Friday, July 10, 2009

पोल खुलने लगा

सहीराम बाबा सिर पर हाथ धरे बैठे थे, जब वो इस मुद्रा में होते हें तो मेरी भी उनके पास फटकने की हिम्मत नहीं होती है, लेकिन उनकी परेशानी पूछे बिना भी काम नहीं चलने का। पूछ ही लिया। बाबा तो बमक गए। कहने लगे- आ गई ना सरकार अपनी औकात में। मैंने कहा- बाबा, क्या हो गया, क्यों अपना खून जला रहे हो। सहीराम बोले- नई सरकार बने महीन-दो महीने भर भी कायदे से नहीं बीते कि अपना रूप दिखाने लगे।

सबसे पहले पेट्रोल और डीजल का मुंह ही पकड़ते हैं और बंद करने की बजाय सुरसा की तरह खोल देते हैं। मैंने समझाते हुए कहा- बाब, उनकी भी कुछ मजबूरियां होती हैं, जब उन्हें महंगा मिलता है तो हमें भी महंगा ही मिलेगा। इतना सुनते ही वो बिफर पड़े- तो तू इनकी वकालत कर रहा है। तेरी बात माल भी ली कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत के हिसाब से ही रेट तय करते हैं, लेकिन चुनाव के पहले ये उसूल, सिद्धांत और मजबूरियां कहां हवा हो गई थीं। जब तक वोट नहीं पउ़ा था तब पेट्रोल महंगा करने की बात जुबान क्या, दिमाग में भी नहीं आई होगी और जब जनता ने अपना भरोसा दिखा दिया तो मजबूरियां गिनाने लगे।

चुनाव के पहले दाम बढ़ाते तो इनकी हिम्मत का हम भी समर्थन करते, लेकिन इन्होंने किया क्या। गिरगिट की तरह रंग बदल दिया, अवसरवादियों की तरह काम कर रहे हैं। बेटा, महंगाई का कागजी ग्राफ ऊपर-नीचे होने से रोटी के आकार पर उतना फर्क नहीं पड़ता, जितना इन कदमों को उठाने से होता है। तू ही बता, इन बढ़े दामों का असर बाजार पर पड़ेगा या नहीं। टांसपोर्ट का भाड़ा बढ़ा नहीं कि हर चीजों के दाम बढ़ने लगेंगे और एक बार दाम बढ़े तो घटने का नाम नहीं लेने वाले। ऐसे आती है महंगाई उन कागजी ग्राफों से नहीं। यहां तो उल्टा फसाना है जग महंगाई दर बढ़ रही थी तो दाल,अनाज और सब्जियों के भाव आसमान छू रहे थे और जब शून्य के नीचे चली गई तो चीजें और भी महंगी हो गईं। अब तू ही बता इन आंकड़ों से गरीब की रोटी का कोई मतलब है! बस, सरकार बनते ही इन्हें पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने की आदत हो गई है।

बेटा, जिस दिन इन सफेदपोशों को जेब से पेट्रोल भरनी पड़ जाए तो आटे-दाल का भाव पता चल जाएगा। सहीराम के नथुने गुस्से में फड़क रहे थे। मैं भी उनकी बातों का कोई ठोस जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहा था। सच ही तो कह रहे थे वो कि ये सरकार भी कम अवसरवादी नहीं है।
धर्मेद्र केशरी

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