Monday, January 12, 2009

जूता खाने का इरादा

जॉर्ज बुश जूनियर ने जूतों के दिन लौटा दिए हैं। नए जूतों के कद्रदानों की संख्या तो बढ़ ही रही है, पुराने जूतों के चेहरे भी खिल गए हैं। बिना पॉलिश किए भी जूते खीस निपोर कर अपनी बत्तीसी दिखा रहे हैं। फटे-पुराने जूतों ने अब अपनी किस्मत पर रोना बंद कर दिया है। एक जूता दूसरे जूते से बड़ा खुश होकर बात कर रहा था। पहले ने कहा- दोस्त, सही कहा गया है कि भगवान हर किसी का दिन लौटाते हैं। हमारी किस्मत अब सिर्फ पैरों में नहीं रह गई है, बाकायदा किसी के सिर पर पड़ने को भी तैयार है।
पहले तो लोग बस कहा करते थे कि जूता खींच कर मारूंगा, लेकिन ऐसी खुशनसीबी कम ही नसीब होती थी। अगर हमें पैरों के बदले सिर मिलता था, तो उन लागों का, जो जुल्म के शिकार हुआ करते थे। बलवान अपनी शान दिखाने के लिए अत्याचार किया करते थे। सच बताऊं, तो उस समय खुद पर कोफ्त होती थी कि हम बने ही क्यों, जो अपनों पर ही पड़ रहे हैं। अंग्रेजों ने हमारे नीचे इतने भारतीयों को कुचला है कि उसकी कसक आज भी महसूस होती है, लेकिन इस बार दिल को तसल्ली मिल रही है। इस बार एक ‘महाशक्तिशालीज् को जूता पड़ा है। दूसरा जूता- लेकिन दादा, वो जूता उन्हें लगा कहां? पहला- लगा, उनके दिल पर लगा है छोटे, महाशक्तिशाली होने का दंभ हो गया था उन्हें और जाते-जाते ये विदाई तो होनी ही थी, फिर सोच हमारी कितनी शान बढ़ गई।
पहली बार खुद के शक्तिशाली होने का आभास हुआ है। हमारी वकत अब लोगों को होने लगी है। अब हमें सिर्फ पैरों में पहनने और मंदिर से चुराने वाली चीज नहीं समझा जाता है, भले ही वो ‘जूताज् उनके मस्तक पर नहीं लगा, लेकिन उस ‘जूतेज् से हमारा ‘मस्तकज् तो ऊंचा हो गया। ये तो रही जूतों के दिल की बात। देश के कुछ राजनेता भी अब जूतों की पूजा करने लगे होंगे। खासकर वो, जिनके नेतागिरी की दुकान मंदी चल रही है। सोच रहें होंगे कि काश! कोई एक जूता मार दे तो हम भी लोकप्रिय हो जाएं। जूता खाने का दर्द इन्हें होने से रहा, क्योंकि वो इसी में लोकप्रियता की गंध ढूढ़ते हैं। वो भगवान से मनाते होंगे कि हे भगवान, हम भी जूता खाने वाले काम करते हैं, फिर हमें कोई क्यों नहीं मारता।
कोई मारे तो उस जूते को ‘चरण पादुकाज् मानकर पूजेंगे। अब अगर कोई इनसे पूछे कि ‘जूता खाने का इरादा हैज् तो भाई लोग मुस्करा कर जवाब देंगे, सिर्फ कह रहे हैं, करेंगे कब!

धर्मेद्र केशरी

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