जीता है, इसमें कोई शक नहीं, पर जिस तरह से ‘बिग बॉस 3ज् में कमाल के आपत्तिजनक बर्ताव का खुलेआम प्रसारण किया गया है, वो चैनल की विश्वसनीयता और इसकी नीयत को भी कठघरे में खड़ा करता है। जब ‘बालिका वधूज् या ‘न आना इस देश लाडोज् का प्रसारण होता है तो ये टीवी की पट्टी पर लिखते रहते हैं कि वो नारियों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों का पुरजोर विरोध करते हैं। यहां उनकी पीठ ठोंकनी होगी कि वो स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों का खुलासा कर रहे हैं, पर कमाल खान की गंदी गालियों के प्रसारण को क्या कहा जाए। क्या ये इनकी दोहरी नीति का प्रमाण नहीं है! महज टीआरपी के चक्कर में संस्कृति का खिलवाड़ नहीं हो रहा है। जसा कि सभी जानते हैं कि ये लाइव शो नहीं है, लिहाजा उन गालियों को बीप करने के बजाय हटाया जा सकता था, लेकिन नहीं टीआरपी की अंधी दौड़ में चैनल वालों ने इसे बेचने की पूरी कोशिश की है। चैनल वाले ये खुद देखें कि गालियों को बीप करने के बाद भी वो समझ में आती हैं या नहीं या गंदे इशारों को लोग समझ रहे हैं कि नहीं। चैनल के कर्ता-धर्ताओं को ये अच्छी तरह पता है कि ये गलत है, पर कमाई की पट्टी ने आंखें बंद कर रखीं हैं।

देशद्रोही नंबर 3- बख्तयार ईरानी
वैसे तो बख्तयार ईरानी घर के सदस्यों के लिए लड़ते दिखाई देते हैं। वो न्याय का साथ देना चाहते हैं, पर जब वो तनाज से बात कर रहे होते हैं तो वो क्या संदेश देना चाहते हैं। तब वो शायद ये भूल जाते हैं कि उनके परिवार के साथ-साथ पूरा देश उन्हें देख रहा है। उन गालियों को भी और भद्दे इशारों को भी। सभी को पता है कि गुस्से में हर कोई गालियां देता है, पर सरेआम गालियां देना मानवता और शिष्टता की श्रेणी में नही आता है।

द्रेशद्रोही नंबर 4- बिंदू दारा सिंह
ये भी पूरे उस्ताद हैं। गालियां देने में माहिर। पर एक बात समझ में नहीं आती कि बिंदू महाशय अपने घर में भी गंदी गालियों की बौछार करते हैं। अगर नहीं तो वो बिग बॉस में अपनी इस अदा का प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं। उन्हें तो ये समझना चाहिए कि बिग बॉस सिर्फ उनका घर नहीं है या खेल नहीं है, इसके जरिए करोड़ों लोग उन्हें देख रहे हैं। क्या असर पड़ेगा उन पर।

देशद्रोही नंबर -सरकार
सूचना प्रसारण भी ऐसे हालात के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार अगर चाहे तो ऐसे कार्यक्रमों पर लगाम कसी जा सकती है। पिछले काफी समय से मनोरंजन चैनलों के लिए निगरानी समिति बनाने की बात की जा रही है, पर सरकार यहां भी अपना स्वार्थ देख रही है। वो मनोरंजन चैनलों पर बह रही अश्लीलता को दरकिनार कर मीडिया को अपने हाथों में लेने के लिए ज्यादा प्रयासरत रहती है। सरकार को भी ऐसे कार्यक्रमों पर अंकुश लगाना चाहिए।


देशद्रोही नंबर 6- मीडिया
मीडिया भी संस्कृति पर चोट करने के लिए जिम्मेदार है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि लोगों को मीडिया पर विश्वास है। प्रेस पर यकीन है कि बिना डरे हम लोग सच्चाई लोगों तक पहुंचाएं, पर हो रहा है इसका उल्टा। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। टीआरपी की अंधी दौड़ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बेलगाम दौड़ता जा रहा है। जो दिखता है वो बिकता है के मिथक पर टीवी चैनल वाले भी देश की अखंडता पर कम वार नहीं कर रहे हैं। बिग बॉस में प्रसारण के बाद टीवी चैनलों को तो जसे जबरदस्त मसाला मिल गया। वो कमाल खान के बर्ताव को इस तरीके दिखाते रहे, जसे वो नेशनल हीरो हों। क्या ये कमाल को हाइप करना नहीं हुआ। कमाल तो बदनामी से नाम कमाने आए ही थे और वो अपने इस काम में सफल भी हुए।

