इस बार मैं अपने गृहनगर इलाहाबाद से कुछ सवालों को लेकर लौटा, कुछ ऐसे सवाल, जिनका जवाब जानते हुए भी मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा। जब भी घर जाता हूं, मीडिया में होने की वजह से लोग मीडिया के बारे में कुछ न कुछ चर्चा जरूर करते हैं। मेरा एक दोस्त है, वो इस बार एक सवाल पर अड़ गया। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले ही एक ग्रामीण महिला को उसके ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला था। बात न थाने तक पहुंची और न ही उसके आगे, क्योंकि उसके मुताबिक सबकुछ ‘मैनेजज् कर लिया गया था। महिला साधारण घर की थी। ये पहला वाकया नहीं था, बल्कि और भी कई ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं। वो चाहता था कि मैं इस मुद्दे पर कुछ करूं। पर मैं उसके लिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया।
वो इसलिए कि इस व्यक्तिगत मुद्दे पर तो मैं लड़ सकता था, पर न जाने कितनी ऐसी घटनाएं लगातार होती रही हैं और होती भी रहेंगी और ये मेरे सामथ्र्य से बाहर होगा कि मैं वहां भी अपनी जिम्मेदारी निभा सकूं। वो जिद करता रहा और मैं उसे टालता रहा। आखिरकार उसने पूछा कि उस ग्रामीण महिला को इंसाफ क्यों नहीं मिल सकता? क्या करती है तुम्हारी मीडिया ऐसी घटनाओं पर। किसी रईस के घर में ऐसी घटना होती, क्या फिर भी तुम लोग आवाज नहीं उठाते?
जवाब उसके सवाल में ही था, फिर भी मैं चुप रहा। जवाब भी देता तो क्या कि हमारी मीडिया भी खबरों की परख करती है। टारगेट व्यूवर या रीडर घटना से ज्यादा मायने रखता है। अगर वो ग्रामीण महिला न होकर किसी रसूखवाले के परिवार की सदस्य होती तो चैनलों और कैमरों का जमावड़ा लग जाता। कई चैनल तो उसे इंसाफ दिलाकर ही सांस लेते और तब तक दिखाते, जब तक सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। मैं अपने दोस्त को ये बात कैसे समझाऊं कि जिस मीडिया को वो लोकतंत्र का चौथा खंभा मानता है, वो भी टीआरपी के फेर में फंसी है।
कैसे समझाऊं कि वो ग्रामीण महिला चैनलों की उपभोक्ता नहीं थी। उसे तो ये भी नहीं पता होगा कि समाचार चैनल या अखबार क्या होते हैं। अगर वो महिला खबरिया चैनल की उपभोक्ता होती तो शायद उसकी मौत के लिए जिम्मेदार लोगों को सलाखों के पीछे करने की मुहिम चलती और लोग उसके लिए भी इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलाते। देश में चंनिंदा मुद्दों को ही मीडिया घेरती है। मनु शर्मा के पैरोल का मुद्दा, निठारी कांड, आरुषि मर्डर पर कुछ भी होता है तो ब्रेकिंग न्यूज चलते हैं और कई पन्ने समर्पित कर दिए जाते हैं। गलत तो गलत होता है और हम यहां अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं, पर क्या सच में हम ईमानदारी से अपने सरोकारों पर खरा उतरते हैं? इन मुद्दों की खास बात ये है कि इनका संबंध धनाढ्य परिवारों से है।
देश में ऐसी तमाम घटनाएं होती हैं, पर मीडिया उन्हें क्यों पचा ले जाती है, क्योंकि वो ‘लो प्रोफाइलज् होती हैं। ये सच है कि ये बड़ी घटनाएं हैं, जिनका समाज पर असर पड़ता है, पर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि अगर सच्चाई और इंसाफ की बात ही है तो हम उस ग्रामीण महिला को न्याय दिलाने के लिए मुहिम चला सकते थे। उस खबर का समाजिक संदेश तो और भी दूरगामी होता, क्योंकि हाइ प्रोफाइल मामलों में एक बार पैसों के बल पर खिलवाड़ भी हो सकता है, पर ग्रामीण महिला को मिला इंसाफ कई घरों को सुधार सकता था। लोग किसी को जलाने और जान से मारने से डरते, क्योंकि गांवों में शहरों से ज्यादा लोग कानून के डंडे से डरते हैं।
ये सामाजिक संदेश भी होता और लोग मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल भी नहीं उठाते। मीडिया में लोगों का यकीन बहुत ज्यादा है, उन्हें विश्वास है कि मीडिया आम लोगों के हितों के लिए हमेशा आगे आती रही है, पर हम दिलचस्प और बड़ी खबरों के चक्कर में कहीं न कहीं अपने ट्रैक से उतरते जा रहे हैं। कृषि प्रधान देश हिंदुस्तान में किसानों की समस्याएं बहुत ज्यादा हैं, पर विडंबना है कि बिना किसी किसान के आत्महत्या किए या कोई बड़ा बवाल हुए उन पर ध्यान दिया जाता हो। अगर ध्यान भी दिया जाता है तो वो चंद बुलेटिन और कुछ लेखों तक ही सिमट जाता है, कोई इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए आगे नहीं आता।
देश में कितनी कलावती होंगी, जिनके बच्चे भूख से तड़पकर कई रातें गुजारते होंगे, पर राहुल गांधी के कलावती जिक्र के बाद ही उसकी गरीबी भी लोगों को दिखी। मैं अपने उस दोस्त को इन सच्चाइयों से कैसे रूबरू कराता, जो मेरे मन को भी सालते हैं। हम तो अभी तिनके हैं, पर मैं अपने उस दोस्त के सवाल का क्या जवाब दूं, ये मैं अपने आदरणीय वरिष्ठों से पूछना चाहता हूं। उसका सवाल अपने मीडियाकर्मी दोस्तों से करना चाहता हूं कि मुङो उसके सवाल का क्या जवाब देना चाहिए था।
धर्मेद्र केशरी
स्त्रियों के साथ हुए अन्याय को अनदेखा करना हमारा सामाजिक चरित्र बन गया है। गरीब,अनपढ़,उस पर ग्रामीण और फिर स्त्री!यदि दलित होती तो पाँच बाढ़ाएँ थीं। न्याय का प्रश्न ही कहाँ उठता है? जिसके माता पिता भी इसे उसका दुर्भाग्य मानकर बैठ गए होंगे उसे अन्य क्या न्याय दिलवाएँगे?
ReplyDeleteमीडिया के अपने कारण हो सकते हैं किन्तु न्याय व्यवस्था तो दर्शकों या पाठकों पर निर्भर नहीं है।
घुघूती बासूती
GD YaR aCCha liKha hAi' keep t upppp
ReplyDeleteGD yAAr aCCha liKHa hAi kEEp t uPPPPPPPP
ReplyDeleteGD yAAr aCChA liKHa hAi kEEp t uPPPPPPPPPPPPPP
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