Thursday, December 10, 2009

सत्रह का गुणा-भाग

सत्रह साल ने आम आदमी को जबरदस्त प्रभावित किया है। सत्रह साल में बहुत कुछ बदल गया। दस रुपए किलो बिकने वाली दाल सौ रुपए पहुंच गई। दो रुपए किलो बिकने वाला आलू तीस रुपए पहुंच गया। दस रुपए किलो बिकने वाली चीनी चालीस रुपए पहुंच गई। चूल्हा हर आम आदमी से दूर होता जा रहा है, पर कमबख्त पेट की आग वैसी ही है। कितनी बार इसे समझाया कि ज्यादा तड़फड़ाया मत कर, पर इसकी पूजा तो करनी ही पड़ेगी। नतीजा ये कि आज हर कोई सिर्फ ‘दाल-रोटीज् कमाने की जुगत में लगा हुआ है। सच तो ये है कि सत्रह साल बाद ‘दाल-रोटीज् भी नहीं नसीब हो रही है। बहुत कुछ बदल गया इन सत्रह सालों में। इंसान बदल गया पर एक रंग नहीं बदला।

सफेदपोश आज भी वैसे ही हैं, जसे सत्रह साल पहले थे। उन्हें इस बात का मलाल ही नहीं कि उन्होंने सत्रह साल पहले चार सौ साल पुराने प्रतीक को सुनियोजित तरीके से ढहा दिया। बात आई-गई भी हो गई, क्योंकि साल दर साल लोगों को अपने पेट और भविष्य की चिंता सताती रही, बीते को भुला रहे थे, पर सत्रह साल आम आदमी पर भारी पड़ गए। जिसका निपटारा बरसों पहले हो जाना चाहिए था, वो फाइल आज खुली वो सिर्फ सियासी फायदे के लिए। सत्रह सालों ने आम आदमी के पेट पर एक बार फिर लात मार दी।

मुआं ये मुद्दा न होकर वोट कतरने वाली कैंची हो गई, जो लोग कचकचा के चला रहे हैं। खुद को जनता के सेवक कहने वाले ये लोग भूल गए कि धीरे-धीरे ये देश भुखमरी की कगार पर पहंच रहा है। वो ये भूल गए कि महंगाई अपने चरम पर है और आम आदमी इस बोझ से उबर नहीं पा रहा। लक्जरी गाड़ियों में घूमने वाले ये भूल गए कि आम आदमी का सफर महंगा हो गया है। वो अशिक्षा भूल गए, बेरोजगारी भूल गए, लोगों का दुख दर्द, सारी परेशानियां भूल गए। मंदी भूल गए, जिसकी मार न जाने कितनों पर पड़ चुकी है और वो दरबदर फिर रहे हैं।

याद आया तो सत्रह सालों बाद वही पुराना मंदिर और मस्जिद, जिन्हें जनता भूलना चाहती है। याद भी आया तो सिर्फ नसीहत बनकर, सजा का दूर-दूर तक कोई नामलेवा नहीं। इस एक मुद्दे ने सभी मुद्दों की हत्या कर दी। ऐसा मुद्दा जिसका कोई हल नहीं निकलना है, उल्टा उन्माद बढ़ेगा सो अलग, पर इन सफेदपोशों को सिर्फ त्रिशूल और चांद तारा दिखाई पड़ रहा है। सत्रह सालों में आम आदमी बौना होता गया, इस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं। आखिर क्यों हैं ये देश ऐसा कि यहां नफरत के सौदे में फायदा ढूंढ़ते हैं लोग और विकास, प्यार, संभानाएं हैं कोसो दूर।

धर्मेद्र केशरी

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