देशद्रोही नंबर 7- दर्शक
कहते हैं कि अत्याचार करने वाले से अत्याचार सहने वाला ज्यादा दोषी होता है। आखिर दर्शक भी तो ऐसे कार्यक्रमों को मौन सहमति दे रहे हैं। अगर दर्शक एकजुट हो जाएं और विरोध के स्वर तेज करें तो चैनलों की क्या मजाल जो वो अश्लीलता परोसें। ये दर्शकों की सहमति से ही हो रहा है, जो उनके ड्राइंग रूम में उनके परिवार, उनके बच्चों के सामने अश्लील गालियां चल रही हैं।

हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और देश प्रगतिशील से विकसित की श्रेणी में आने को बेताब है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम इसकी संस्कृति को ही भुला बैठें। हिंदुस्तान को पूरी दुनिया इसलिए सलाम करती है, क्योंकि यहां की परंपरा अन्य देशों से बिलकुल अलग है। यहां के लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण भी भारतीय मूल्यों के हिसाब से ही करते हैं, इसलिए जब कोई यहां की विरासत को ठेस पहुंचाने का प्रयास करता है तो उसे देशद्रोह की संज्ञा दी जाती है।

दलित की झोपड़ी में

एक दिन मेरा भी मन हुआ कि नेता बनकर देखता हूं। नेता बनना कोई मुश्किल काम तो है नहीं। झूठ बोलने में महारत हासिल होनी चाहिए। झूठ तो मैं बचपन से ही बोलता आ रहा हूं। स्कूल,कॉलेज हर जगह कइयों बार झूठ बोलकर अपना काम साधा है। नेतागिरी के इस अर्हता को मैं अच्छे से पूरा कर सकता हूं।


लिहाजा सफेद खद्दर के कपड़ों को सिलवाकर दूसरे दिन ही निकल पड़ा अपने मुहल्ले में। चचा चूरन ने कभी मुङो इस भेष में देखा नहीं था। उन्हें लगा मैं किसी फैंसी ड्रेस कम्पटीशन में जा रहा हूं या ड्रामे में नेता-वेता का रोल कर रहा हूं, पर जब उन्होंन सच्चाई जानी तो दंग रह गए। मेरा पीठ ठोंकते हुए भ्गवान से और भी झूठ बुलवाने की दुआ की।


खर, चचा चूरन से फारिग होकर आगे ही बढ़ा था कि सूरन सिंह मिल गए। उन्होंने मेरे रंग-ढंग का प्रयोजन समझा तो समझाने बैठ गए। असल में वो एक हारे और दुत्कारे हुए नेता रह चुके थे। अक्सर असफल लोग ही सफलता का मूल मंत्र दिया करते हैं, जसे टीवी पर फ्लॉप क्रिकेटर, म्यूजिक रियलिटी शो में फ्लॉप सिंगर और भी न जाने क्या-क्या।


खर, मुङो गुरु के रूप में सूरन सिंह की अमृतवाणी सुनने को मिल रही थीं। वही घिसे-पिटे पुराने राग सुनकर बोर हो रहा था। घोटाला, दलाली, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, झूठ में तो मैं अर्जुन की तरह पारंग त हूं ही। चचा से कहा कुछ नया आइडिया तो। चचा ने पास के दलित बस्ती में रात बिताने चले जाओ। आजकल लोग यही करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। मुङो ये बात बड़ी मार्के की लगी। मैं भी पहुंच गया रात बिताने दलित की झोपड़ी में।


