Saturday, February 20, 2010

हुस्न नहीं, हुनर बोलता है

पत्रकारिता में इन दिनों महिलाओं को लेकर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है। ये सच है कि बिना जाने लोग महिला पत्रकारों के आचरण पर कीचड़ उछालने से भी बाज नहीं आते हैं। आज हर फील्ड में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। अब वो जमाना लद गया, जब उन्हें घूंघट में घर बैठाने की परंपरा थी, पर अब बहुत कुछ बदल चुका है। सही भी है। विकसित देश बनने के लिए आधी आबादी का आगे आना भी बेहद जरूरी है। जब दोनों पहिए सही-सलामत होंगे तो गाड़ी न सिर्फ पटरी पर आती है, बल्कि तेज रफ्तार से दौड़ती भी है। बात मीडिया की, तमाम बातें हुईं कि महिला पत्रकार अपने हुस्न के दम पर नौकरी पाती हैं और न जाने क्या-क्या करने के बाद ही वो ऊपर पहुंची हैं।

आखिर ये सोच लोगों ने बना क्यों रखी है। हुनर भी तो कोई चीज है और अगर वो लड़कों की तरह काम करने का दमखम रखती हैं तो इस तरह की बातों से उनका मनोबल गिराने की क्या जरूरत है। दरअसल, अभी भी समाज पुरुष प्रधान है, वो महिलाओं के दखल को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है। हम किसी के चरित्र पर बेबाक टिप्पणी बिना सच्चाई के कर देते हैं, पर कसूरवार कौन हैं। वो जिनका भी जुनून पत्रकारिता है? हमेशा ये बात कही जाती है कि प्रतिभा अपना रास्ता खुद ब खुद बना लेती है। देर भले ही हो जाए, पर कामयाबी मिलती ही है, फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की। पत्रकारिता में ऐसे तमाम नाम हैं, जो अपने काम के दम पर शीर्ष पर पहुंची हैं। पुरुषों की तरह उन्होंने भी संघर्ष किया है। जरा सोचिए, पुरुष प्रधानता के बावजूद वो मुकाम बनाने में सफल रहीं। कुछ अपवाद भी हैं, जो हर क्षेत्र की तरह इस फील्ड में भी हैं।

दरअसल, परेशानी हमारी सोच में है। हमने सोच ही ऐसी बना रखी है। एक वाकया सुनाता हूं। मेरे एक दोस्त के सीनियर ने किसी से उसकी नौकरी की बात की। चैनल के वो बंधु दोस्त के सीनियर की बात सुनते रहे, फिर कहने लगे, कोई लड़की हो तो बताओ, फिलहाल यहां लड़कियों को ही लिया जा रहा है। ये एकतरफा सच हो सकता है, पर उन बंधु के मनोभावों को तो देखिए। आप दोष किसे देंगे? आखिर वो कहना क्या चाहते थे, सोच किसकी गलत है? और ये बहुत बड़ा सच है कि ऐसे लोगों की कमी नहीं है। कई तो ऐसे हैं, जो अपनी पद और प्रतिष्ठा का गलत उपयोग करने से भी नहीं चूकते हैं। अब मीडिया में चाटुकारिता का जमाना है। हो सकता है कि मैं गलत होऊं, पर परिस्थितियां कुछ ऐसी ही हैं कि यहां लॉबिंग चलती है। सीनियर की जी-हूजूरी से ही तरक्की मिलती है।

फिर अपने उसूलों पर चलने वाला पत्रकार भी सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या उसे भी चापलूस होना चाहिए? महिला पत्रकार भी इस जाल से नहीं बच पाती हैं। लॉबिंग से वो भी दूर नहीं रह पातीं, पर इसका मतलब तो ये नहीं कि उनके चरित्र पर कीचड़ उछाला जाए। हम अक्सर कह देते हैं कि हुस्न के दम पर फलाने मौज की नौकरी काट रही हैं, पर दिल पर हाथ रखकर देखें, क्या पुरुष पत्रकार भी चाटुकारिता नहीं करते? मेरी बातों से कुछ लोगों को गुस्सा आ सकता है, पर यही सच है। यहां हुस्न के साथ हुनर की भी जरूरत पड़ती है और जिसके पास सुंदरता है उसे चरित्रहीन कहने का हक तो किसी को नहीं।

हां, एक बात ये भी है। अगर किसी महिला पत्रकार के साथ कोई घटना होती है तो उसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार वो भी हैं। अगर वो विरोध करें तो किसी की क्या मजाल जो उन्हें हाथ लगाकर बात करे या उनके साथ बदसलूकी की हिम्मत करे। मेरी एक मित्र हैं, वो एक समाचार पत्र में थीं। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनका पूर्व बॉस उन्हें आई टॉनिक समझता था और कई बार उनका हाथ भी पकड़ चुका था। इन सबके बाद भी वो चुप रहीं। नौकरी खोने का डर रहा। मैं समझता हूं कि अगर उन्होंने आवाज उठाई होती तो उनकी जगह वो सीनियर ही बाहर होता। इन चर्चाओं को दरकिनार करते हुए अगर किसी की प्रतिभा का आंकलन किया जाए तो ही ठीक है। और रही बात मर्यादा की, तो इस पर दोनों को खरा उतरना चाहिए, फिर वो चाहे कोई पुरुष हो या कोई महिला।

धर्मेद्र केशरी

2 comments:

  1. hunar ho par husn na ho to?
    husn ho par hunar na ho to ?

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  2. फिर वो चाहे कोई पुरुष हो या कोई महिला - ये पंक्‍ि‍त एकदम ठीक अर्थ करती है।

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