चुनाव का ऐलान होते ही बरसाती नेता सामने आने लगते हैं। मुद्दो को खंगाला जाता है और लंबे-चौड़े भाषण की पटकथा तैयार होने लगती है। नेता अपनी कमर ऐसे कसते हैं कि जिम में कमर बना रहा हीरो भी शरमा जाए। हीरोइनें तो हार मान लें कि इतना जबरदस्त कमर हम भी नहीं कस सकते हैं। चुनाव के वक्त मेरे दोस्त चिरौंजी लाल पर भी बुखर छाने लगता है।
किस नेता ने किसके लिए क्या कहा, उनकी नजरों से नहीं बच सकता है, लेकिन उनमें एक खराबी है। खराबी ये कि वो बहुत जल्दी किसी के भी बहकावे में आ जाते हैं। कल सुबह वो खिसियाए हुए मेरी ओर चले आ रहे थे। मैंने पूछा- क्या हो गया चिरौंजी भाई, इतने गुस्से में क्यों हो? चिरौंजी लाल ने कहना शुरू किया- यार, देखो लालू प्रसाद बिहारियों का कितना हिमायती है, राज ठाकरे से तो पंगा ले ही रहा है, नीतिश को भी खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं, मुङो तो लगता है कि वो नीतिश कुमार से इस्तीफा मांगकर ठीक ही कर रहा है।
मैं समझ गया कि इस बार चिरौंजी लरल लालू प्रसाद यादव की बातों में फंस गए हैं। मैंने कहा- भई चिरौंजी, तुम राजनीति पर नजर तो रखते हो, लेकिन राजनेताओं के आशय को नहीं समझते हो। फंस गए न लालू की बातों में! राज ठाकरे को खींचते-खींचते अपने असली मुद्दे पर आ गए। उन्हें बिहारियों से नहीं, बिहार से मतलब है। बिहार की सत्ता उनके हाथ में है नहीं, इसलिए राज पर निशाना साधते हुए लगे हाथ नीतिश सरकार भी गोला दाग दिया है। रही बात इस्तीफा देने की तो, लालू पहले अपने विधायकों, सांसदों से इस्तीफा देने के लिए कहें तो समझ में आता है, लेकिन वो ऐसा क्यों करने लगे। रही बात नीतिश कुमार की, तो सब को कुर्सी प्यारी हाती है, वो क्यों छोड़ने लगे ‘सोने की मुर्गीज् को। सब राजनीति के खेल हैं, फंसती बेचारी जनता ही है।
नीतिश जी ने कह तो दिया कि राज भाई साहब बिहार में होते तो वो उन्हें अच्छा सबक सिखाते, लेकिन बैठे तो बिहार में हैं, मुंबई में नहीं। कभी-कभी तो लगता है कि उद्धव ठाकरे ठीक ही कहता है कि अगर लालू ने पंद्रह साल बिहार पर ध्यान दिया होता तो यह नौबत ही नहीं आती, लेकिन उद्धव ठाकरे भी राजनीति तो ही कर रहे हैं। सभी राजनीति की उल्टी गंगा में हाथ धोने में लगे हुए हैं। बरसाती नेता हैं, अपना ही राग अलापेंगे, किसी की भावनाओं का इनके लिए मोल नहीं। चिरौंजी लाल मेरी बातों से संतुष्ट नजर आ रहा था। हामी भरते हुए वो घर की ओर हो लिया।
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