Saturday, May 13, 2017

कैसे समझाउं तुम्हे...


माना कि सोच एक सी नहीं
माना कि उम्र एक सी नहीं
माना कि दूरियां हैं मीलों की
माना कि यकीं कम है तुमको
माना कि दरम्यां है फासला
पर तुम ही बताओ 
मेरी सोच भी तुम
मेरी राह भी तुम
मेरी आस भी तुम 
मेरी ख़ास भी तुम 
मेरा यकीन भी तुम
मेरा वजूद भी तुम
खुद को खोया है तुममे
साथ रहना है तुमको भी
फिर ये संशय कैसा?
कैसी दुविधा का जाल है?
कहूंगा बस इतना ही
हर खुशी की सौगात दूंगा
हाल कैसा भी हो पूरा साथ दूंगा
अपने फैसले पर न पछताओगे तुम
ऐसा दिन दूंगा, ऐसी रात दूंगा।

धर्मेंद्र केशरी

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