Wednesday, November 6, 2019

राम-कृष्ण के देश में, नाम बड़े और दर्शन छोटे



16-06-08
धर्मेंद्र केशरी
तेज आवाजें बार-बार गूंज रही थीं। कृष्णा पर है कत्ल का आरोप, कृष्णा है कातिल। मैंने सोचा अपने कृष्ण जी तो माखन-दूध चुराते थे , गोकुल में दूध-दही की छोटी मोटी चोरियां किया करते थे। कत्ल की कोई बात तो धर्मग्रंथों में नहीं है, हां कंस का वध जरूर किया था। कहीं मानवाधिकार उल्लंघन के चक्करों में तो नहीं उलझ गए। मुझसे रहा नहीं गया और आवाज की दिशा में घूम गया। देखा तो एक खबरिया चैनल से ये आवाजें आ रहीं थीं और चैनल में ख़बर पढ़ रहे सज्जन यही वाक्य बार-बार दोहरा रहे थे कृष्णा है कातिल वगैरह, वगैरह।
अब समझ में आया अपने किशन कन्हैया पर कत्ल का आरोप नहीं है बल्कि ये कलयुगी कृष्णा है। मेरा दिल मुझे ही धिक्कारने लगा कि ये बात पहले क्यों नहीं समझ में आर्इं। अगर भगवान कृष्ण को दुराचारी कंस के वध का आरोपी बनाया गया होता तो देश में बवाल मच जाता। इल्जाम संगीन था वो भी भगवान पर, जो उनके भक्तों सहित राजनेताओं को तो कत्तई हजम नहीं होती। जान में जान आई ये कलयुग वाले भाईसाहब हैं जिनका नाम भी कृष्णा ही है।
कलयुग में ही पहले कहा जाता था कि नाम का असर व्यक्तित्व पर भी होता है। इसलिए लोग अमूमन भगवान के नाम पर नामकरण कर देते थे कि शायद नाम का कुछ तो असर हो जाए। लेकिन अब मामला बिल्कुल उल्टा है। आदमी का जैसा नाम होता है होता है ठीक उसके विपरीत। हमारे पड़ोस में एक रामचंद्र नामक महाशय हैं। चौबीस घंटों में ऐसी कोई घड़ी नहीं बीतती होगी जब उनके मुखारबिंद से गालीवाणी न निकलती हो। नाम भर के रामचंद्र हैं मर्यादा तो बेचकर खा गए हैं।
उनसे बीवी-बच्चे ही नहीं उनके मां-बाप भी उबियाएं हैं। मां- बाप तो यहां तक कह देते हैं कि कम्बख्त का नाम रामचंद्र की बजाय रावणचंद्र रख देते तो इतना दुख तो नहीं होता। निगोड़ा भगवान के नाम को भी बदनाम कर रहा है। हां एक बात में वो भगवान रामचंद्र की तरह हैं, बेचारी नौकरीपेशा बीवी, जिसके सहारे घर का खर्च चलता है, उसे शक के घेरे में रखकर गृहत्याग करा रखा है। खैर, इसमें भगवान का क्या दोष। कलयुग में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जो अपने नाम के विपरीत अर्थ को सिद्ध करने पर तुले होते हैं। जैसे नाम है धर्मदास और हैं पक्के अधर्मी।
एक बार मैं थाने गया था। दरोगा जी का नाम देखा, ईमानदार सिंह। जब मैंने उनके बारे में जानना चाहा तो मालूम हुआ कि भाईसाहब ने मेरा विश्वास तोड़ा नहीं है बल्कि नाम के उल्टे स्वभाव के ही हैं। पूरे महकमें में चर्चा आम है कि ईमानदार साहब बिना रुपए डकारे कलम नहीं चलाते हैं। जो भी है संतोष इस बात की है कि अपने अराध्य श्रीकृष्ण जी पर कोई इल्जाम नहीं है।
धर्मेंद्र केशरी


अब भूतों के लिए जगह कहां?