मैंने टीवी पर एक महाशय को देखा था कि उन्होंने दलित के घर के बाहर मेज पर बैठकर खाना तो खाया, पर वो खाना उसके चूल्हे से नहीं था, बल्कि बाहर से मंगवाया था। नेता बनना था, इसलिए मन मारकर चल पड़ा उसी राह। हां, अपने साथ एक खाना बनाने वाला और भाड़े के कुछ टट्ट भी ले लिए। पहुंच गया एक झोपड़ी के बाहर, बोला- रात बिताने आया हूं। दरवाजा खोलने वाली महिला ने ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा और बोली तुङो शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए। तेरा घर नहीं है, जो तू यहां अपनी रात काटेगा।


मैं सन्न, सोचा कुछ हो रहा कुछ और। काफी मनाने पर वो महिला मान गई। मैंने भी साथ गए खानसामे को खाना बनाने के लिए कह दिया। इतना सुनते ही उस महिला का पारा चढ़ गया और वो ढोंगी, राक्षस का उपाधि देते हुए बेलनों से पिल पड़ी। अजी दलित के घर में रात बिताने को कौन कहे, सिर पर पैर रखकर भागे कि कहीं नेता बनने से पहले ही जूतिया न दिए जाएं।
धर्मेद्र केशरी

Wednesday, October 7, 2009

..तुझको चलना होगा

कहते हैं कि दिल से और मेहनत से किया गया कोई भी काम जाया नहीं होता है। देर से ही सही, लेकिन मेहनत का फल जरूर मिलता है। मन्ना डे दशकों से लोगों को सुरीले गीतों का गुलदस्ता देते आए हैं, लेकिन अब जाकर उनकी कला का आंकलन हुआ है। सुरीले गायक मन्ना डे को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा जा रहा है।

वैसे इस कलाकार को सम्मान और पुरस्कारों का कोई मोह नहीं रहा है, पर ये भी सच है कि ये पुरस्कार उन्हें कहीं पहले मिल जाना चाहिए था। भारतीय फिल्म संगीत में दिए गए उनके योगदान को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये सम्मान देने में देरी हुई है।
1 मई 1919 को पूरण चंद्र और महामाया के यहां पश्चिम बंगाल में जन्में प्रबोध चंद्र डे संगीत की दुनिया में इतना बड़ा मुकाम हासिल करेंगे, ये किसी ने सोचा भी नहीं था। मन्ना डे इनके घर का नाम था और यही नाम बाद में मील का पत्थर बन गया।

मन्ना डे का नाम हिंदी और बंगाली गायकों में शान से लिया जाता है। अपने गायन करियर में करीब 3500 गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज से सजाया है। इनमें से कई गाने उन्होंने किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ भी गाया है।
मन्ना डे का जन्म कलकत्ता में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी उनकी वहीं हुई। स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दिनों में मन्ना डे अपने साथियों की फरमाइश पर अक्सर गाया करते थे। बचपन में उनकी रुचि बॉक्सिंग में थी। उनके चाचा के सी डे ने उन्हें संगीत की बारिकियों से परिचित कराया। इसके अलावा उन्हें छुटपन में ही उस्ताद दाबिर खां का संस्कार प्राप्त हुआ है। 1942 में उन्होंने मुंबई का रुख किया और कृष्णा चंद्र डे व सचिन बर्मन के साथ काम करना शुरू किया। यहीं से उनके करियर की शुरुआत हुई।

मन्ना डे के गानों की एक खास बात रही है, खास बात ये कि उन्होंने अपने गानों में शास्त्रीय गायन को हमेशा जिंदा रखा। शास्त्रीय गायन सीखने के लिए उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की दीक्षा भी ली है।
कम ही लोगों को पता है कि मन्ना डे ने फिल्म में अभिनय भी किया है। ‘रामराज्यज् फिल्म में मन्ना डे साहब ने गायन के साथ-साथ अभिनय भी किया। ‘रामराज्यज् इकलौती हिंदी फिल्म है, जो गांधी जी ने भी देखी। फिल्म ‘तमन्नाज् से उन्होंने पाश्र्व गायन में पूरी तन्मयता से कदम रखा। इसें बाद उन्होंने ‘महाकविज्,‘विक्रमादित्यज्,‘प्रभु का घरज्,‘बाल्मिकीज् और ‘गीत गोविंदज् जसी फिल्मों में अपनी आवाज दी।

