Thursday, December 10, 2009

कभी हो प्यार..पुकार लेना

जब आती हैं दूरिया
तब होता है एहसास

प्यार का

उन जज्बातों का

जिनसे खेल बैठे कभी

आज वो दूर हैं

कहते हैं प्यार नहीं तुमसे

है यकीं प्यार आज भी है

सोचा न था ये दिन भी आएगा

वो नजरें यूं चुराएंगे

जसे गैर हों हम

गैर तो हमसे भले

भूल से ही सही, इनायत तो करते हैं

पर हम तो दूर हैं!

फासला शहरों का होता तो सह लेते

फासला मजहब का होता तो सह लेते

फासला जन्मों का होता तो उफ न करते

पर दूरियां तो दिलों की हैं

उन्हें कैसे ये समझाऊं

के दूरियों पर सिसक रहे हैं हम

और भी करीब हो रहे हैं हम

चाहा तो कई बार उनसे ये कह दूं

कह दूं कि जिंदगी पे तुम्हारा ही हक है

पर जानता हूं

वो नहीं चाहते साथ मेरा

फिर जिंदा रहूं या उनका नाम लेके मर जाऊं

मरने से पूरी होती गर ये सजा

तो जान देने से डरता ही कौन है?

लेकिन एक अहसास बाकी है, एक उम्मीद बाकी है

के वो रूबरू होंगे हमसे

जब होंगे रूबरू तो पूछूंगा एक सवाल

सजा का हकदार बेशक हूं

पर इतना बुरा हूं?

डरता भी हूं

कहीं जज्ब रह न जाए ये सवाल

न जाने तुम पूछने का मौका दो भी या नहीं!

उन नादानियों का क्या करूं

जो आ गईं आड़े

नादानियों को क्यों कोसूं, जिम्मेदार तो में ही हूं

सच में, सजा का हकदार बेशक मैं ही हूं

यकीं दिलाऊं भी तो कैसे, पास आऊं भी तो कैसे?

जिन दरवाजों को था कभी तुमने खोला

आने दिया अंदर, दिल के मकां में

अब तो खिड़कियां भी बंद हैं

रोशनदानों पर लगी हैं कांच की मोटी परत

झांक सकता हूं, पर कुछ बयां कर नहीं सकता

नहीं चाहता वो कांच भी टूटे

शीशे सा दिल तोड़ा था तुम्हारा

कांच टूटेगा, तो इल्जाम मुझपर ही आएगा

खुश हूं तुम्हारी खुशियों को देखकर

तुम छोड़ना चाहो, तुम भूलना चाहो

रोकता कौन है!

आजाद हो

करके देख लो

दूर तो हैं ही और भी दूर करके देख लो

पर हम तो जिंदा रहेंगे

क्योंकि हर लम्हा मरना है

मौत तो पल भर की हकीकत है

नसीब वो भी नहीं

क्योंकि हर लम्हा जो मरना है

सिखा के प्यार भूल बैठे हो हमें?

भूल मेरी थी या है तुम्हारी, इंसाफ तुम ही करो

हम तो इंतजार के दामन में उम्र काट देंगे

वक्त का भी क्या अजीब खेल है

जागे तब, जब मुट्ठी में रेत है!

ये तुम्हें भी पता है, टूट कर चाहता हूं तुमको

नादानियां थीं मेरी

झुका के सिर, कबूल करता हूं

पर क्या इतना ही प्यार था?

जो यूं मुंह फेर लिया

अपना बनाने के बाद, सरे राह छोड़ दिया

न समझना कि ये शिकायत है

हंस के कबूल तुम्हारी हर खुशी

ये तो हैं इस नादान दिन के सवाल

जो हर वक्त मुझसे पूछता रहता है

जीते हैं लोग, हम भी जी लेंगे

पर जिंदा लाश देखना हो

तो दर पे आ जाना

तुम्हें तो पता था कि हमनवाज हो मेरे

फिर भी जाने दिया उस खाई में?

आज भी महसूस करता हूं तुमको

तुम्हारे नर्म हाथों को तुम्हारी मुस्कराहट को

भूल सको तो भूल जाओ, तुम्हें भूलना मेरे वश में नहीं

मुमकिन है कि वक्त बदलता रहे, नामुमकिन भुलाना तेरी याद है

जीना सिखाया तुमने, इंसां बनाया तुमने

कब मुहब्बत से खुदा बन गए

खुद भी न जान पाए

बांध सका है कोई, जो मैं बांधूंगा

पर जब भी कभी याद आए

पुकार लेना

वैसे ही पाओगे, जिस हाल में छोड़ा था

पर हां,

पुकार लेना

मरने से पहले

जीना चाहता हूं तुम्हारे साथ।

धर्मेद्र केशरी

1 comment:

  1. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए है।बधाई।

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