3-6-2008
धर्मेंद्र केशरी
एक बार मेरे एक मित्र मेरे कमरे पर रात बिताने के लिए रूके। कमरा इसलिए कि एनसीआर में छोटे-मोटे लोग घरों में नहीं बल्कि तंग कमरों में ही रहते हैं। नींद नहीं आ रही थी तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। मेरे दोस्त ने अचानक मुझसे सवाल किया- भूत प्रेतों में यकीन करते हो कि नहीं? मैंने कहा- बिलकुल करता हूं, जब इस धरा पर इंसान हैं, भगवान हैं तो शैतान भी ज़रूर ही होंगे। उन्हे न जाने क्या सूझा कि कहने लगे कभी सच्ची के भूत को देखा है? मैं ठहरा डरपोक इंसान, मैंने कहा-यार भूत, चुड़ैलों की बात न करो तो बेहतर है।
मैंने मना तो कर दिया फिर भी भूतों के बारे में जानने का इच्छुक भी था। वो समझ गया कि मैं उसकी भूतिया कहानी में इंट्रेस्ट ले रहा हूं। मेरे मित्र ने अपनी आपबीती सुनाई कि- गांव में एक दिन जब वो खेत को पार कर रहा था तो कुछ लोग सफेद कपड़ों में जाते दिखे। पहले तो उसने वहम समझा। जब कुछ आगे बढ़ा तो फिर वही लोग सामने से टकरा गए। किसी तरह मन पक्का करके वह आगे बढ़ा तो फिर वही लोग दिख गए। अब तो उसका धैर्य टूट गया और भागता हुआ घर पहुंच कर राहत की सांस ली।
उसने बताया कि असल में वो भूत थे। मैंने पूछा- जब तुमने भूत देखा था तो टाइम कितना हो रहा था। उसने बताया कि यही कोई रात के एक से दो बजे के बीच का समय रहा होगा। मैंने घड़ी पर निगाह डाली पूरे डेढ़ बज रहे थे। थोड़ी देर बाद मेरे मित्र को नींद आने लगी उसने कहा कि बत्ती बुझा दो। मैं डर रहा था मैंने कहा लाइट बंद कर दी तो नींद नहीं आएगी और क्या पता अंधेरे में कोई भूत-वूत आ गया तो? मेरा इतना कहना था कि वो हंसने लगा कहा- यार तुम भी कमाल की बात करते हो नोएडा में इंसानों के पास सिर छुपाने के लिए छत नहीं है भूत यहां कहां से आ जाएंगे?
नोएडा या दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में जब इंसानों के लिए जगह नहीं तो भूत बेचारे कहां विचरण करेंगे। दोस्त तुम्हे भूतों से डरने की कोई ज़रूरत भी नहीं क्योंकि यही हाल अब लगभग पूरे देश का हो गया है और जिस स्पीड से जनसंख्या बढ़ रही है भूतों के आने का कोई चांस ही नहीं बनता है। दोस्त की बात में दम था। लेकिन मैं कोई रिस्क नहीं ले सका और लाइट बुझाकर सोने का साहस मुझमें नहीं आया।
धर्मेंद्र केशरी

