जितने भी वाद हैं वो सबसे ज्यादा हमारे ही मुल्क में देखने को मिलेंगे। जनाब, हम धर्म निरपेक्ष देश हो सकते हैं तो ‘वादज् को पनाह नहीं दे सकते क्या! जरा नजर दौड़ाइए गली-मोहल्लों में क्या, हर घर में कोई न कोई ‘वादज् जरूर मिल जाएगा। आखिरकार हमारी सभ्यता प्राचीन है। हर खोज में आगे रह सकते हैं तो इनमें भला क्यों पीछे रहें। भले ही अपने बंदों ने इन ‘वादज् रूपी समस्याओं को जन्म न दिया हो, लेकिन पनाह देने में पीछे कौन रहना चाहेगा साहब।
आखिर ‘अतिथि देवो भव:ज् भी तो कोई चीज है उसे भी हमें ही चरितार्थ करना है। अब बताइए कौन सा ‘वादज् देखना है आपको। आतंकवाद, नक्सलवाद, पूंजीवाद या फिर नस्लवाद। ऐसा कोई भी वाद नहीं है, जिसकी हमने अपने घर में खातिरदारी न की हो। पड़ोसियों का सम्मान भी तो करना है, इसलिए वहां के हिंसक ‘वादज् को खाद-पानी दे रहे हैं। हम भी महान हैं। खुद नस्लवाद को घर में बिठाकर रखते हैं और बाहर के नस्लवाद के लिए झंडे बुलंद करते हैं। गलत है, कहीं भी नस्लवाद का होना। नस्लवाद ही क्या, कोई भी ‘वादज् देश के लिए खतरा ही है। वैसे हमारे भाई लोग भी कम नहीं है। बाहर कुछ हुआ नहीं कि प्रदर्शन शुरू, पर जब अपने विदेशी अतिथियों को ही अपनी हवस का शिकार बनाते हैं तो वो उसूल न जाने कहां चले जाते हैं। अगर कल को कोई गिरेबान में झांकने को कहे तो तो क्या जवाब देंगे! ‘वादज् ही किसी ‘वाद-विवादज् को जन्म देता है, लिहाजा वाद को खत्म करने की कोशिश करना चाहिए ताकि कोई वाद विवाद ही न हो।
स्वस्थ ‘वाद-विवाद हो तो समझ में भी आता है, लेकिन हमने तो कसम खा रखी है कि कोई भी चीज स्वस्थ नहीं रहने देंगे तो ‘वाद-विवाद की औकात ही क्या। दिक्कत ये है कि हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां उपदेश देने वाले तमाम लोग मिलेंगे, लेकिन खुद अमल करने की बारी आए तो सारे सिद्धांत ताक पर। देखिए, मैं भी उपदेश देने लगा। जब अपने मन का ही करना है तो बाद में रोना-पीटना कैसा। ‘वादज् से ही बना है ‘वादाज्, इस विद्या में हमारे खद्दरधारी पारंगत हैं। उन्हें और कुछ आए या ना आए ‘वादों की जमीनज् पर झूठ की फसल खड़ी करन खूब आता है। इनके वादों के चक्कर में बड़े-बड़े फंस जाते हैं। ये भी हमारे देश की जमीन की ही उपज है। वादा चीज ही ऐसा है कि जब तक इसे तोड़ा न जाए, चकनाचूर न कर दिया जाए चैन नहीं मिलता है। बंदा वादा तोड़ने में एक्सपर्ट होता है। सामने वाला भी वादों पर ऐतबार नहीं करता, बल्कि इंतजार करता है कि कब टूटे। खर, ये तो पिछले साठ साल से नहीं सुधरे हैं तो आगे भी गुंजाइश कम ही दिखती है, पर हम सभी को सुधरना तो पड़ेगा, नहीं सुधरे तो॥
धर्मेद्र केशरी
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