10-06-08
धर्मेंद्र केशरी
एक दिन मेरी मुलाकात कुछ दूसरे टाइप के बंदे से हो गई। दूसरा टाइप इसलिए कि वो कुछ दिन पहले ही जेल की हवा खाकर लौटा था। उन्नीस-बीस के करीब उम्र का बांका नौजवान था। जेल से आने के बाद वो बड़ा खुश था।
मुहल्ले भर में उसकी धाक जो हो गई थी।
कोई उससे ऊंची आवाज में बात करने का रिस्क
नहीं उठाना चाहता था। इतनी कम उम्र में करोड़ों के महल का सुख भोग कर बड़ा गर्वान्वित था। खैर, बात हो रही है मुलाकात की। मैने पूछा- कैसा रहा
जेल का सफर? उसने सीना तानकर पुरुषार्थ
गाना शुरू किया- वहां, वहां की तो बात ही अलग थी।
सभी से मेरी जान-पहचान हो गई थी। जेलर के सामने ही कई लोग मुझे सलामी देने लगे थे। जेल में इतने कम समय में मेरी तरक्की से जेलर भी बड़ा प्रभावित
था।
उसने कहना जारी रखा-
एक बात है, जेल जाते ही कोई पूछे कि कया करके आए हो तो हमेशा मर्डर से कम बताना ही नहीं चाहिए। इज्जत कम हो जाती है फिर कोई भाव भी नहीं देता।
मैं लूट के केस में गया था,
लेकिन
सबसे बताया था कि मर्डर करके आया हूं। बड़ा
अपनापन सा जग गया था वहां। उसकी जेलगाथा सुनकर मुझे दिलचस्पी होने लगी, मैंने पूछा- और क्या-क्या अनुभव रहे वहां? उसने जवाब दिया- वहां कि तो बात ही मत
पूछिए। बाहर से देखने पर बड़ा
डरावना लगता है , लेकिन अंदर जाते ही खयालात
बदल जाते हैं।
ऐश करने की पूरी सुविधाएं मौजूद है वहां, जिसके जेब में पइसा है उसका मजा है। वहां मुझे एक साइकिल वाले नेताजी भी मिले। मुझसे
इतने प्रभावित हुए कि कहा जेल से
छूटते ही मिलना जरूर, तुम मेरे काम आ सकते हो और
मैं तुम्हारे। पता है वो नाम भर के लिए जेल में थे। नरम बिस्तर, कूलर, टी.वी., चिलम, दारू सभी कुछ मिल जाता था उनके पास। और हां वो निठारी वाले पंधेर साहब भी वहीं थे, मैं तो उनके साथ ही रहता था। इन लोगों के
साथ रहकर कुछ सीखने को ही मिल
जाता था। सभी लोगों ने कहा है कि निकलने पर कांटेक्ट
जरूर करूं।
मैंने पूछा- तो तुम्हे जेल का खाना कैसा लगा? वो चिढ़कर बोला- जेल का खाना, धत् मैं नहीं खाता था जेल का खाना। जब घर से कोई मिलने जाता था तो
पांच-दस हजार दे जाता था। कैंटीन
का खाना मंगाकर खाता था। मैं सन्न होकर उसकी बातें सुन रहा था। मैंने पूछा- अब तो ठीक लग रहा होगा बाहर आकर? बंदे ने लंबी
सांस खींची और बोला- सच कहूं, तो मजा नहीं आ रहा है बाहर। अब जब कभी वापस जाऊंगा तो मुझे पूरा विश्वास है कि वो लोग मुझे वहीं
प्यार देंगे। मैं इस नए टाइप के बंदे की
जेलगाथा सुनकर सोचने लगा कि क्या यही भारत का भविष्य है?
धर्मेंद्र केशरी
No comments:
Post a Comment