आरक्षण की रेवड़ी पाने का फॉर्मूला



29-5-2008
धर्मेंद्र केशरी
मुद्दा गरमाया है। जिसे जिसे बहती गंगा में हाथ धोना हो जल्दी करें। राजस्थान के गुर्जर समुदाय से सबक लें और फटाफट आन्दोलन शुरू कर दें। यही सही मौका है सरकार से अपनी बात मनवाने का। कहें कि हमारी जाति पिछड़ी है और केवल आरक्षण ही हमारा उद्धार कर सकती है। उन लोगों के लिए तो बड़ा ही मुफीद समय है जो लोगों के रहनुमा बनकर अपना भविष्य सुधारने की मंशा रखते हैं। हिम्मत दिखाइए और बैंसला साहब की तरह जाति के उद्धार आन्दोलन के नायक बन जाइए।
बात मनवाने का तरीका बेहद आसान है। ट्रेन रोकिए, वाहनों को जलाइए, जगह-जगह तोड़ फोड़ तो बेहद जरूरी है। बस चक्काजाम ही कर दीजिए। न इधर का बंदा उधर जा सके और उधर का इधर आने का साहस दिखाए। सरकार का पुतला वुतला जलाइए, सभाएं कीजिए। व्यवसाय अपना भी बंद कर दूसरों को भी न करने दें। उत्पात तो ऐसा मचाइएगा कि दस-बीस भगवान के द्वार जरूर पहुंचें। जब तक कफर्यू ना लगे, बवाल, बवाल नहीं लगता है इसलिए हिंसा की हद तक हिंसा करना जरूरी है।
नाक में बिल्कुल दम करने की प्रतिज्ञा होनी चाहिए। फिर देखिए कौन ऐसा हिम्मती खादीधारी है जो आपकी बातों को नज़रअंदाज़ करने की हिराकत कर सके। सोचना सही है आपका। जातिवाद का मुद्दा ऐसा है, जब चाहेंगे कैश करवा लेंगे। और हां सरकार पर परफेक्ट दबाव बनाना है तो सरकार के विपक्षी दलों के महापुरूषों को पकड़ें। वो आग में घी डालने का काम तो करेंगे ही साथ ही साथ अपनी पापुलरिटी के लिए आप के साथ जरूर खड़े रहेंगे। वो अलग बात है कि आग लगाकर तमाशा देखने इनकी फितरत है। किसी भी चीज का अनुभव ज़रूरी है। राजस्थान के गुर्जर समुदाय पर फोकस करें कि आखिर किस बारीकी से ये अपनी बात मनवाने की कला को अपना रहें हैं।
प्रैक्टिकल करना तो अति आवश्यक है तो हूज़ूर आरक्षण की चाह को मन में मत दबाइए। इस गुबार को निकलने दीजिए। अगर आपको लगता हैकि आरक्षण ही सफलता की सीढ़ी है तो इस सीढ़ी पर चढ़िए, क्योंकि अब आपका विश्वास पढ़ाई लिखाई या प्रतिभा पर नहीं आरक्षण पर आ टिका है। महानुभावों, राजस्थान के गुर्जरों का बवाल देखो, उठो और आरक्षण की मांग करो। डरो नहीं कि सरकार कितनी जातियों को आरक्षण देगी। बस पक्का इरादा करके उतरो। सरकार को अगर आपमें जबरदस्त फायदा नज़र आया तो मिल सकता है आरक्षण। वैसे अगर अभी नहीं आन्दोलन छेड़ सकते तो चाहे जब छेड़ देना। इस देश की उपज हो अपनी मर्जी के मालिक भी। आरक्षण की रेवड़ी बंटेगी ज़रूर। बस लगे रहो।
धर्मेंद्र केशरी