उन दिनों वो साल भर में एक बार ही गाने का मौका पाते थे, क्योंकि उस दौर में फिल्में कम बना करती थीं। 50 के दशक में मन्ना डे का नाम इंडस्ट्री के बड़े गायकों में शुमार किया जाने लगा। उन दिनों राजकपूर की फिल्मों का बोलबाला था। राजकपूर के लिए अक्सर मुकेश ही गाया करते थे, पर मन्ना डे की गायन क्षमता से राज साहब भी प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने ‘श्री 420ज् और ‘मेरा नाम जोकरज् में उनसे गाना गवाया। ‘ए भाई जरा देख के चलोज् आज भी उसी शिद्दत से सुना जाता

के बैनर तले बनी फिल्म ‘बॉबीज् का ‘ना मांगूं सोना चांदीज् में भी मन्ना डे ने अपनी आवाज दी है।
मन्ना डे की सुरीली आवाज हर दौर के लोगों की पसंद बनी। उन्होंने ‘शोलेज्,‘लावारिसज्,‘सत्यम शिवम सुंदरमज्,‘क्रांतिज्,‘कर्जज्,‘सौदागरज्,‘हिंदुस्तान की कसमज्, जसी तमाम फिल्मों के गीतों को स्वर दिया। उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार पंडित भीमसेन जोशी के साथ केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूले गाकर अपनी अद्वितीय सुर साधना का परिचय दिया। मन्ना डे द्वारा गाए हिट गानों की लंबी फेहरिस्त है, जो उस जमाने में रिकार्ड तोड़ तो सुनी ही जाती थी आज के दौर में भी उतना ही हिट है। फिल्म ‘शोलेज् में किशोर कुमार के साथ गाया ‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगेज् इतना हिट हुआ कि आम लोग आज भी इस गाने को गाकर ही अपनी दोस्ती की मिसाल पेश किया करते हैं।


उन्होंने हर तरह के गानों से संगीत का गुलदस्ता सजाया है। रुमानी गीतों में मन्ना डे का अंदाज दिल की गहराइयों को छूने में कोई कसर नहीं छोड़ता। आ जा सनम मधुर चांदनी में हम, प्यार हुआ इकरार हुआ, हर तरफ अब यही अफसाने हैं, मेरे दिल में है इक बात, जहां मैं जाती हूं वहीं चले आते हो, ये रात भीगी-भीगी ये मस्त नजारे, चुनरी संभाल गोरी उड़ी-उड़ी जाए रे, ये हवा ये नदी का किनारा में वो रुमानियत महसूस की जा सकती है। क्लासिकल गीतों को गाने में तो जसे उन्हें महारथ हासिल है, रितु आए रितु जाए, छम-छम बाजे रे पायलिया, भोर आई गया अंधियारा,आयो रे कहां से घनश्याम, लागा चुनरी में दाग को याद करना सुहाता है, वहीं जानी-मानी मद्धिम लय में ऐ मेरी जोहरा जबीं, ये इश्क इश्क है, यारी है इमान मेरा, न तो कारवां की तलाश है जसी कव्वाली और महफिल के गीत भी खासे लोकप्रिय रहे हैं। कव्वाली के लिए तो उन्हें ही याद किया जाता रहा है।


फिलासफी से भरे गीत भी मन्ना डे ने खूब गाए हैं। उन गानों में जिंदगी कैसी ये पहेली हाय, चुनरिया कटती जाए रे उमरिया घटती जाए रे, क्या मार सकेगी मौत औरों के लिए जो जीता है, नदिया चले चले रे धारा, हंसने की चाह ने मुङो कितना रुलाया है, कसमें वादे प्यार वफा सब॥ प्रमुख हैं। संगीतकार आनंद जी ने जब कसमें वादे प्यार वफा गाने के लिए मन्ना डे को कहा तो उन्होंने समझा कि ये तेज गति से चलने वाला गीत होगा, लेकिन आनंद जी ने बताया कि इस गाने का टेम्पो ऐ मेरे प्यार वतन की तरह है तो वो खुश हो गए।