एक युवक की जेलगाथा



10-06-08
धर्मेंद्र केशरी
एक दिन मेरी मुलाकात कुछ दूसरे टाइप के बंदे से हो गई। दूसरा टाइप इसलिए कि वो कुछ दिन पहले ही जेल की हवा खाकर लौटा था। उन्नीस-बीस के करीब उम्र का बांका नौजवान था। जेल से आने के बाद वो बड़ा खुश था। मुहल्ले भर में उसकी धाक जो हो गई थी। कोई उससे ऊंची आवाज में बात करने का रिस्क नहीं उठाना चाहता था। इतनी कम उम्र में करोड़ों के महल का सुख भोग कर बड़ा गर्वान्वित था। खैर, बात हो रही है मुलाकात की। मैने पूछा- कैसा रहा जेल का सफर? उसने सीना तानकर पुरुषार्थ गाना शुरू किया- वहां, वहां की तो बात ही अलग थी। सभी से मेरी जान-पहचान हो गई थी। जेलर के सामने ही कई लोग मुझे सलामी देने लगे थे। जेल में इतने कम समय में मेरी तरक्की से जेलर भी बड़ा प्रभावित था।
उसने कहना जारी रखा- एक बात है, जेल जाते ही कोई पूछे कि कया करके आए हो तो हमेशा मर्डर से कम बताना ही नहीं चाहिए। इज्जत कम हो जाती है फिर कोई भाव भी नहीं देता। मैं लूट के केस में गया था, लेकिन सबसे बताया था कि मर्डर करके आया हूं। बड़ा अपनापन सा जग गया था वहां। उसकी जेलगाथा सुनकर मुझे दिलचस्पी होने लगी, मैंने पूछा- और क्या-क्या अनुभव रहे वहां? उसने जवाब दिया- वहां कि तो बात ही मत पूछिए। बाहर से देखने पर बड़ा डरावना लगता है , लेकिन अंदर जाते ही खयालात बदल जाते हैं।
ऐश करने की पूरी सुविधाएं मौजूद है वहां, जिसके जेब में पइसा है उसका मजा है। वहां मुझे एक साइकिल वाले नेताजी भी मिले। मुझसे इतने प्रभावित हुए कि कहा जेल से छूटते ही मिलना जरूर, तुम मेरे काम आ सकते हो और मैं तुम्हारे। पता है वो नाम भर के लिए जेल में थे। नरम बिस्तर, कूलर, टी.वी., चिलम, दारू सभी कुछ मिल जाता था उनके पास। और हां वो निठारी वाले पंधेर साहब भी वहीं थे, मैं तो उनके साथ ही रहता था। इन लोगों के साथ रहकर कुछ सीखने को ही मिल जाता था। सभी लोगों ने कहा है कि निकलने पर कांटेक्ट जरूर करूं।
मैंने पूछा- तो तुम्हे जेल का खाना कैसा लगा? वो चिढ़कर बोला- जेल का खाना, धत् मैं नहीं खाता था जेल का खाना। जब घर से कोई मिलने जाता था तो पांच-दस हजार दे जाता था। कैंटीन का खाना मंगाकर खाता था। मैं सन्न होकर उसकी बातें सुन रहा था। मैंने पूछा- अब तो ठीक लग रहा होगा बाहर आकर? बंदे ने लंबी सांस खींची और बोला- सच कहूं, तो मजा नहीं आ रहा है बाहर। अब जब कभी वापस जाऊंगा तो मुझे पूरा विश्वास है कि वो लोग मुझे वहीं प्यार देंगे। मैं इस नए टाइप के बंदे की जेलगाथा सुनकर सोचने लगा कि क्या यही भारत का भविष्य है?
धर्मेंद्र केशरी

Sunday, June 10, 2018

अथ श्री 'नायक' केजरीवाल कथा

फोटो साभार

हां, तो अथ श्री केजरीवाल की ये काल्पनिक कथा तब शुरू होती है जब वो अपनी कुर्सी एक दिन के लिए श्री शीला माताजी शीक्षित को चैलेंज स्वरूप अर्पित कर देते हैं और मौके का पूरा फायदा उठाते हुए शीला माता उनकी लंका आई मीन उल्टे झाड़ुओं से प्रस्फुटित वाई फाई लैस दिल्ली को फिर से 'पुरानी दिल्ली' बनाने की कोशिशों में व्यस्त हो जाती हैं.  केजरीवाल की सत्ता अस्त व्यस्त हो जाती है. अब उसके आगे की कहानी.
कुर्सी से खुद ही कूदने वाले केजरीवाल हाथ जोड़कर शीला माई के दरबार में खड़े हैं. कहते हैं हे माता मैंने हर बार की तरह इस बार भी बस एक चाल चली थी, पासा फेंका था सोचा आप उसमें फंस जाएंगी, लेकिन आपने तो मुझे कैच आउट ही कर दिया. श्री शीला माता मुस्कुराईं और बोलीं वत्स केजरीवाल यही तो राजनीति की असली माया है, यहां मौका छीन लिया जाता है. वत्स तू भूल कैसे गया गया कि तूने भी सत्ता मेरे हाथ से ऐसे ही कब्जाई थी.
केजरीवाल उवाच लेकिन उसके लिए मैंने बहुत मेहनत की थी. झूठे वादों की लिस्ट बनानी पड़ी थी, रंगे सियारों से निपटा, बूढ़े बाबा को ठिकाने लगाया, जनता को मूर्ख बनाने का पूरा इतिहास पढ़ा और तो और अपने बच्चों की झूठी कसम भी खाई. श्री शीला माता अगेन मुस्कुराईं और बोलीं तू एक बात भूल रहा है वत्स, मौका तो मैंने ही दिया था तुझे, तो ये समझ ले कि बात सारा खेल मौके का ही है. अब फिर से जब तुझे मौका मिले तू कब्जा जमा लेना..इतना सुनते ही केजरीवाल के नयनों से अश्रुधारा फूट पड़ी. वो दहाड़े मारकर रोने लगे. अचानक ही उनके अंदर फिल्म सिंघम के प्रकाशराज की आत्मा घुस गई और वो जोर जोर से चिल्लाने लगे चीटिंग करती हैं आप चीटिंग, चीटिंग़ चीटिंग. मैंने एक मजाक क्या किया आप तो सीरियस ही हो गईं, आप नेता नहीं हैं विलेन हैं. बेचारा, सो रहा था मैं, सपने देख रहा था मैं. आता माझी सटकली. शीला माता केजरीवाल की हालत देखकर ठहाके लगाकर हंसने लगीं और हंसते हंसते ही केजरीवाल से पूछा अच्छा ये बताओ कि ये एक दिन के लिए मुझे कुर्सी सौंपने वाले चैलेंज का आइडिया आया कहां से था. केजरीवाल ने भरे कंठ से कुछ कहना चाहा़ लेकिन उन्होंने शीला माता से अपनी नायक फिल्म की सीडी वाली बात नहीं बताई और बड़बड़ाने लगे तुम्हारा तजुर्बा अगर 30 साल का है तो तुमसे 1 साल से लड़ते लड़ते मेरा तजुर्बा 31 साल का हो गया है.तभी उन्हे भौजाई ने झकझोरा क्या अंट शंट बक रहे हैं उठिए 10 बज गए न बर्तन धुले हैं अभी तक और न ही कपड़े, उठिए जल्दी. केजरीवाल की जान में जान आई और सुबह सुबह ही ट्वीट कर दिया ओजी वो सीएम वाली कुर्सी वाली बात मजाक किया था जी, मेरी हर बात की तरह इसे भी सीरियसली न लें प्लीज, हैं जी.


धर्मेंद्र केशरी

Monday, May 28, 2018

भरी कोरी जिंदगी


लिखना उस जगह पर जो खाली है कितना आसान है
भरे मिटे पन्नों पर कोई कलम चलती कहां है
कोरा सा वो कागज पर कोरा कहां है
जिंदगी लिखी थी उस पन्ने पर
पन्ना ही बचा जिंदगी कहां है
कोरा सा वो कागज पर कोरा कहां है
उस पन्ने पर स्याही दुलार की थी
गुस्साई आंखों में प्यार की थी
पथराई नजरों में इंतजार की थी
स्याही का रंग स्याह हो गया
खाली पूरा कतार हो गया
उम्मीदों की वो दवात कहां है
कोरा सा वो कागज पर कोरा कहां है
उमड़ते जज्बातों की लंबी है फेहरिस्त
सब कुछ लिख जाने का अरमान बहुत है
पर हो चुकी देर है अब तो
लिखने का वो साजो सामान कहां है
कोरा सा वो कागज पर कोरा कहां है
भरे मिटे पन्नों पर कोई कलम चलती कहां है

कोरा सा वो कागज पर कोरा कहां है

धर्मेंन्द्र केशरी