भक्ति गीत गाने की वजह से एक समय उनके ऊपर भक्ति गायक का ठप्पा भी लगाया गया। दादा साहब फाल्के पुरस्कार के अलावा भी उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
मन्ना डे को 1969 में फिल्म ‘मेरे हुजूरज् के लिए और 1971 में बांग्ला फिल्म ‘निशी पद्मज् के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। मध्य प्रदेश सरकार 1985 में उन्हें लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित कर चुकी है। जिंदगी के नब्बे साल पूरे कर चुके इस बेहतरीन गायक को किसी पुरस्कार से तोला नहीं जा सकता है। उनकी उपस्थिति ही हमारे लिए दो सदियों को जीवन्त और गौरवान्वित करने वाले दस्तावेज की तरह है।
धर्मेद्र केशरी

Friday, October 2, 2009

हमारी भी अरज सुनो

यही होना बाकी था। कुछ देर घर से बाहर सुकून से बिताने को मिलते थे, अब इंसाफ के तराजू में उसे भी तौल दिया गया। क्या बताऊं, पुरुष होना गुनाह हो गया है। हमारे दर्द, दुख को कोई भी सुनने वाला नहीं है। बताओ भला, ये कोई बात हुई। हर मोड़ पर धमकियां सुनने को मिलती ही हैं, मुंबई हाइकोर्ट ने एक और परेशानी बढ़ा दी। देर से घर लौटे तो कानूनी कार्यवाही होगी। हे राम, अब करें भी तो क्या। एक तो वैसे ही हर वक्त सेटेलाइट की तरह इनके संपर्क में रहते थे। क्यों,कैसे,कब,कहां,क्या कर रहे हैं, ये जानकारियां उपलब्ध करानी ही पड़ती थी, एक और बवाल।

घर में जितनी देर भी रहो मोहतरमा चैन की सांस के लेने के लिए भी ताने मारती थीं, भागकर ऑफिस आते थे, लेकिन अब तो यहां भी उनकी मर्जी चल रही है। घर से बाहर क्यों थे, बताओ। क्या बताऊं कि ये दुर्दशा ङोली नहीं जाती है। क्या बताऊं कि बाहर शेर बना रहता हूं, घर पहुंचने पर ही शक्ल बदल जाती है। घर से बाहर रहकर बीवी रूपी अटैक से बचा रहता हूं, लेकिन घर आते ही, इनके तीरों से घायल। और तो और अब बहाने भी नहीं बना सकते। बहाना बनाया कि अंदर। देर से आने का स्पष्टीकरण भी देना पड़ेगा। हे भगवान, अब पति-पत्नी का ये साथ आपसी कम कागजी ज्यादा होता जा रहा है। अभी कल को कहेंगी कि फलां त्योहार पर फलां जेवर चाहिए। बंदा काम करेगा, तभी कुछ और हासिल करके मैडम की इच्छाओं की पूर्ति करेगा। जाहिर है देर रात काम करना पड़ सकता है।

अब तो ये भी नहीं कर सकते, कोर्ट का डंडा जो चल गया है, लेकिन ये भी तय है कि उनकी मुरादों को पूरा करने के लिए आधी रात क्या, सारा दिन-पूरी रात काम करके भी आएं तो वो बुरा नहीं मानेंगी और शिकायत भी नहीं करेंगी। बातों ही बातों में तो ये जबरदस्त आइडिया निकल कर आ गया गुरु। पर ध्यान से कहीं ये प्लान भी घ्वस्त न हो जाए। अभी तक तो मोहतरमा दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की धमकियां दिया करती थीं, अब उनके हाथ एक और अस्त्र लग गया है।

भगवान ही जानते हैं शादी के बाद आवाज ही नहीं निकलती मांगूंगा क्या खाक! फिल्मों में देखा करता था कि मायके जाने की धमकियां दिया करती थीं, लेकिन अब तो मायके जाने का नाम भी नहीं लेतीं, धमकी तो दूर की बात है। उल्टा मुङो ही घर से निकालने की बात करती हैं। अब तो भगवान ही मालिक हैं हमारे चैन, अमन और सूकून का।
धर्मेद्र केशरी